Saturday, May 20, 2017

मेरे और तुम्हारे बीच


अंबाला शहर (हरियाणा) से एक पत्रिका निकलती है 'पुष्पगंधा'. उसके संपादक हैं हमारे एक पुराने मित्र विकेश निझावन. वर्षों से उनसे न मिलना हुआ था न किसी माध्यम से संपर्क रहा था, पर अचानक कुछ समय पहले उनका फोन आया कि उन्हें हमारी कहानी 'चिंदियों की लूट' अपनी पत्रिका के लिए चाहिए. हमने भेज दी और वह उसके नये अंक (मई-जुलाई 2017) में छप गयी है. उस पर प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाओं के फोन भी आने लगे है. अंक के साथ उनका जो पत्र आया है, उसमें उन्होंने लिखा है :
"बहुत समय पहले का आपका एक आलेख 'मेरे और तुम्हारे बीच' क्या उपलब्ध हो पायेगा? उस वक्त मेरे और मित्रों के बीच उस पर काफी चर्चा रही थी. कई वर्ष सँभाल कर रखा था, अब मिल नहीं रहा..."
आज वह लेख खोजा तो पाया कि 1974 का लिखा हुआ है. (बहुत-से अन्य लेखों की तरह यह भी हमारी किसी पुस्तक में नहीं है.) हम इसे लगभग भूल चुके थे, पर आज मिलने पर पढ़ा तो बड़ा सुख मिला कि पत्र शैली में लिखा गया यह लेख आज भी प्रासंगिक और पठनीय है. --रमेश उपाध्याय

 लेख

मेरे और तुम्हारे बीच

मेरे और तुम्हारे बीच अब शायद ऐसा कोई संबंध-सूत्र नहीं रह गया है, जिसे पकड़कर मैं अपनी बात कह सकूँ, क्योंकि कल तक तुम मुझे जितना प्रिय और आत्मीय मानते थे, आज उससे भी अधिक अपना शत्रु मानने लगे हो। ऐसे में तुम्हें मेरी कोई भी बात सच और अच्छी नहीं लगेगी। फिर भी मैं निराश नहीं हूँ। मुझे अब भी आशा है कि तुम मुझे समझ सकोगे। आज नहीं तो कल। और मैं तो कहूँगा कि तुम इस पत्र को बैंक में अपने लाॅकर में रख देना और मेरी मृत्यु के बाद निकालकर पढ़ना। मुझे विश्वास है कि उस समय तुम्हें इसका एक-एक शब्द सच लगेगा। 

तुम मुझे एक सामूहिक कार्य में शामिल होने पर मिले थे। मुझे नहीं मालूम कि तुम्हें मुझमें क्या अच्छा लगा कि तुम मेरी तरफ आकृष्ट हुए, लेकिन कुछ तो अच्छा लगा ही होगा। मुझे तुममें जो अच्छा और आकर्षक लगा, वह था तुम्हारा सौहार्दपूर्ण निश्छल व्यवहार, शर्मीला-सा विनम्र स्वभाव, तुम्हारे अंदर छलकता हुआ नये यौवन का उत्साह, निःस्वार्थ भाव से सामूहिक कार्य में जी-जान से जुट पड़ने की तुम्हारी लगन और तुम्हारा वह मासूम भोलापन, जिसे बगैर मिलावट के शुद्ध सोने जैसी इंसानियत का नाम देने को जी करता है। हमारे संबंध की यह शुरुआत शायद हम दोनों को ही जिंदगी भर बहुत अच्छे दिनों के रूप में याद रहेगी। 

