Wednesday, October 18, 2017

पागलों ने दुनिया बदल दी

आज मित्रों के लिए प्रस्तुत है मेरी नवीनतम  कहानी :

पागलों ने दुनिया बदल दी

मैं पूछती, ‘‘आप कैसे हैं?’’

और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’

मैं पूछती, ‘‘आपकी यह हालत कब से है?’’

और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’

मैं पूछती, ‘‘आप क्या थे? डॉक्टर, इंजीनियर, पत्रकार, प्रोफेसर…?’’

और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’

मैं पूछती, ‘‘आप लोग यह सामूहिक आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?’’

और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’

मैं पूछती, ‘‘आप लोग तो असमर्थों में समर्थ थे, आपको जैविक कूड़ा बन जाने की क्या सूझी?’’

मेरे इस सवाल पर वे और भी जोर से हँसते, ‘‘हा-हा-हा!’’

मैं ‘सभूस’ की पत्रकार थी। ‘सभूस’ यानी समर्थों की भूमंडलीय समाचारसेवा। मुझे देश-देश जाकर पागलों की गतिविधियों के समाचार देने का काम सौंपा गया था। काम खतरनाक था, पर मैंने खुशी-खुशी करना मंजूर कर लिया था। मुझे शुरू से ही शक था कि पागलपन की वह बीमारी, जो इधर भूमंडलीय महामारी का रूप ले चुकी थी, बीमारी या महामारी नहीं, कोई और ही चीज है। मैं निजी तौर पर उसका पता लगाना चाहती थी। दूसरे, मुझे हल्की-सी एक उम्मीद थी कि मेरे देश की तबाही के साथ मेरे सब लोग शायद तबाह न हुए हों। शायद मेरे दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता, मामा-मौसी और भाइयों-बहनों में से कोई बचकर भागने और किसी दूसरे देश में शरण पाने में सफल हो गया हो। निजी तौर पर तो मैं देश-देश घूमकर अपने लोगों का पता लगा नहीं सकती थी, सो मैंने सोचा कि पत्रकार के रूप में शायद मैं उन्हें पा सकूँ।

अपने-अपने कामों में लगे स्वस्थ लोगों के पागल होने का सिलसिला ठीक-ठीक कब और कहाँ शुरू हुआ, यह तो शायद कोई नहीं जानता, लेकिन वह समर्थ और असमर्थ दोनों तरह के देशों में और दुनिया भर में एक साथ शुरू हुआ था। सामान्य जीवन जीते, रोजमर्रा के काम करते, अच्छे-भले लोग अचानक हँसना शुरू कर देते और हँसते ही चले जाते। वे अपने घरों, दफ्तरों, खेतों, कारखानों वगैरह से निकलकर सड़कों पर आ जाते। उनमें पुरुष और स्त्रियाँ, बूढ़े और बूढ़ियाँ, प्रौढ़ और प्रौढ़ाएँ, युवक और युवतियाँ सभी होते।

ठीक तारीख बताना तो संभव नहीं, पर लोगों के पागल होने का सिलसिला जब शुरू हुआ, तब अखिल भूमंडल पर समर्थों के शासन का सत्रहवाँ साल चल रहा था। सोलह साल पहले समर्थ शासकों ने अपनी विश्व संसद बनायी थी और अपना नया संवत् शुरू किया था। उसके अनुसार वह समर्थ संवत् का सत्रहवाँ साल था। उसके पहले समर्थों और असमर्थों के बीच एक भूमंडलीय युद्ध हुआ था, जिसमें समर्थों की विजय और असमर्थों की पराजय हुई थी।

मैं एक असमर्थ देश की लड़की थी, जो युद्ध के समय एक समर्थ देश में पढ़ रही थी। मैं अपने देश लौटना चाहती थी, लेकिन मेरे माता-पिता ने सख्ती से मना कर दिया था। उनके विचार से मेरी सुरक्षा इसी में थी कि मैं जहाँ हूँ, वहीं बनी रहूँ। युद्ध में असमर्थ देश हार रहे थे और तबाह हो रहे थे।

उन्हें हारना ही था, क्योंकि उस युद्ध में दुनिया के सभी समर्थ देश एक होकर लड़े थे, जबकि असमर्थ देश आपस में लड़ते हुए लड़े थे। यों समर्थ देशों में भी कुछ देश कम और कुछ अधिक शक्तिशाली थे और उनके भीतर भी रंग, नस्ल, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा वगैरह के तमाम झगड़े थे, लेकिन उस समय उनका लक्ष्य एक हो गया था–जैसे भी हो, असमर्थ देशों पर विजय पाना। दूसरी तरफ असमर्थ देश उस निर्णायक युद्ध में भी अपने भीतर के झगड़ों को छोड़कर–यानी धर्म-संप्रदाय, खान-पान, रहन-सहन, बोली-बानी, ऊँच-नीच, छूत-अछूत जैसे झगड़ों को छोड़कर–अपना एक लक्ष्य तय करके नहीं लड़ सके थे। उनका लक्ष्य समर्थों पर विजय प्राप्त करना नहीं, केवल स्वयं को बचाना था। उन्हें एक-दूसरे की चिंता नहीं थी, सबको अपनी-अपनी पड़ी थी। नतीजा वही हुआ, जो होना था। समर्थ जीते, असमर्थ हारे। जीतने के बाद समर्थों ने अपनी भूमंडलीय समर्थ संसद कायम की, अपना नया संवत् चलाया और अखिल भूमंडल पर शासन करने लगे।

समर्थों ने जो भूमंडलीय संविधान बनाया, उसकी सर्वप्रमुख धारा, जिससे समस्त उपधाराएँ निकलती थीं, यह थी कि समर्थों को ही जीवित रहने का अधिकार है। असमर्थ लोग और असमर्थ देश तभी जीवित रह सकते हैं, जब वे समर्थ बनने के लिए प्रयत्नशील होकर पूरी निष्ठा से समर्थों की सेवा करें। जो असमर्थ लोग या देश ऐसा नहीं करेंगे, उन्हें जीवित रहने का अधिकार नहीं होगा। इतना ही नहीं, वे समर्थों के प्रति कितने निष्ठावान हैं, यह भी समर्थ तय करेंगे और उन्हें पूरा अधिकार होगा कि निष्ठा में कमी पायी जाने पर वे असमर्थ लोगों को जैसे चाहें मारें-पीटें, जेलों में डाल दें या गोली-गोलों से उड़ा दें और असमर्थ देशों को जैसे चाहें लूटें और तबाह करें।
अब, जीवित और सलामत रहना कौन नहीं चाहता? दुनिया भर के लोगों और देशों ने समर्थों की सेवा करते हुए स्वयं समर्थ बनने का प्रयास करना शुरू कर दिया। लेकिन समर्थों को यह अधिकार भी था कि वे किसे अपनी सेवा में रखें और किसे न रखें, और रखें, तो किस दर्जे का सेवक बनाकर रखें।

इस अधिकार के चलते असमर्थ लोगों में से योग्य सेवक छाँटे गये। भूख और कुपोषण से कमजोर तथा रोगों से जर्जर लोगों को सेवा के अयोग्य पाया गया। समर्थों की संसद में विचार किया गया और तय पाया गया कि अयोग्य लोग किसी काम के नहीं हैं, दुनिया में फैला हुआ कूड़ा हैं, उन्हें बुहारकर फेंक देना चाहिए। हाँ, इस प्रश्न पर कुछ बहस हुई कि उन्हें ‘ह्यूमन वेस्ट’ (मानव कूड़ा) कहा जाये अथवा ‘बायो वेस्ट’ (जैविक कूड़ा)। बहस के बाद तय हुआ कि उन्हें जैविक कूड़ा ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि मानव कूड़े को तो श्मशान में ले जाकर जलाना या कब्रिस्तान में ले जाकर दफ्नाना होगा, और उसमें बेकार का खर्च होगा, जबकि जैविक कूड़ा खुद-ब-खुद सड़-गलकर मिट्टी में मिल जायेगा। उसे निपटाने का खर्च तो बचेगा ही, उससे कंपोस्ट खाद भी बनेगी, जो जमीन को अधिक उपजाऊ बनायेगी।

इस प्रकार चुने गये योग्य सेवकों से कहा गया कि योग्य सेवक बन जाना ही पर्याप्त नहीं है, उन्हें योग्यतम सेवक बनने का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए आपस में होड़ लगाकर सर्वोच्च समर्थ-भक्ति का प्रमाण देना चाहिए। इसके लिए उन्हें हर समय अपना सर्वस्व समर्थों को समर्पित कर देने के लिए, यहाँ तक कि अपने प्राण तक दे देने के लिए, तैयार रहना चाहिए। जिस की समर्थ-भक्ति में तनिक भी कमी पायी गयी, उस पर कड़ी नजर रखी जायेगी। जिस किसी के मन में समर्थों के विरुद्ध कोई विचार पाया गया, हल्की-सी भावना भी पायी गयी, उसे कठोर दंड दिया जायेगा, जो आजीवन कारावास या तत्काल मृत्युदंड भी हो सकता है। ऐसे विचार या भावनाएँ रखने वालों की सूचना देने, उनको पकड़वाने या स्वयं ही घेरकर मार डालने वाले समर्थ-भक्तों को पुरस्कृत किया जायेगा।