उन दिनों हम बहुत-से थे, मगर सब एक। सारी अलग-अलग इकाइयाँ एकजुट थीं, जैसे एक के बिना दूसरी का अस्तित्व ही न हो। फिर वह काम पूरा हो गया और हम सब बिखर गये। कोई कहीं चला गया, कोई कहीं। लेकिन इस बीच हमारे संबंध मजबूत हो चुके थे। तुम मेरे काफी नजदीक आ गये थे। मेरे अन्य मित्र भी तुम्हारे मित्र बन गये और मेरे परिवार के बीच भी तुम एक आत्मीय जन के रूप में माने जाने लगे। इसका एक कारण यह भी था कि हमारे उस ग्रुप के बिखरने के बाद मैं और तुम ही अपने-अपने परिवारों के कारण उस छोटे शहर से इस महानगर में साथ-साथ आ सके। यहाँ आकर भी हम उसी आत्मीय भाव से मिलते रहे। यह सब बहुत अच्छा लगता था--तुम्हें भी अच्छा लगता था और मुझे भी। शुरू के वे तीन वर्ष मेरे-तुम्हारे संबंधों को उत्तरोत्तर घनिष्ठ बनाते चले गये थे। 

लेकिन ऐसे संबंधों में एक भूल अक्सर हो जाया करती है। वह यह कि हम भावुकता में बह जाते हैं। अपनी भावुकता में हम यह भूल जाते हैं कि समय बीतने के साथ-साथ हमारा जीवन बदलता रहा है और अब हम बिलकुल वैसे ही नहीं रहे हैं, जैसे कुछ वर्ष पहले थे। होना तो यह चाहिए कि हम अपने जीवन में आये परिवर्तनों को देखते-जानते-समझते चलें और तदनुसार अपने संबंधों को पुनर्परिभाषित करते चलें, लेकिन हमारी भावुकता हमें ऐसा करने से रोकती है। भावुकता बुद्धि की दुश्मन है। वह तर्क को स्वीकार नहीं करती। नतीजा यह होता है कि हम अपने संबंधों में आये परिवर्तनों के अनुसार स्वयं को बदलने के बजाय (या उन्हें बदले हुए रूप में समझने के बजाय) उसी पुराने संबंध को जीते रहना चाहते हैं, जो शुरू में था और हमें प्रिय था।

हमारी यह भूल, यह भावुकता, बड़ी गड़बड़ी पैदा कर देती है। हम पहले की तरह ही मिलना चाहते हैं, वैसी ही बातें करना चाहते हैं, उसी तरह साथ-साथ रहना और मीठे सपने देखना चाहते हैं, उसी तरह एकजुट होकर काम करना चाहते हैं। ऐसे में यदि हम फिर किसी सामूहिक कार्य में एक साथ शामिल हो जाते, तो शायद हमारी यह इच्छा पूरी होती रहती। लेकिन वैसा हो नहीं पाया। किसी एक समान उद्देश्य के लिए एक साथ आगे बढ़ने के बजाय हमारे काम की दिशाएँ अलग-अलग हो गयीं। हाँ, हमारा मिलना-जुलना बना रहा। 

यदि हम भावुक हों, तो किसी पुराने मित्र से मिलने जाते समय हम वैसे ही भाव मन में लेकर जाते हैं, जो उससे मिलते समय वर्षों पहले हमारे मन में होते थे। लेकिन हम पाते हैं कि उससे मिलकर हमें ठेस लगी है और हम कहते हैं--अरे, वह तो एकदम बदल गया है। वह बदलाव हमें अच्छा नहीं लगता। हम दुखी हो जाते हैं। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। कुछ लोग होते हैं, जिनसे हम चाहे जितने समय बाद मिलें, हमें नहीं लगता कि वे बदल गये हैं। ऐसा केवल दो स्थितियों में हो सकता है--या तो हम दोनों भावुकता में जीने वाले अतीतजीवी हों और हमारा बौद्धिक विकास समान रूप से रुका रहा हो, अथवा हम दोनों बौद्धिकता के साथ अपने वर्तमान को समझते हुए जीने वाले हों और हमारा बौद्धिक विकास एक-दूसरे को जानते-समझते हुए समान रूप से हुआ हो। लेकिन ऐसा आदर्श जोड़ बहुत कम देखने में आता है। गड़बड़ी सबसे ज्यादा वहाँ होती है, जहाँ दोनों में एक व्यक्ति भावुक हो और दूसरा बौद्धिक। बौद्धिक व्यक्ति जीवन में आने वाले बदलाव को समझता हुआ अपने पुराने संबंधों को नयी नजर से देखता है और उन्हें बदलना चाहता है, जबकि भावुक व्यक्ति पुराने संबंधों को पुरानी नजर से ही देखता है और उन्हें उसी रूप में देखते रहना चाहता है। 

मेरे और तुम्हारे बीच यही हुआ है। मैं स्वीकार कर लूँ कि शुरू के दिनों में मैं भी तुम्हारी तरह भावुक था। हाँ, इतना नहीं। शायद उस भावुकता के लिए मेरी परिस्थितियाँ भी जिम्मेदार थीं, क्योंकि उस समय मैं अकेला था और उस छोटे शहर में घरेलू जिम्मेदारियों से मुक्त छात्र जीवन जीते समय उस प्यार करने वाली उम्र में वह भावुकता शायद जायज भी थी। या कम से कम अस्वाभाविक नहीं थी। लेकिन फिर मैं इस महानगर में आ गया। आजीविका संबंधी तमाम समस्याएँ मेरे जीवन में आ गयीं। मेरी शादी हो गयी। बच्चे हो गये। नये-नये लोगोें से मेरा परिचय हुआ। मैं एक नयी विचारधारा के संपर्क में आया, जिसने मुझे ऐसा झकझोरा कि मेरे बहुत-से पुराने विचार और विश्वास बदल गये। मेरा लेखन बदल गया। संक्षेप में, मैं काफी बदल गया। बदले तुम भी। अपने छोटे और प्यारे शहर से इस बड़े और अजनबी शहर में आये, नौकरी की, व्यवस्थित हुए, अपना निजी जीवन शुरू किया, लेकिन... 

तुम्हें याद है, अपनी नौकरी के कुछ दिन बाद ही तुम्हें लगने लगा था कि सब लोग बदल गये हैं? लोग सचमुच बदल गये थे। बदलते ही हैं। बदलना ही है। बदलना जीवन का नियम है। और जीवन हमें इसीलिए इतना प्रिय भी होता है कि वह बदलता रहता है। लेकिन तुमने अपने और दूसरों के जीवन में आये परिवर्तनों को समझने की कोशिश नहीं की। तुम्हें लगा, दूसरे ही बदलते हैं; तुम नहीं बदलते, तुम वही हो। लेकिन जब हम यह मान लेते हैं कि हम वही हैं, तो दूसरे सब और भी ज्यादा बदले हुए लगने लगते हैं। दरअसल, तब हम स्वयं को अपरिवर्तित मानते हुए अपने अतीत से प्यार कर रहे होते हैं और इस अतीत में जिन लोगों से हमने प्यार किया होता है, उनसे उसी रूप में प्यार करते और उसी रूप में उनसे प्यार पाते रहना चाहते हैं। उन लोगों की एक प्रिय प्रतिमा हमारे मन में बनी होती है और उस प्रतिमा में किसी प्रकार का परिवर्तन हमें उसमें आयी हुई विकृति जैसा लगता है। अपने मन की उस प्रतिमा को हम बाहर भी उसी अविकृत रूप में देखना चाहते हैं। यही भावुकता है। यह सोचने का अबौद्धिक-अतार्किक ढंग है। सारी गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है। अपनी भावुकता में हम भूल जाते हैं कि हमारे मन में बनी प्रतिमा में और यथार्थ व्यक्ति में अंतर है। और जब ऐसा होता है कि वह अंतर हमें बाहर तो नजर आता है, पर हमारा मन उसे स्वीकार नहीं करना चाहता, तो हमारा पहला काम यह होना चाहिए कि हम इस अंतर्विरोध को समझें और अपने-आप को बदले हुए यथार्थ के साथ एडजस्ट करें। लेकिन यह बुद्धि का काम है और हमारी भावुकता बुद्धि को यह काम करने से रोकती है। 