असमर्थों को बताया गया कि उनमें से जो लोग सच्ची निष्ठा और भक्ति के साथ समर्थों की सेवा करेंगे, वे ही समर्थों के कृपापात्र बनकर समर्थों में शामिल हो सकेंगे। उन्हें समझाया गया कि जीवन एक दौड़ है, जिसमें उन्हें अपने तमाम प्रतिस्पर्धियों को पीछे छोड़कर आगे निकलना है। इसके लिए दूसरों को टँगड़ी मारकर गिराना भी पड़े, तो जायज है, क्योंकि पिछड़ जाने का अर्थ होगा अशक्त, अक्षम और अयोग्य सिद्ध होकर दौड़ से बाहर हो जाना और जैविक कूड़ा बनकर रह जाना।

समर्थों की यह व्यवस्था इतनी बढ़िया थी कि दूसरों के आगे निकल जाने के लोभ और दूसरों से पिछड़ जाने के भय से असमर्थ लोग जी-जान से समर्थों की सेवा दूसरों से बढ़-चढ़कर करने लगे। वे दिन-रात एक-दूसरे की, यहाँ तक कि अपने घर-परिवार के लोगों तक की जासूसी करने लगे और प्रमाण सहित उन्हें पकड़वाकर पुरस्कार प्राप्त करने लगे। इसके चलते तमाम लोग इतने भयभीत और संत्रस्त रहने लगे कि अपने-आप को भी भूल गये। वे भूल गये कि कल तक इन्हीं समर्थों से लड़ रहे थे। अब समर्थ उन पर चाहे जितना अन्याय और अत्याचार करें, वे उनके विरुद्ध विद्रोह करना तो दूर, विरोध का विचार भी मन में न लाते। वे उनके विरुद्ध धरना, प्रदर्शन, हड़ताल, भूख हड़ताल, आमरण अनशन आदि करना तो दूर, उनसे असहमति व्यक्त करना तक भूल गये थे।

असमर्थों के मन में अपना आतंक जमाये रखने के लिए समर्थों ने प्रत्येक देश में विभिन्न धर्मों के आतंकी संगठन बनवाये, उन्हें खूब हथियार दिये, उनका खूब प्रचार किया और उन्हें खूब बढ़ावा दिया। दूसरी तरफ, यह सोचकर कि ये सशस्त्र आतंकी संगठन किसी दिन समर्थों के ही विरुद्ध न हो जायें, उन्होंने हर देश में पुलिस और फौज के अलावा तरह-तरह के आतंक-विरोधी सशस्त्र बल संगठित किये और उन्हें भी खूब हथियार दिये, उनका भी खूब प्रचार किया और उन्हें भी खूब बढ़ावा दिया। इससे एक तरफ तो पूरी दुनिया में धार्मिक संगठनों की अपनी-अपनी निजी सेनाएँ बनीं और दूसरी तरफ हथियारों की माँग बेतहाशा बढ़ी, जिसकी पूर्ति के लिए हथियारों का उत्पादन और व्यापार अत्यंत तेजी से बढ़ा। इससे असमर्थों में असुरक्षा की भावना बढ़ी। कोई नहीं जानता था कि कौन कब कहाँ और कैसे मार डाला जायेगा। असमर्थ लोग साँस भी लेते, तो डर-डरकर।

इसके साथ ही समर्थों ने सत्य, न्याय, नैतिकता, शांति, अहिंसा, प्रेम, सहयोग, सद्भाव आदि शब्दों के अर्थ अपने हित में बदल दिये और घोषणा कर दी कि जो लोग पुराने मानव-मूल्यों के अर्थ में इन शब्दों का प्रयोग करेंगे, वे मूल्य-अपराधी माने जायेंगे। मूल्य-अपराधियों के लिए उन्होंने विशेष पुलिस थानों और जेलों की व्यवस्था की। उन्हें नवीनतम हथियारों से लैस किया और मूल्य-अपराधियों को क्रूरतम यातनाएँ तथा भीषण दंड देने की व्यवस्थाएँ कीं। फिर भी पता नहीं क्यों और कैसे, मूल्य-अपराध और मूल्य-अपराधी बढ़ते जा रहे थे। शुरू-शुरू में व्यक्ति ही, जैसे स्त्रियाँ और पुरुष ही, मूल्य-अपराधी होते थे। बाद में उनके संगठन भी मूल्य-अपराधी होने लगे। फिर पूरे के पूरे इलाके और यहाँ तक कि पूरे के पूरे देश भी मूल्य-अपराधी होने लगे। मसलन, प्रेम करने वाली लड़कियाँ और लड़के मूल्य-अपराधी। अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले संगठन मूल्य-अपराधी। स्वायत्तता की माँग करने वाले इलाके मूल्य-अपराधी। स्वतंत्रता की माँग करने वाले देश मूल्य-अपराधी। आतंक और युद्ध के विरुद्ध शांति की माँग करने वाले सभी लोग और देश मूल्य-अपराधी।

समर्थों की सेवा से मुक्त होकर आत्मनिर्भर होकर जीना चाहने वाले लोग और देश तो सबसे बड़े मूल्य-अपराधी माने जाने लगे। उन्हें दंड देने के लिए स्थानीय स्तर पर पुलिस और कई दूसरे सशस्त्र बलों की व्यवस्था थी, जबकि भूमंडलीय स्तर पर समर्थों की भूमंडलीय सेनाएँ हमेशा तैयार रहतीं और इशारा पाते ही जल, थल और वायु मार्गों से जाकर उन पर टूट पड़तीं। गोली-गोलों से लेकर अत्यंत विनाशकारी बमों तक का इस्तेमाल करके वे अपराधी देशों को धूल में मिला देतीं। जो देश धूल में मिलाये जाते, उन देशों के खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, कल-कारखाने, स्कूल-कॉलेज, पुस्तकालय और संग्रहालय आदि सब धूल में मिला दिये जाते। उनके साथ-साथ करोड़ों लोग और उनके अरबों-खरबों सपने भी धूल में मिला दिये जाते।

मेरा असमर्थ देश भी इसी तरह धूल में मिलाया गया था। मेरे देश के करोड़ों लोग मारे गये थे। करोड़ों लोग लापता हो गये थे। उनमें मेरे माता-पिता, भाई-बहन, सगे-संबंधी, मित्र-परिचित तथा बचपन में मेरे साथ पढ़ने और खेलने वाले मेरे सहपाठी भी थे। मैं बच गयी थी, क्योंकि मैं एक समर्थ देश में रहकर पढ़ रही थी।

बाद में मुझे पता चला कि धूल में मिलाये जा चुके मेरे देश के कुछ लोग बच गये थे, मगर बड़ी मुश्किल से बचे थे। उनका बाकी सब तो नष्ट हो चुका था, बस उनकी और उनके कुछ लोगों की जान बाकी थी, जिसे बचाने के लिए वे भागे थे। गोलियों और गोलों से, छोटे और बड़े बमों से, बचते-बचाते जब वे भाग रहे होते, तभी किसी के पिता की, किसी की माँ की, किसी के भाई की, किसी की बेटी या बेटे की जान चली जाती। अपने मृतकों को वहीं पड़ा छोड़ भागते-भागते–समुद्री, पहाड़ी और रेगिस्तानी रास्तों से भागते-भागते–वे कहीं समुद्रों में जल-समाधि ले लेते, कहीं बर्फ की कब्रें बनाकर उनमें दफ्न हो जाते, तो कहीं अपने ऊपर रेत के पिरामिड बनाकर उनके नीचे अदृश्य हो जाते। और इतनी मुसीबतें उठाने के बाद जब वे हजारों-लाखों की संख्या में समर्थ देशों में शरण लेने पहुँचते, तो उन देशों की सीमाओं पर खड़ी फौजें उन्हें रोक देतीं। वे कँटीले तारों की बाड़ तोड़कर जबर्दस्ती घुसने की कोशिश करते, तो फौजें उनका सामूहिक संहार कर डालतीं।

सौभाग्य से जिन्हें समर्थ देशों में शरण मिल जाती, उन्हें कई कठिन अग्नि-परीक्षाओं से गुजरना पड़ता। पहले उन्हें ठोक-बजाकर देखा जाता कि उनमें कौन सशक्त है, कौन अशक्त। अशक्तों को शरण न दी जाती और जैविक कूड़ा मानकर खुद-ब-खुद मरने के लिए छोड़ दिया जाता। सशक्तों में देखा जाता कि कोई मूल्य-अपराधी तो नहीं है। जिसमें सत्य, न्याय, नैतिकता आदि के मूल अर्थों वाले कीटाणु पाये जाते, उसे तुरंत मृत्युदंड देकर खत्म कर दिया जाता। इसके बाद जो बच जाते, उन्हें भी संदिग्ध माना जाता और उन पर कड़ी नजर रखी जाती। उन्हें ढेर सारी शर्तों के साथ और अत्यंत सख्त निगरानी में समर्थों की सेवा में लगाया जाता।

मैं धूल में मिलाये जा चुके अपने देश लौटकर क्या करती? मैंने मान लिया, या कल्पना कर ली, कि मैं वहाँ से अपनी जान बचाकर भागी हूँ और जहाँ पढ़ रही हूँ, वहाँ मैंने शरण ले रखी है। मैंने पढ़ाई पूरी करके नौकरी कर ली और पत्रकार बनकर देश-देश घूमने लगी।

समर्थ संवत् सोलह तक ऐसा लगता था, जैसे पूरी दुनिया पर समर्थों का शासन सदा के लिए कायम हो गया है और दुनिया की कोई ताकत उसे हिला नहीं सकती। लेकिन अगले साल ही उसकी नींव हिल गयी। समर्थ संवत् सत्रह में दुनिया के हर देश में एक अजीब-सा परिवर्तन होने लगा।

असमर्थों में दो तरह के लोग थे–सामान्य असमर्थ और विशिष्ट असमर्थ। सामान्य असमर्थ पुराने जमाने के अकुशल श्रमिकों जैसे थे, जबकि विशिष्ट असमर्थ कुशल श्रमिकों तथा अपने-अपने कार्यक्षेत्र के विशेषज्ञों जैसे। उन्हें असमर्थों में समर्थ कहा जाता था और यह माना जाता था कि देर-सबेर वे भी समर्थ बन जायेंगे और अखिल भूमंडल पर शासन करने वाली विश्व संसद के सदस्य बन जायेंगे। मगर उन्होंने पाया कि वे एक तरफ तो समर्थ बन जाने के लोभ में समर्थों की सेवा में दिन-रात एक किये रहते हैं और दूसरी तरफ उन्हें असमर्थ हो जाने का या कूड़ा ही बनकर रह जाने का डर सताता रहता है। इस विकट स्थिति से उत्पन्न उनका तनाव इतना बढ़ जाता कि वे एक दिन पागल हो जाते और हँसने लगते–हा-हा-हा!

वे प्रायः सामूहिक रूप से हँसते थे। मसलन, उनमें से कोई कहता, ‘‘सत्य।’’ और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई कहता, ‘‘न्याय।’’ और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई कहता, ‘‘नैतिकता।’’ और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई कहता, ‘‘आजादी।’’ और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई कहता, ‘‘बराबरी।’’ और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ वे कहते कुछ नहीं थे, बस हँसते और हँसते ही चले जाते, ‘‘हा-हा-हा!’’ स्पष्ट था कि वे मूल्य-अपराधी हैं, लेकिन उन्हें मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था, क्योंकि वे समर्थों के काम के लोग थे। डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षक, प्रशिक्षक, उद्योगों-व्यापारों के व्यवस्थापक आदि। उनके बिना समर्थों का काम नहीं चल सकता था, इसलिए उन्हें मारा नहीं जाना था, उनके पागलपन का इलाज ही किया जाना था।

समर्थों ने पागलों के इलाज के लिए पागलखाने बना रखे थे। कोई पागल नजर आता, तो सरकारी कर्मचारी आते और उसे पकड़कर पागलखाने में ले जाते। शुरू-शुरू में समर्थों ने उस पागलपन को मामूली बीमारी समझा था, लेकिन वह पागलपन धीरे-धीरे छूत के रोग की तरह बढ़ने लगा और फिर महामारी की तरह तेजी से फैलने लगा। कोई सोच भी नहीं सकता था कि अचानक दुनिया में एक साथ इतने पागल पैदा हो जायेंगे। ऐसा लगता था, मानो जिसे वे बहुत देर से समझ नहीं पा रहे थे, वह जोक, मजाक या चुटकुला अचानक उनकी समझ में आ गया हो और उसे इतनी देर से समझ पाने पर वे उस पर कम और अपने-आप पर ज्यादा हँस रहे हों। पहले वे धीरे से हँसते–हा-हा-हा! फिर जोर से–हा-हा-हा! फिर और जोर से–हा-हा-हा!

जरा सोचिए, दुनिया के हर हिस्से में हजारों-लाखों-करोड़ों लोग अचानक जोर-जोर से, पूरा गला फाड़कर हँसने लगे होंगे, तो दुनिया का क्या हाल हुआ होगा!

हुआ यह कि समर्थों की नींद उड़ गयी। वे अपनी सरकारों के भरोसे चैन से सोते थे। जागकर उन्होंने सरकारों से पूछा, ‘‘यह क्या हो रहा है?’’ लेकिन सरकारों की अपनी ही नींद उड़ी हुई थी। वे पुलिस-थानों, अदालतों, जेलों, पागलखानों आदि की व्यवस्थाओं के भरोसे चैन से सोती थीं। अब वे जागकर उन व्यवस्थाओं से पूछ रही थीं, ‘‘यह क्या हो रहा है?’’ व्यवस्थाएँ भी, जो प्रायः सोती रहती थीं, अब जाग उठी थीं और सारी दुनिया की एक-एक हलचल से निरंतर अवगत कराते रहने वाले भूमंडलीय खुफिया तंत्र से पूछ रही थीं, ‘‘यह क्या हो रहा है?’’ और खुफिया तंत्र के लोग नवीनतम तकनीकों से प्राप्त फुटेज खँगालते हुए तीव्रतम गति वाले कंप्यूटर खटखटाकर एक-दूसरे से पूछ रहे थे, ‘‘यह क्या हो रहा है?’’

समर्थों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था और पागलों की संख्या और उनकी हँसी का शोर पल-प्रतिपल बढ़ता जा रहा था। असमर्थ लोग भी चैन से नहीं सो पा रहे थे। वे लगातार बनी रहने वाली बेचैनी में दुःस्वप्न देखते हुए सोते थे। अब उनकी दुःस्वप्नों वाली नींद भी हराम हो गयी और वे अपने घरों से निकलकर सड़कों पर आ गये। देखते-देखते उनमें से भी कई पागल होने लगे और उनमें भी पागलों की संख्या बढ़ने लगी।

समर्थों ने अपनी विश्व संसद की आपातकालीन बैठक बुलायी और उसमें तय किया कि दिन-दूने और रात-चैगुने बढ़ते पागलों का इलाज संभव नहीं है, अतः उन्हें नियंत्रित करने के लिए त्वरित कार्रवाई की जाये।

पहली कार्रवाई हर देश में पुलिस की तरफ से हुई। उसने बड़े पैमाने पर धावा बोलकर पागलों को गिरफ्तार किया, लेकिन पहली बार यह देखा कि पागल न तो डरे, न गिरफ्तार होने से बचने के लिए भागे। वे हँसते-हँसते, ठहाके लगाते हुए, ठाठ से गिरफ्तार हुए। यह देखकर पुलिस घबरा गयी। उसे पता था कि पागलखानों में पहले ही जरूरत से ज्यादा पागल भरे हुए हैं। नये पागलखाने तत्काल बनवाना संभव नहीं है और तब तक इतने सारे पागलों को कहीं और रखना भी संभव नहीं है। उसने सोचा, गिरफ्तार पागल उसकी गिरफ्त से छूटकर भागने की कोशिश करेंगे, तो वह उन्हें भाग जाने देगी। किसी-किसी देश में तो पुलिस पागलों से प्रार्थना भी करती पायी गयी कि वे भाग जायें। लेकिन पुलिस की इस प्रार्थना पर पागल इतने जोर से हँसे कि वह डर गयी। उसने अपने-अपने देशों की सरकारों से पूछा, ‘‘पागल काबू में नहीं आ रहे हैं। क्या किया जाये?’’ सरकारों ने समर्थों की विश्व संसद से पूछा, ‘‘पागल काबू में नहीं आ रहे हैं। क्या किया जाये?’’