अकेलेपन, अजनबीपन, संबंधों की निरर्थकता, जीवन के ऊलजलूलपन आदि की बातें यहीं से पैदा होती हैं और उन बातों में हम जितने उलझते जाते हैं, उतनी ही यथार्थ की पकड़ हमसे छूटती जाती है। और तब यदि कोई हमें कोंचकर यथार्थ दिखाना चाहता है, तो हम क्षुब्ध हो उठते हैं। तर्क और बुद्धि का मजाक उड़ाते हुए हम दूसरों की ‘दुनियादारी’ से चिढ़ने लगते हैं। तब हम सारी बातें भावनाओं से कहना और समझना चाहते हैं। शब्द हमें व्यर्थ लगने लगते हैं और हम शब्दों के अर्थ समझने के बजाय बोलने वाले के आशय को भाँपने लगते हैं (जो पुनः एक अबौद्धिक काम है) और तब हमारे लिए आंगिक चेष्टाएँ तथा चेहरे पर आने वाले भाव अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं--अपने भी और दूसरों के भी। शब्दों के प्रति अविश्वास हमारे मन में घर कर जाता है और भाषा हमारे लिए व्यर्थ होने लगती है। तभी हम अपने संबंधों को पुनर्परिभाषित करने और उन्हें नया नाम देने से कतराने लगते हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी, कैसा भी मानवीय संबंध भाषा में व्यक्त हुए बिना, यदि वह हो भी तो अस्तित्वहीन है। मानवीय संबंधों का जन्म ही भाषा के साथ हुआ है। अतः स्नेह संबंधों में भाषा के इस्तेमाल को फालतू मानना और मौन से बातों को समझाने की कोशिश करना सारे मानवीय विकास को अँगूठा दिखाकर बहुत पीछे, आदिम पशुवत जीवन-स्थिति में लौट जाना होगा। अगर तुम्हें याद हो, तुमने देखा होगा कि अकविता और अकहानी के दौर में बहुत-से हिंदी लेखक अपनी रचनाओं में उसी आदिम पशुवत जीवन-स्थिति की ओर लौटते मालूम होते थे। 

अपनी भावुकता में हम यह मान लेते हैं कि हमारे कोमल और जटिल भावों को व्यक्त करने की क्षमता भाषा में नहीं है, लेकिन वास्तव में उस समय हम अपने और अपने आसपास की चीजों के बदलते हुए संबंधों को नये नाम देने की जरूरत महसूस कर रहे होते हैं। बौद्धिक व्यक्ति के लिए यह एक चुनौती होती है, वह इस चुनौती को स्वीकार करता है और यदि उसे अपनी भाषा में इन संबंधों को नये नाम देने के लिए उचित शब्द नहीं मिलते, तो वह नये शब्द गढ़ता है, नयी भाषा का आविष्कार करता है। भाषा का विकास इसी तरह होता है। और साहित्य इसीलिए तो हर युग में नया होता हुआ विकसित होता रहता है। लेकिन भावुक लोग इस चुनौती को स्वीकार करने के बजाय पुरानी भाषा में ही अपने-आप को अभिव्यक्त करने की कोशिश करते हैं और जब इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पाते, तो भाषा को अक्षम बताकर मौन में सार्थकता खोजते हैं। 

तब हमें बात करना नहीं, खामोश रहना अच्छा लगता है और हम चाहने लगते हैं कि अगर हम खामोश बैठे हैं, तो दूसरे भी खामोश बैठें। हमें प्रायः महसूस भी नहीं होता और हमारी इच्छाएँ हमारे लिए सर्वोपरि होती जाती हैं। तब हम चाहते हैं कि हम हँसें तो सारी दुनिया हँसे, हम उदास हों तो सारी दुनिया उदास हो जाये, हम कोई काम करें तो हमसे संबंधित सारे लोग उस काम में हिस्सा लें, हम निष्क्रिय हो जायें तो सारे लोग हमारी तरह निष्क्रिय हो जायें। मगर जब ऐसा नहीं होता, क्योंकि ऐसा हो नहीं सकता, तो दुनिया हमें बड़ी गलत, क्रूर और बेईमान दिखायी देने लगती है। लगता है, जैसे हम एक तरफ हैं और बाकी सारी दुनिया दूसरी तरफ। हमारा अतीतजीवी होना हमारी इस धारणा को और पुष्ट करता है। हम सोचते हैं--यदि हम पहले सही थे, और इसका प्रमाण यह कि बहुत-से लोग हमारे साथ थे और हमें सही कहते थे, और आज भी हम वही हैं, तो सही क्यों नहीं हैं? और यदि हम सही हैं और नहीं बदले हैं, तो दूसरे जो बदल गये हैं, निश्चय ही गलत हैं। (भावुकता की भी अपनी एक तर्क-पद्धति होती है, जो अपने-आप को जस्टीफाइ करने के लिए इस्तेमाल की जाती है।) 

ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि हम दूसरों में आये हुए परिवर्तन को गलत या अनैतिक मानने लगें। लेकिन भावुकता में नैतिकता का मानदंड भावुक व्यक्ति स्वयं होता है, क्योंकि वह खुद को ही सही मानता है और बाकी सबको गलत। अधिक से अधिक वह उन्हीं को सही मान सकता है, जो उसी जैसे हों या उसका समर्थन करते हों। कोई वस्तुपरक मानदंड न होने के कारण वह भावना पर आधारित अपनी उस अबौद्धिक तथा अवैज्ञानिक तर्क-पद्धति को ही आगे बढ़ाता जाता है और बढ़ाते-बढ़ाते एक पूरा व्यक्तिपरक नीतिशास्त्र गढ़ लेता है। दुर्भाग्य से वह अपने द्वारा गढे़ गये उस नीतिशास्त्र में विश्वास भी करने लगता है। यहाँ तक कि उसे लगने लगता है कि उसकी तर्क-पद्धति और उसका अपना नीतिशास्त्र सर्वमान्य है। 

लेकिन किसी का निजी नीतिशास्त्र दूसरों पर कैसे लागू हो सकता है? और जब वह लागू नहीं होता, तो उसके आधार पर दूसरों को गलत, बुरा या बेईमान कैसे कहा जा सकता है? मगर भावुक व्यक्ति की यह विशेषता होती है कि अपनी बनायी नैतिकता का वह खुद जितनी सख्ती से पालन करता है (और अपनी इस कोशिश में वह इतना ‘ईमानदार’ होता है कि दोस्त, प्रेमिका या देश के लिए सचमुच प्राण दे सकता है!), उतनी ही सख्ती से उसका पालन वह दूसरों से कराना चाहता है। और जब दूसरे उसका पालन नहीं करते, तो उसे बेइंतिहा गुस्सा आता है। (और अपने इस गुस्से में वह इतना ‘ईमानदार’ होता है कि दूसरों की बेईमानी बर्दाश्त न कर पाने के कारण उनकी हत्या तक कर डालता है!) दोनों तरह के पचासों उदाहरण तुम्हें मिल जायेंगे। लेकिन यहाँ सोचने की बात यह है कि अबौद्धिक-अवैज्ञानिक चिंतन के कारण एक बलिदानी और एक हत्यारे में कितना कम फर्क रह जाता है। उत्कट प्रेम करने वाले प्रेमी-प्रेमिका और एक-दूसरे पर जान देने वाले दोस्त क्यों कभी-कभी एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं? इस सवाल का जवाब उनकी भावुकता या अबौद्धिकता में ही मिल सकता है। शादी के बाद अनेक प्रेम-विवाहों के असफल हो जाने का कारण अक्सर यह होता है कि प्रेमी से दंपती बन चुके दो व्यक्ति शादी के बाद बदले हुए अपने संबंधों को बौद्धिक ढंग से स्वीकारने के बजाय प्रेम के पुराने संबंध को ही जीने की कोशिश करते हैं। प्रेम-प्रसंगों में हत्याएँ और आत्महत्याएँ प्रायः किसी एक की भावुकताजन्य नैतिकता के कारण होती हैं, जिसे वह दूसरे पर भी लागू करना चाहता है। 