समर्थों की विश्व संसद ने समस्त सरकारों को और सरकारों ने अपने-अपने देश की पुलिस को आदेश दिया, ‘‘पागलों को दूर जंगल में ले जाकर छोड़ आओ।’’ पुलिस ने आदेश का पालन किया। लेकिन पागलों को जंगलों में छोड़कर हर जगह की पुलिस अपनी गाड़ियों में वापस आयी, तो उसने देखा कि पहले से भी ज्यादा पागल हाथ उठाकर हँसते हुए उसका स्वागत कर रहे हैं। पुलिस हैरान रह गयी। इतनी दूर जंगल में छोड़े हुए पागल पैदल उससे पहले वापस कैसे पहुँचे? सरकारों को बताया गया, तो उन्होंने कोई और उपाय न देख आदेश दिया, ‘‘पागलों को फिर से गाड़ियों में भरकर फिर से दूर जंगल में छोड़कर आओ।’’ पुलिस ने पुनः आदेश का पालन किया। लेकिन घोर आश्चर्य! जंगलों में पहले छोड़े गये पागल वहाँ पहले से ही हाथ उठाकर अट्टहास करते हुए नये पागलों के स्वागत में खड़े थे!

यह चमत्कार कैसे हुआ? न पुलिस की समझ में आया, न सरकारों की समझ में।

दरअसल किसी की भी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। दुनिया के हर शहर, हर गाँव में जोर-जोर से हँसने वाले नये-नये पागल पैदा हो रहे थे और न जाने कब से वीरान-सुनसान पड़े जंगल उनसे आबाद हो रहे थे। वे वहाँ अपनी बस्तियाँ बसा रहे थे और खेती, बागवानी, पशु पालन जैसे काम करते हुए अपनी नयी जिंदगी शुरू कर रहे थे। दुनिया की सरकारों को लगा कि यह तो भारी गड़बड़ है। इस तरह गाँव-गाँव और शहर-शहर असमर्थ लोग पागल होते रहे और जंगलों में जाकर अपनी अलग दुनिया बसाकर अपने ढंग से जीने लगे, तो समर्थों की व्यवस्था का क्या होगा? उनके खेतों और कारखानों में काम कौन करेगा? उनके उद्योग और व्यापार कौन चलायेगा? उनके लिए भोजन-वस्त्र कौन जुटायेगा? उनकी सुरक्षा के लिए पुलिस और फौज में भर्ती होने कौन आयेगा? उनके दफ्तर, स्कूल, काॅलेज, अस्पताल वगैरह कौन चलायेगा?

पागलों की बढ़ती संख्या से सबसे पहले पुलिस प्रभावित हुई। समर्थों के शासन में पुलिस वालों को वेतन बहुत कम दिया जाता था, लेकिन असमर्थों को डरा-धमकाकर लूटने की पूरी छूट दी जाती थी। इसलिए पुलिस की नौकरी में ‘ऊपर की कमाई’ असली कमाई मानी जाती थी। मगर ऊपर की कमाई का कम-ज्यादा होना इस बात पर निर्भर करता था कि असमर्थ पुलिस से कम डरते हैं या ज्यादा। ज्यादा कमाई के लिए पुलिस असमर्थों को ज्यादा से ज्यादा डराकर रखती थी। वह पागलों को भी डराना चाहती थी, मगर पागल थे कि पुलिस से डरते ही नहीं थे। वह उन्हें आधी रात उनके घरों से उठाकर ले जाये, थानों में ले जाकर उनकी पिटाई करे, हवालात में उन्हें थर्ड डिग्री की यातनाएँ दे, या उनका एनकाउंटर ही क्यों न कर दे, पागल उससे डरते ही नहीं थे। पुलिस द्वारा दी जाने वाली हर धमकी, हर गाली, हर लाठी, हर गोली का जवाब वे गलाफाड़ हँसी से देते।

पागलों के इस रवैये से पुलिस की ऊपर की कमाई बहुत घट गयी। उसी अनुपात में पागलों को पकड़-धकड़कर जंगलों में छोड़ आने के काम में उसकी रुचि भी घट गयी। होते-होते यह होने लगा कि सरकारें जब पुलिस को पागलों से निपटने के आदेश देतीं, तो पुलिस उनसे निपटने की झूठी रिपोर्टें सरकारों को देकर अपना कर्तव्य पूरा हुआ मान लेती। नतीजा यह हुआ कि पुलिस नाकारा हो गयी और सभी देशों की सभी सरकारों के प्रशासन ठप्प हो गये। पुलिस थाने बेकार हुए, तो अदालतें और जेलें भी बेकार हो गयीं। यह पूरा तंत्र इतना बड़ा था कि उसके बेकार हो जाने से कई काम एक साथ हुए। एक तरफ सरकारें, जो इसी तंत्र के बल पर टिकी थीं और इसी से लोगों को आतंकित रखकर उन पर शासन करती थीं, अचानक बेहद कमजोर हो गयीं। दूसरी तरफ हर देश में पुलिस के अफसर और सिपाही, अदालतों के जज और वकील, जेलों के जेलर और जल्लाद एक साथ बेकार हो गये। करोड़ों-करोड़ लोग बेरोजगार हो गये।

अब इतने सारे बेरोजगार लोग करें तो क्या करें? जायें तो कहाँ जायें? कोई और उपाय न देख वे पागलों के पास गये और उनसे पूछा, ‘‘हम कहाँ जायें और क्या करें?’’

पागलों ने हँसकर उनसे कहा, ‘‘सत्ता के आसमान में बहुत उड़ लिये, अब श्रम की जमीन से जुड़ो। मेहनत करो और खुद कमाओ-खाओ।’’

‘‘कैसे?’’

‘‘जहाँ भी खाली जमीन मिले, वहाँ खेती और बागवानी करके अन्न और फल पैदा करो। गाय, भैंस, भेड़, बकरी, मुर्गी, मछली आदि पालकर दूध, मांस आदि पैदा करो। बेचने के लिए नहीं, खुद खाने और दूसरों को खिलाने के लिए। खुद जीने के लिए और दूसरों को जिलाने के लिए।’’

मरता क्या न करता! थानों, अदालतों और जेलों से मुक्त हुए लोगों ने जगह-जगह छोटी-छोटी देहाती बस्तियाँ बसायीं और आत्मनिर्भर होकर जीना शुरू कर दिया। प्रशासन और न्याय व्यवस्था द्वारा बड़े पैमाने पर किये जाने वाले काम उनकी पंचायतें छोटे पैमाने पर करने लगीं। अपराध एकदम कम या खत्म ही हो गये थे। अदालतों और जेलों की जरूरत ही नहीं रही थी, छोटे-मोटे झगड़े पंचायतों में ही निपटा लिये जाते।

तब सरकारों ने पागलों से निपटने का काम फौजों को सौंपा। समर्थ-असमर्थ हर देश के पास अपनी फौज थी। फौजें अपने-अपने देश की सीमाओं की सुरक्षा करती थीं, दूसरे देशों के हमलों को रोकती थीं और कभी-कभी खुद भी दूसरे देशों पर हमले करती थीं। ज्यों ही पता चलता, किसी असमर्थ देश में अशांति है, समर्थ देशों की फौजें शांति स्थापित करने पहुँच जातीं और वहाँ मरघट की-सी शांति स्थापित कर देतीं। ज्यों ही पता चलता, किसी असमर्थ देश में जनतंत्र खतरे में है, वे जनतंत्र की रक्षा करने पहुँच जातीं और वहाँ निहायत सख्त और मजबूत तानाशाही वाला जनतंत्र स्थापित कर देतीं। ज्यों ही पता चलता, कोई असमर्थ देश समर्थों की सेवा से मुक्त होकर स्वतंत्र और स्वायत्त होना चाहता है, समर्थों की फौजें उसे समर्थ-भक्ति का पाठ पढ़ाने पहुँच जातीं और वहाँ की सरकार को डरा-धमकाकर, या खुले बाजार में खरीदकर, उसकी जगह समर्थों के लिए काम करने वाली कोई कमजोर-सी कठपुतली सरकार बनाकर बिठा देतीं।

लेकिन पागलों से निपटने का मामला बड़ा टेढ़ा था। वे न तो आजादी या अपने लिए अलग राज्य जैसी कोई माँग करते, न ऐसी किसी माँग के लिए अहिंसक आंदोलन या हिंसक विद्रोह करते। वे बस इतना करते कि समर्थों की सेवा करना छोड़ हँसने लगते। वे सिर्फ हँसते थे और समर्थों का बताया हुआ कोई काम नहीं करते थे। उन्होंने खेतों और कारखानों, दुकानों और दफ्तरों, स्कूलों और अस्पतालों आदि में काम करने जाना बंद कर दिया था। उनसे काम करने को कहा जाता, तो वे हँसने लगते। भूखों मर जाने का डर दिखाया जाता, तो हँसने लगते। जेलों और पागलखानों में भेजे जाने का डर दिखाया जाता, तो हँसने लगते। उन्हें दूर जंगलों में छुड़वा दिया जाता, तो भी वे हँसते और हँसते ही रहते।

आखिरकार समर्थों की विश्व संसद में एक प्रस्ताव पास हुआ कि पागलों को मौत से डराया जाये, क्योंकि मौत से बड़ा डर कोई नहीं होता। प्रस्ताव के अनुसार समर्थ और असमर्थ, सब देशों की सरकारों ने अपनी फौजों को आदेश दिया कि वे जाकर अपने-अपने देश के पागलों को मौत से डरायें। गाँव-गाँव, शहर-शहर, मुहल्ले-मुहल्ले और गली-गली में जायें, इक्के-दुक्के पागलों को गोली से उड़ा दें और उनकी लाशें पेड़ों या खंभों पर लटका दें, ताकि दूसरे पागल डरें और पागलपन छोड़कर काम पर लौटें। अगर कहीं एक से अधिक पागल मिलें, तो उनमें से कुछ को गोली चलाकर खत्म कर दें। अगर पागलों की भीड़ें मिलें, तो जरूरत के मुताबिक उन पर छोटे बम डालकर उनमें से कुछ को मार डालें। पागलों को हर हाल में डराकर उनका हँसना बंद कराना है और उन्हें काबू में लाकर काम पर लगाना है।

आदेश पाकर सभी देशों की फौजें अपने-अपने देश के पागलों को पागलपन छोड़कर काम पर लौटने के लिए तैयार करने निकल पड़ीं। मगर पागल इतने ज्यादा पागल हो चुके थे कि उन्हें मरने से डर ही नहीं लगता था। गोली लगने पर वे चीखते नहीं थे, गला फाड़कर हँसते थे–हा-हा-हा! गोले बरसाये जाने पर वे भागते नहीं थे, तोपों के सामने निहत्थे खड़े रहकर हँसते थे–हा-हा-हा! ऊपर से बम बरसाये जाने पर जब उनकी लाशों के चिथड़े उड़ने लगते, तब भी उनके सामूहिक ठहाके सुनायी पड़ते–हा-हा-हा! उन ठहाकों का ऐसा गगनभेदी शोर उठता कि फौजियों के दिल दहल जाते। जंगलों में छोड़े गये पागलों पर जब गोली-गोले बरसाये जाते, तब तो पागलों की हँसी में जंगल के पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और नदी-नालों की आवाजें भी शामिल होकर उसे ऐसे विकट हास्य की भयंकर गड़गड़ाहट में बदल देतीं कि हथियारों के बल पर स्वयं को परम शक्तिशाली समझने वाले फौजी डरकर भाग खड़े होते।

एक बार मैं पागलों की रिपोर्टिंग के लिए एक जंगल में गयी, तो मैंने देखा कि जंगल में छोड़ दिये गये हजारों पागल जिंदा रहने की जुगत में लगे हैं। कोई जमीन खोद रहा है, कोई पेड़ पर चढ़कर फल तोड़ रहा है, कोई आग जला रहा है, तो कोई उस पर कुछ भून रहा है। फौजियों को आते देख वे इकट्ठे होकर सामने आये और हँसकर बोले, ‘‘मारोगे? मारो!’’ और हँसने लगे, ‘‘हा-हा-हा!’’

फौजी हैरान होकर देखते रह गये कि सामने मौत देखकर भी ये लोग हँस रहे हैं। उन्होंने ऐसे लोग पहले कभी नहीं देखे थे, जो मारे जाने से डरते न हों, बल्कि हँसते हों। फौजियों को लगा, यह तो लड़ाई नहीं, निर्दोष निहत्थे लोगों की हत्या है। सामूहिक हत्या। जनसंहार।

फौजी भी आखिर थे तो मनुष्य ही। उन्होंने हथियार फेंक दिये और घुटनों के बल बैठकर, हाथों में चेहरे छिपाकर, फूट-फूटकर रोने लगे। उन्हें रोते देख पागल आगे बढ़े, उनके पास पहुँचे, उनके गले मिले और वे भी रोने लगे।

फौजियों ने रोते-रोते कहा, ‘‘हम कितने पागल थे, जो तुम को पागल समझते थे! असली पागल तो हम हैं, जो मरने और मारने की वह नौकरी करते हैं, जिसने हमें इंसान से हैवान और शैतान बना दिया है!’’

‘‘तो समझ लो कि आज से तुम्हारी मरने और मारने वाली नौकरी खत्म, जीने और जिलाने वाली जिंदगी शुरू! तुम्हें इंसान से हैवान और शैतान बनाने वाले हैं ये हथियार। इनको दुनिया से विदा करो।’’

‘‘मगर कैसे?’’

‘‘यह तुम खुद सोचो। लेकिन यह समझ लो कि जब तक हथियारों का बनना और बिकना बंद नहीं होगा, लोग डरते रहेंगे और पागल भी होते रहेंगे।’’

फौजियों ने पागलों को गौर से देखा, फिर आपस में एक-दूसरे को देखा, मुस्कराये और पागलों से बोले, ‘‘हम समझ गये।’’

‘‘तो आज की रात तुम हमारे मेहमान रहो। मिलकर जंगल में मंगल करते हैं।’’

और उस रात जंगल में जो जश्न पागलों और फौजियों ने मिलकर मनाया, उसमें उन्होंने मुझे भी शामिल किया। ऐसा जश्न मैंने पहले कभी नहीं देखा था।

अगले दिन मैंने इस घटना की विस्तृत रिपोर्टिंग की और वह सभूस (समर्थों की भूमंडलीय समाचारसेवा) के जरिये एक बड़ी खबर बनकर सारी दुनिया में प्रकाशित और प्रसारित हुई। इस खबर से समर्थों की हालत खराब हो गयी। उन्होंने झटपट समर्थों की विश्व संसद की एक आपातकालीन बैठक बुलायी और उसमें आनन-फानन यह फैसला किया कि पागलों को खत्म करने के लिए भेजी गयी फौजें वापस बुला ली जायें और पागलों के प्रतिनिधियों को बातचीत के लिए बुलाया जाये।

फैसले के मुताबिक तुरंत सारी दुनिया के पागलों को अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजने के संदेश और फौजियों को अपने ठिकानों पर वापस लौटने के आदेश भेजे गये। लेकिन पागलों तक यह संदेश और फौजियों तक यह आदेश पहुँचा, तो पागल और फौजी दोनों एक साथ हँसे। दोनों की सम्मिलित हँसी दुनिया भर में ऐसी गूँजी कि जैसे दुनिया भर के पूरे आसमान में छाये घने बादल गड़गड़ा उठे हों। उस गड़गड़ाहट में बिजली-से चमकते और तड़तड़ाते कुछ समवेत शब्द भी थे :

‘‘मरेंगे और मारेंगे नहीं, जियेंगे और जिलायेंगे।’’
 ‘‘डरेंगे और डरायेंगे नहीं, हँसेंगे और हँसायेंगे।’’

अब, यह उस सम्मिलित हँसी का असर रहा हो या उन समवेत शब्दों का, दुनिया भर में तमाम असमर्थ हँसने लगे। जो असमर्थ पागल और फौजी नहीं थे, वे भी हँसने लगे। और उसी विश्वव्यापी समवेत हँसी के बीच वह घटना घटी, जो दुनिया में न तो पहले कभी घटी थी और न आगे कभी घटेगी।

फौजियों ने अपने भूमंडलीय संचार-तंत्र के जरिये न जाने कैसे सारी दुनिया की सारी फौजों के बीच एक सहमति बनायी और एक दिन प्रत्येक देश की फौज ने अपने देश के हथियार-कारखानों और आयुध-भंडारों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने अपने पास के तथा आयुध-भंडारों में भरे सब छोटे-बड़े अस्त्रों-शस्त्रों और परम विनाशकारी बमों के साथ-साथ उन्हें बनाने वाली मशीनों को भी ले जाकर गहरे महासागरों में डुबो दिया। हथियार बनाने के कारखानों की जगहों पर उन्होंने सस्ते खाद्य पदार्थों, पोषक आहारों, औषधियों और चिकित्सा संबंधी उपकरण आदि बनाने के कारखाने खुलवा दिये।

दुनिया भर के हथियारों के कारखाने बंद हो गये, तो हथियारों का भूमंडलीय बाजार और व्यापार भी खत्म हो गया। पुलिस, दूसरे सशस्त्र बलों और आतंकी संगठनों के पास जो हथियार थे, वे भी कुछ दिन बाद गोला-बारूद न मिलने से बेकार हो गये। इस प्रकार दुनिया भर के लोग हथियारों द्वारा पैदा किये जाने वाले भय और आतंक से मुक्त हो गये। इसके साथ ही भय और आतंक के सहारे अनंत काल तक अखिल भूमंडल पर शासन करने के लिए समर्थों द्वारा बनायी गयी संस्थाएँ और व्यवस्थाएँ भी बेकार हो गयीं। समर्थों की वह विश्व-संसद, जिसने हजारों साल आगे की सोचकर अपना नया संवत् चलाया था, वह भी नहीं रही।