राजनीति में इस प्रवृत्ति का सबसे बड़ा उदाहरण हिटलर है। फासिज्म आखिर क्या है? अबौद्धिक, अतार्किक, अवैज्ञानिक चिंतन से पैदा हुई विचारधारा, जिसको मानने वाले एक खास तरह की नैतिकता के कट्टर समर्थक और पालनकर्ता होते हैं। यद्यपि वह नैतिकता उनकी अपनी होती है, जिसे वे बलपूर्वक दूसरों से मनवाते हैं और जो लोग उसे मानने से इनकार करते हैं, उन्हें वे खत्म कर देते हैं। बुद्धि से काम न लेकर भावना से काम लेने वाले फासिस्टों को अपने देश में देखना हो, तो जनसंघियों को देख लो। जनसंघी लोग नैतिकता और उच्चचरित्रता की दुहाई देते मिलेंगे, पर उनकी नैतिकता है क्या? वे सारे मूल्य, जो शोषण पर आधारित समाज-व्यवस्था को बनाये रखने में सहायक हों। लेकिन जिनका शोषण हो रहा है और जो शोषण से मुक्त होना चाहते हैं, वे उस नैतिकता को कैसे स्वीकार कर लें? वे तो उसके विरुद्ध आवाज उठायेंगे। जनसंघियों को यह बर्दाश्त नहीं। यही कारण है कि देश के नाम पर प्राण देने को तैयार जनसंघी देश की करोड़ों शोषित जनता के दमन का कट्टर समर्थक बन जाता है। यही नहीं, उस दमन में वह खुद दमनकारी शक्तियों का साथ देता है। तुमने सुना होगा कि जनसंघी लोग अक्सर जनता के चारित्रिक पतन की बात किया करते हैं और उसके चारित्रिक उत्थान के लिए हिटलर जैसे किसी डिक्टेटर की जरूरत पर जोर दिया करते हैं। 

भावुक व्यक्ति जनसंघी या फासिस्ट न हो, तो भी वह समाजवादी नहीं हो सकता। कारण यह है कि समाजवाद एक वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित जीवन-दर्शन है और उसमें अबौद्धिकता के लिए गुंजाइश नहीं है। दूसरे, समाजवादी होने के लिए प्रगतिशील होना जरूरी है, लेकिन भावुकता इसके विपरीत हमें प्रतिगामी बनाती है। प्रगतिशील व्यक्ति के लिए जो परिवर्तन सामाजिक प्रगति और उन्नति का सूचक है, प्रतिगामी व्यक्ति के लिए वही परिवर्तन बेईमानी या चारित्रिक पतन की निशानी है। अब तुम्हीं सोचो, जो आदमी परिवर्तन को ही गलत मानता है, वह किसी महत् और व्यापक परिवर्तन (क्रांति) से अपना तालमेल कैसे बिठायेगा? 

तुमने लेखक और लेखन के बारे में कुछ धारणाएँ बना रखी हैं या जाने-अनजाने दूसरों से लेकर अपना रखी हैं। उनमें से एक प्रमुख धारणा यह है कि लेखक को राजनीति से दूर रहना चाहिए। यदि वह पहले अराजनीतिक था और अब राजनीतिक हो गया है, तो उसमें आया यह परिवर्तन अनुचित और अनैतिक है। तुम अपनी इसी धारणा के आधार पर मुझ में आये परिवर्तन को अनुचित और अनैतिक मानते हो। 

इसी से जुड़ी हुई एक और धारणा यह है कि लेखक यदि क्रांति की बात करता है, मजदूरों और किसानों के पक्ष से उनके बारे में लिखता है, तो उसे नौकरी, गृहस्थी और साहित्य-वाहित्य छोड़कर क्रांति ही करनी चाहिए। उसे अपना सुख-सुविधासंपन्न जीवन त्यागकर मजदूरों और किसानों के बीच जाकर रहना चाहिए। उन्हीं का-सा खाना-पहनना चाहिए। और जो लेखक ऐसा नहीं करता, वह झूठा है, बेईमान है, अनैतिक है। 