मेरा और दूसरे बहुत-से लोगों का खयाल था कि अब पागल लोग समर्थों की बनायी विश्व संसद पर कब्जा करेंगे और उसमें बैठकर समर्थों की भाँति ही अखिल भूमंडल पर शासन करेंगे। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। किया सिर्फ यह कि विश्व संसद की इमारत को ऐतिहासिक वस्तुओं का संग्रहालय बनाकर उसे हमेशा के लिए ‘इतिहास की वस्तु’ बना दिया।

हथियारों के कारखाने नष्ट हो जाने के बाद फौजों का भी कोई काम नहीं रहा। सो फौजियों ने यह किया कि जिन सीमाओं की सुरक्षा वे किया करते थे, उन्होंने हँसते-हँसते मिटा दीं और यह काम सीमाओं के इस पार और उस पार के फौजियों ने, जो पहले एक-दूसरे के दुश्मन हुआ करते थे, दोस्त बनकर साथ-साथ किया। सीमाएँ मिटा देने के बाद फौजियों ने अपनी वर्दियाँ उतारकर सादा कपड़े पहने, वर्दियों के ढेर लगाये, उनकी होलियाँ जलायीं और एक-दूसरे के गले मिले। देशों और दिलों को बाँटने वाली सीमाओं से दुनिया को मुक्त करने की खुशी में वे पागलों की तरह हँसे। उन्होंने जमकर जाम छलकाये, मुक्ति के गीत गाये, जी भरकर नाचे और एक-दूसरे से विदा लेकर पागलों के पास यह पूछने गये कि अब वे क्या करें। पागलों ने उनसे कहा, ‘‘तुमने मरने और मारने का काम छोड़कर जीने और जिलाने का काम करने की कसम खायी थी। अब उस काम को कर दिखाने का समय आ गया है। लोगों के बीच जाओ और भूख, कुपोषण, बीमारी और बेरोजगारी के कारण मर रहे उन मनुष्यों को जिलाओ, जो समर्थों की विश्व व्यवस्था द्वारा मानव कूड़ा और जैविक कूड़ा बना दिये गये हैं। इसके लिए उत्पादन और वितरण की एक नयी व्यवस्था बनाओ, जिसका मूल मंत्र हो–अपना उत्पादन और अपना उपभोग। बड़े-बड़े शहरों में केंद्रित बड़े-बड़े उद्योगों की बड़ी-बड़ी मशीनों वाली उत्पादन प्रणाली को बदलकर छोटी-छोटी ग्रामीण बस्तियों में विकेंद्रित छोटे-छोटे उद्योगों और हाथ से या हवा, पानी, धूप, भाप और पशुओं की शक्ति से चलने वाली छोटी-छोटी मशीनों वाली उत्पादन प्रणाली शुरू करो।’’

भूतपूर्व फौजियों में एक नयी जिंदगी शुरू करने और एक नयी व्यवस्था बनाने का उत्साह पैदा हुआ, तो वे मुक्त मन, स्वस्थ तन और सुंदर भावनाओं और योजनाओं के साथ दुनिया भर में फैल गये। उन्होंने सबसे पहले उन ऊँची इमारतों, बड़े कारखानों, बड़े बाजारों, मॉलों, मनोरंजन केंद्रों आदि को बंद किया, जिनमें नाहक ही ऊर्जा की भारी फिजूलखर्ची होती थी। उनमें लगने वाली ऊर्जा को उन्होंने ग्रामीण बस्तियों की ओर मोड़ा, जहाँ खेती-बाड़ी और उससे जुड़े छोटे-छोटे उद्योगों के लिए तथा घरों, स्कूलों, अस्पतालों आदि के लिए उसकी जरूरत थी। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी छूमंतर हो गयी और वहाँ रोजगार इतने बढ़ गये कि शहरों के बेरोजगार वहाँ जाकर अपना उत्पादन और अपना उपभोग करने लगे। मनुष्यों को कूड़ा बनाने वाली व्यवस्था को अतीत की वस्तु बनाकर वे मनुष्यता का भविष्य बनाने लगे।

पहले के लोग गाँवों से शहरों की ओर भागते थे, अब उलटा होने लगा। शहर खाली होने लगे। ऊँची-ऊँची इमारतें बेकार हो गयीं। बड़े-बड़े कारखाने या तो बंद हो गये, या बेहद जरूरी चीजों का उत्पादन करने लगे। बाजारों में विज्ञापन के बल पर गैर-जरूरी चीजों का बिकना बंद हो गया। दुनिया की पूरी व्यवस्था ही बदलती नजर आने लगी।

अब कुछ और तरह के पागलों ने एक चमत्कार किया। एक दिन दुनिया भर के अर्थशास्त्री, वित्त विशेषज्ञ, मुद्रा विशेषज्ञ, बैंकिंग विशेषज्ञ, सट्टा बाजार विशेषज्ञ और दुनिया भर की वित्त व्यवस्था से जुड़े कंप्यूटरों के विशेषज्ञ मिले, जो अपने-अपने काम करते हुए ही किसी दिन हँस पड़े थे और पागल हो गये थे। उन्होंने एक-दूसरे से कहा, ‘‘मनुष्यों को पागल बनाने वाली दो चीजें हैं–भय और लालच। फौजी पागलों ने दुनिया को भय से मुक्त कर दिया है, अब लालच से मुक्त करने की बारी हमारी है। भय से मुक्ति के लिए उन्होंने हथियारों को दफ्नाया और सीमाओं को मिटाया, लालच से मुक्ति के लिए हम दुनिया से धन का सफाया करेंगे।’’

‘‘कैसे?’’

इस प्रश्न पर उनके बीच लंबी बहस हुई और एक योजना बनी, जिसके अनुसार एक दिन बैंकों और दूसरे वित्तीय संस्थानों की भूमंडलीय संचार-व्यवस्था एकदम ठप्प हो गयी। दुनिया भर के बैंकों और दूसरे वित्तीय संस्थानों के कंप्यूटर खराब हो गये। उनमें पल-पल में अरबों-खरबों का जो धन दुनिया में इधर से उधर होता रहता था, उसका आना-जाना बंद हो गया। दुनिया भर के बैंक अकाउंट बंद हो गये। बैंकों में जितने भी खाते थे, उन सब में जमा राशियाँ शून्य हो गयीं।

इससे दुनिया में ऐसी खलबली मची, जैसी हथियारों के दफ्नाये जाने और सीमाओं के मिटाये जाने के समय भी नहीं मची थी। कल तक जो धनी और महाधनी थे, रातोंरात धनहीन हो गये। जिन लोगों के घरों, दुकानों और दफ्तरों में लाखों-करोड़ों की नकदी रखी हुई थी, वह सब बेकार हो गयी। सट्टा बाजार सहित सारा बाजार और व्यापार ठप्प हो गया। सिक्के धातुओं के और नोट कागजों के बेकार टुकड़े होकर रह गये।

पहले लोग हँसते-हँसते पागल हुए थे, इस बार बहुत-से लोग रोते-रोते पागल हुए।

अगला कदम कुछ और पागलों ने उठाया। दुनिया के हर देश में लोगों की आबादी, जनसंख्या के घनत्व और नगर-नियोजन आदि का हिसाब रखने से संबंधित विभागों में काम करने वाले जो विशेषज्ञ हँसते-हँसते पागल हुए थे, उन्होंने मिलकर हिसाब लगाया कि दुनिया में कहाँ आबादी बहुत कम है और कहाँ बहुत ज्यादा। हालाँकि दुनिया से धन का सफाया हो जाने के बाद धनी-निर्धन जैसे भेद खत्म हो गये थे, फिर भी कहीं अधिकांश लोग अब भी बेघर थे और कहीं बहुत थोड़े लोग अब भी बहुत बड़ी-बड़ी जगहों में रहते थे। कहीं लोगों के पास खाने-पहनने की चीजों के भंडार भरे हुए थे और कहीं बहुत-से लोग भूखे-नंगे घूम रहे थे। पागलों ने घनी आबादी वाले इलाकों के बेघर, बेरोजगार और भूखे-नंगे लोगों से कहा, ‘‘यह पृथ्वी उन थोड़े-से लोगों की बपौती नहीं है, जो इस पर इतनी बड़ी-बड़ी जगहें घेरकर बैठे हुए हैं। यह पृथ्वी सबकी है और इस पर सबको आराम से रहने-बसने का हक है। जाओ, जहाँ बहुत ज्यादा जगह में थोड़े-से लोग रहते हों, वहाँ जाकर रहो और जो लोग जरूरत से ज्यादा खाते-पहनते हों, उनके साथ मिल-बाँटकर खाओ-पहनो।’’

भय और आतंक तो अब दुनिया में रह ही नहीं गया था, सीमाएँ मिट जाने से अब लोग वीजा और पासपोर्ट के बिना दुनिया में कहीं भी आ-जा सकते थे। समर्थों की विश्व व्यवस्था में लोग दूसरे देशों में नौकरी करने या शरण लेने के लिए दीन-हीन होकर जाया करते थे। अब वे अधिकारपूर्वक रहने-बसने के लिए जाने लगे। इससे बहुत बड़ी-बड़ी जगहों में रहने वाले और जरूरत से ज्यादा खाने-पहनने वाले थोड़े-से लोगों को थोड़ी तकलीफ हुई, लेकिन बहुत छोटी-छोटी जगहों में बहुत बड़ी संख्या में रहने वाले और खाने-पहनने को बहुत कम पाने वाले बहुत-से लोगों को बहुत राहत मिली।

इसके बाद वे साहित्यकार, कलाकार, शिक्षक और अन्य संवेदनशील लोग सक्रिय हुए, जो अपने-अपने समाजों में ऊँच-नीच के भेद और उनके आधार पर किये जाने वाले अन्याय-अत्याचार देखकर पागल हुए थे। हालाँकि अब काफी आजादी और बराबरी हो गयी थी, जिससे अमीर-गरीब, मर्द-औरत, गोरा-काला, सवर्ण-शूद्र, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक जैसे भेदों के आधार पर किये जाने वाले अन्याय-अत्याचार काफी कम हो गये थे, फिर भी पुरानी आदतों और मान्यताओं के चलते इस प्रकार के कुछ अन्याय-अत्याचार अब भी होते थे। यह देखकर उन पागलों ने औरतों से कहा कि वे मर्दों को घेरें, कालों से कहा कि वे गोरों को घेरें, शूद्रों से कहा कि वे सवर्णों को घेरें और अल्पसंख्यकों से कहा कि वे उन बहुसंख्यकों को घेरें, जो लैंगिक, नस्ली, धार्मिक, सांप्रदायिक और खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन आदि के भेदों के आधार पर उनके प्रति अन्याय और अत्याचार करते हैं। पागलों ने उनसे कहा कि उन लोगों को घेरकर मारना-पीटना नहीं है, बस उन्हें घेरकर उन पर हँसना है और तब तक हँसते रहना है, जब तक वे शर्मिंदा होकर मनुष्यों को मनुष्य न समझने की अपनी भूल स्वीकार करके उसे सुधार न लें।

इस तरह दुनिया भर में सामाजिक अन्याय के विरुद्ध हँसी के हथियार से लड़ाई लड़ी गयी और जीती गयी।
हाँ, मैं अपने बारे में बताना तो भूल ही गयी। मैं अब भी पत्रकार थी, मगर अब मैं ‘सभूस’ (समर्थों की भूमंडलीय समाचारसेवा) की नहीं, बल्कि उसे बदलकर बनायी गयी ‘अभूस’ (अखिल भूमंडलीय समाचारसेवा) की पत्रकार थी। अब मेरा काम दुनिया में हो रहे नये बदलावों की रिपोर्टिंग करना था। दुनिया में इतने बड़े-बड़े बदलाव इतनी तेजी के साथ हो रहे थे कि मैं उनकी रिपोर्टिंग के लिए दिन-रात यहाँ से वहाँ भागती रहती थी। इधर मेरी रुचि प्रकृति और पर्यावरण से संबंधित बदलावों में अनायास बढ़ गयी थी।

अपने काम के साथ-साथ मैं अपने माता-पिता, भाई-बहन और दूसरे सगे-संबंधियों की तलाश भी करती रहती थी। मगर उनमें से कोई भी मुझे कहीं भी नहीं मिला। हाँ, एक बार जब मैं दुनिया भर में घूम-घूमकर पागलों द्वारा शुरू की गयी नये ढंग की सामूहिक खेती-बाड़ी, बागवानी और खाने योग्य पशुओं, पक्षियों, मछलियों आदि के उत्पादन के साथ-साथ पर्यावरण की रक्षा से संबंधित कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग कर रही थी, तब मुझे एक पर्यावरण सम्मेलन में एक पागल दिखा, जो मुझे अपने बड़े भाई जैसा लगा। लेकिन मुझे अपने परिवार से बिछुड़े इतना लंबा अरसा हो चुका था और वह जिस देश में मुझे दिखा था, वह मेरे देश से इतनी दूरी पर था कि वहाँ मुझे अपने भाई का होना संभव नहीं लगा। फिर भी मैंने उससे मिलकर उसके अतीत के बारे में जानना चाहा। लेकिन वह हँस दिया। मैं समझ गयी, यदि वह मेरा भाई होता, तो अवश्य ही मुझे पहचान लेता।

लेकिन उस पागल से मिलने के बाद मैंने सोचा, कम से कम एक बार मुझे उस देश में अवश्य जाना चाहिए, जो कभी मेरा देश था और जिसे कभी समर्थों ने धूल में मिला दिया था। दुनिया में इतने बड़े-बड़े परिवर्तन हो गये हैं, क्या पता वहाँ जाकर मुझे अपने परिवार के लोगों के बारे में कुछ पता चले या शायद वहाँ कोई मुझे मिल ही जाये।

और एक दिन मैं वहाँ पहुँच गयी, जहाँ मेरा शहर हुआ करता था। उस जगह का नाम तो वही था, लेकिन मेरा जाना-पहचाना वह शहर वहाँ नहीं था, जो नदी के दोनों किनारों पर घनी बस्तियों, बहुमंजिली ऊँची-ऊँची इमारतों और बड़े-बड़े उद्योगों वाला एक बड़ा शहर था। नदी अब भी वहाँ थी, लेकिन उसके दोनों तरफ घनी बस्तियों की जगह हरी-भरी खेतियाँ थीं। बहुमंजिली इमारतों की जगह इकमंजिले मकान थे। दिन में धूप और रात में चाँदनी के लिए खुले-खुले मकान। बड़ी-बड़ी मशीनों वाले बड़े कारखानों की जगह छोटे-छोटे कारखाने थे, जिनमें हाथ से या छोटी मशीनों से रोजमर्रा के काम की चीजें बनायी जा रही थीं। जहाँ फौजी छावनी हुआ करती थी, वहाँ स्कूल, काॅलेज और अस्पताल बन गये थे। परेड मैदानों को खेल के मैदानों में बदल दिया गया था। हथियार बनाने का कारखाना दवाइयाँ बनाने का कारखाना बन गया था। आयुध-भंडार खाद्य सुरक्षा के लिए बनाया गया अन्न भंडार बन गया था। रेलवे स्टेशन था, लेकिन पहले जितना बड़ा, बंद और भीड़भाड़ वाला नहीं, बल्कि छोटा-सा खुला हुआ और शांत। पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहन जब सारी दुनिया में ही चलने बंद हो गये थे, तो पहले की तरह उनसे घिरी सड़कें अब मुझे वहाँ कहाँ दिखतीं? उनकी जगह मुझे वे वाहन दिखे, जो मैंने बचपन में शहरों से दूर गाँव-देहात में चलते देखे थे–बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी, घोड़ागाड़ी, ऊँटगाड़ी। लोग ज्यादातर पैदल चल रहे थे या साइकिलों पर।

मैं संवाददाता वाली जिज्ञासा के साथ लोगों से पूछताछ करती, अपने बदले हुए शहर के बारे में नयी जानकारियाँ जुटाती घूम रही थी और साथ-साथ उस जगह का पता भी लगा रही थी, जहाँ कभी मेरा घर था। बड़ी देर बाद मुझे एक बूढ़ा आदमी मिला, जिसे मैं पहचान गयी। उसने भी मेरे माता-पिता के नाम से मुझे पहचान लिया। मैंने उससे अपने घर के बारे में पूछा, तो वह मुझे एक टीले पर ले गया और वहाँ से नदी किनारे के हरे-भरे खेतों के बीच बने खूबसूरत मकानों वाली छोटी-सी बस्ती की तरफ इशारा करते हुए बोला, ‘‘वहाँ है तुम्हारा घर।’’

मेरे पूछने पर उसने बताया कि युद्ध के दिनों में जब शहर पर भारी बम बरसाये जा रहे थे, दूसरे लोगों की तरह मेरे परिवार के लोग भी जान बचाने के लिए भागे थे। वे कहाँ-कहाँ गये, कहाँ-कहाँ रहे, उसे मालूम नहीं था। कब और कैसे लौटे, यह भी वह नहीं बता सका। मगर उससे मुझे यह मालूम हो गया कि लौटने वालों में मेरी माँ थीं, मेरे पिता नहीं थे। मेरी छोटी बहन नहीं थी, पर मेरे बड़े भाई थे। माँ और बड़े भाई ने दूसरे लोगों के साथ मिलकर नदी के किनारे खाली पड़ी जमीन को सामुदायिक खेती के लायक बनाया, खेतों के बीच सामूहिक श्रम से मकान बनाये, जो सुंदर थे और एक जैसे नहीं थे।   उनमें से ही एक मकान में मेरी माँ मेरे भाई, मेरी भाभी और मेरी एक भतीजी के साथ सुख से रहती हैं।