लेकिन ये धारणाएँ तर्कसंगत या बुद्धिसंगत नहीं, नितांत अतार्किक और अबौद्धिक हैं, जो आदमी को भावुक और कुतर्की बनाती हैं। भावुक और कुतर्की व्यक्ति भावना के आधार पर अपने मन में क्रांति और क्रांतिकारियों की एक काल्पनिक तस्वीर बना लेता है और मानने लगता है कि उसके मन में बनी हुई तस्वीर ही सच है। तुम मुझे एक ऐसा आदमी समझते हो, जो क्रांतिकारी बनता है, लेकिन है नहीं; जो कुछ करता नहीं, सिर्फ बातें बनाता है। यानी एक ऐसा आदमी, जिसकी कथनी और करनी में फर्क है; जो झूठा और बेईमान है। लेकिन मैंने कब तुमसे कहा कि मैं क्रांतिकारी हूँ? मैं क्रांति चाहता हूँ, क्योंकि शोषण, दमन और अन्याय पर टिकी वर्तमान व्यवस्था की जगह मैं भविष्य की एक बेहतर व्यवस्था चाहता हूँ। ऐसी इच्छा या कामना मेरे मन में, तुम्हारे मन में, किसी के भी मन में हो सकती है और जब वह मन में होती है, तो वाणी में व्यक्त भी होती है। मैं लेखक हूँ, सो मेरे लेखन में मेरी यह इच्छा या कामना व्यक्त होती है। कभी वर्तमान व्यवस्था की आलोचना के रूप में, तो कभी भविष्य की बेहतर व्यवस्था की परिकल्पना के रूप में। लेकिन इससे तुम यह निष्कर्ष कैसे निकाल सकते हो कि मैं क्रांति की बात करता हूँ, तो मुझे प्रोफेशनल क्रांतिकारी होना चाहिए, जो कि मैं नहीं हूँ? 

दरअसल, तुम अपना प्रिय मित्र और आदर्श व्यक्ति मुझे नहीं, मेरी उस काल्पनिक छवि को मानते हो, जो भावुकतावश तुमने अपने मन में बना ली है। उसके अनुसार तुम मुझे जैसा देखना चाहते हो, वैसा मैं नहीं दिखता हूँ, बिलकुल बदल गया लगता हूँ, तो तुम्हें बुरा लगता है और मुझ पर गुस्सा आता है। मैं तुम्हें समझाने की कोशिश करता हूँ, तो तुम मुझे गलत और स्वयं को सही ठहराने लगते हो। तुम यह मानते ही नहीं कि कुछ भी और कोई भी हमेशा सही या हमेशा गलत नहीं होता। तुम स्वयं को हमेशा सही समझते हो, लेकिन अपने-आप को हमेशा सही कहने वाला तो कोई हिटलर ही हो सकता है। (तुम्हें पता है, हिटलर ने अपने बारे में क्या प्रचार कराया था? यह कि हिटलर हमेशा सही होता है।) 

तो, मेरे और तुम्हारे बीच इस बात का फैसला कैसे हो कि कौन सही है और कौन गलत? इस बात का फैसला भावुकतापूर्ण  ढंग से नहीं, यथार्थवादी तरीके से ही हो सकता है। मेरे और तुम्हारे बीच अगर कोई वास्तविक निर्णायक है, तो वह है यथार्थ, जो निरंतर स्वयं तो बदलता ही है, मुझे और तुम्हें भी बदलता है। लेकिन यथार्थ ही हमें नहीं बदलता, हम भी यथार्थ को बदलते हैं। हमारे उस बदलाव की दिशा यदि प्रतिगामी न होकर प्रगतिशील है, मनुष्य और समाज को बेहतर भविष्य की ओर ले जाने वाली है, तो हम सही हैं, अन्यथा गलत। मेरे और तुम्हारे बीच सही-गलत की कसौटी यही हो सकती है।