विदा लेते समय मैंने शुक्रिया कहा, तो उस भले बूढ़े ने मेरा सिर थपथपाकर आशीर्वाद दिया, ‘‘खुश रहो। जाओ, मिलो अपने लोगों से।’’

मुद्दतों बाद मुझसे मिलकर माँ और भाई तो खुश हुए ही, पहली बार मिली भाभी और भतीजी भी बहुत खुश हुईं। भतीजी को देखकर मुझे लगा कि जैसे मैं उसमें अपनी किशोरावस्था देख रही हूँ।

मैं शाम को घर पहुँची थी। शाम से देर रात तक खाना-पीना चलता रहा और दुनिया भर की बातें होती रहीं। बातों ही बातों में मुझे पता चला कि माँ, भाई और भाभी तीनों मिलकर सामुदायिक खेती और बागवानी करते हैं और मेरी भतीजी स्कूल में पढ़ती है। मगर इसके अलावा चारों सार्वजनिक जीवन में भी खूब सक्रिय रहते हैं। माँ की रुचि शुरू से ही संगीत में थी, सो वे एक संगीतशाला में बच्चों को संगीत सिखाती हैं। भाई को बचपन से ही चित्रकला में रुचि थी और अब वे एक अच्छे चित्रकार बन गये हैं। भाभी की रुचि इतिहास लेखन में है और वे एक पुस्तक लिख रही हैं–‘पागलों ने दुनिया बदल दी’। भतीजी की रुचि तैराकी में है और उसने तैराकी की कई प्रतियोगिताओं में पदक प्राप्त किये हैं।

अगले दिन सुबह सबने मुझे पूरा घर दिखाया, अपने पड़ोसियों से मिलवाया और अपने सामुदायिक खेतों और बागों में घुमाया। वहाँ से नदी पास ही थी। भाई ने मुझसे कहा, ‘‘आओ, नदी पर चलते हैं।’’

‘‘नहीं, नदी पर नहीं।’’ सहसा मेरे मुँह से निकल गया।

‘‘क्यों? नदी पर क्यों नहीं?’’ भाई को आश्चर्य हुआ, लेकिन अगले ही क्षण उन्होंने मेरी तरफ देखा और हँस पड़े, ‘‘डरती हो कि फिसलकर उसमें गिर न पड़ो?’’

मैं शरमा गयी। मुझे बचपन की वह घटना याद थी, जब मैं माता-पिता और भाई-बहन के साथ एक बार नदी पर घूमने आयी थी और किनारे पर से फिसलकर नदी में गिर गयी थी। नदी शहर की गंदगी और कारखानों से निकलने वाले काले गंधाते पानी के मिलने से बदबूदार गंदे नाले जैसी हो गयी थी और गहरी होने के बावजूद बड़ी मंथर गति से बहती थी। मैं उसमें गिरकर डूबने लगी, तो पिता उसमें कूद पड़े और उन्होंने मेरे बाल पकड़कर मुझे पानी में से निकाला। पिता और मैं नदी में से निकलकर आये, तो काले बदबूदार पानी में भीगे हुए थे और उसमें बहते सड़े-गले खर-पतवार के तिनके हमारे बालों में, मुँह और हाथ-पैरों पर चिपके हुए थे। हमें इस हालत में देखकर मेरे भाई-बहन ही नहीं, माँ भी खूब हँसी थीं।

मुझे शरमाते देख भाई ने कहा, ‘‘डरो नहीं, दूसरी तमाम चीजों की तरह हमारी नदी भी बहुत बदल गयी है।’’

और मैंने पास जाकर नदी को देखा, तो देखती ही रह गयी। काले बदबूदार पानी वाली और मंथर गति से बहने वाले गंदे नाले-सी नदी अब एकदम स्वच्छ जल और तेज बहाव वाली सुंदर नदी बन गयी थी।

उसमें कुछ ऐसा आकर्षण और आमंत्रण था कि मैंने कहा, ‘‘मैं नहाऊँगी।’’ और जो कपड़े मैं पहने हुए थी, उन्हीं को पहने-पहने मैंने छलाँग लगा दी। मुझे मालूम नहीं था कि पानी का बहाव इतना तेज होगा। तैरना जानते हुए भी मैं नदी की तेज धार में बह चली और डूबने लगी। यह देखकर मेरी भतीजी नदी में कूदी, तेजी से तैरती हुई मेरे पास आयी और मुझे बाहर निकाल लायी।

‘‘याद है, माँ, जब यह बचपन में फिसलकर नदी में गिर गयी थी और पिता इसे निकालकर लाये थे?’’ भाई ने मुस्कराते हुए कहा।

‘‘हाँ, याद है। तब यह कैसी भूतनी बनकर निकली थी!’’ माँ हँस पड़ीं।

उनको हँसते देख मेरी भी हँसी छूट गयी और मैं खूब हँसी। बहुत दिनों बाद इतना हँसी।

हँसते-हँसते मैंने नदी की ओर देखा। स्वच्छ जल की वेगवती धारा के उस पार खड़े घने दरख्तों के ऊपर उठते सुबह के सूरज को देखा। पीछे मुड़कर हरे-भरे खेतों के एक तरफ फलदार पेड़ों के बागों को और दूसरी तरफ बने सुंदर इकमंजिले मकानों को देखा। फिर मैंने अपने परिवार को देखा और सभी कुछ मुझे इतना सुंदर लगा, इतना सुंदर लगा कि बता नहीं सकती!

Saturday, July 8, 2017

माटीमिली

यह कहानी मैंने 1977 में लिखी थी और मेरे कहानी-संग्रह 'बदलाव से पहले' (1981) में संकलित है. इसका पंजाबी अनुवाद प्रसिद्ध पंजाबी कथाकार अमरजीत चन्दन ने 'खेह पैणी' नाम से किया था. वह अनुवाद पंजाबी में प्रकाशित मेरी कहानियों के संग्रह 'त्रासदी...माइ फुट!' में प्रकाशित है. 
इधर साहित्यिक पत्रिका 'परिकथा' के जुलाई-अगस्त, 2017 के अंक में इसे पुनः प्रकाशित किया गया है. 

कहानी

माटीमिली

‘‘इस तरह मुँह काला करायेेगी, रधिया, तो गाँव में तेरा टिकना मुश्किल हो जायेगा।’’

जाड़े की आधी रात है। चाँदनी में कोहरा घुला हुआ है। खेतों से गाँव की ओर जाने वाला दगड़ा धुँधलाये उजास में सुनसान और डरावना  लग रहा है। लेकिन यहाँ एक धर्मप्राण व्यक्ति एक गिरी हुई औरत को उपदेश दे रहा है। धर्मप्राण व्यक्ति हैं पंडित शिवदत्त और गिरी हुई औरत है रधिया कुम्हारिन।

‘‘अगर भली औरत की तरह नहीं रह सकती, तो कहीं और जा मर।’’ पंडित शिवदत्त कह रहे हैं और रधिया सुन रही है। 

जूते-मोजे और कोट-कंबल डाटे, सिर पर ऊनी टोपी और उसके ऊपर से कसकर मफलर बाँधे पंडित शिवदत्त रधिया पर गर्म हो रहे हैं और रधिया पैरों में सिर्फ दो रुपये वाली प्लास्टिक की चप्पलें पहने, धोती-कुर्ती पर बस एक सूती खेस लपेटे खड़ी काँप रही है।

खेत में सोबरन से मिलकर वह जल्दी-जल्दी अपने घर की ओर लपकी जा रही थी कि पीपल के नीचे से आते पंडित शिवदत्त अचानक हाथ में लोटा लिये प्रकट हो गये। इतनी रात और इतनी ठंड में तो कुत्ते-सियार भी कहीं दुबके रहते हैं, लेकिन पंडित शिवदत्त आ रहे थे। पहचानकर बोले, ‘‘रधिया, तू? इतनी रात को कहाँ से आ रही है?’’ और सहमी हुई रधिया चुप खड़ी रह गयी, तो सब कुछ जानते-बूझते भी कहने लगे, ‘‘तो सोबरन से तेरी यारी चल रही है, क्यों?’’ और फिर शायद भूल ही गये कि लोटा लेकर घर से किसलिए निकले हैं। 

न ठंड की परवाह है, न रात के सन्नाटे की। रधिया के चारित्रिक पतन की समस्या उनके लिए सर्वप्रमुख हो उठी है और वे उसे उपदेश दिये जा रहे हैं। उनके विचार से रधिया अपने दुराचार से गाँव की नाक कटवा रही है, गाँव में घोर कलियुग ले आयी है, बालकों को रात में अकेले छोड़कर यहाँ खेतों में रासलीला रचाने आती है, लोक-परलोक की कुछ भी चिंता नहीं...

रधिया यह सब न समझती हो, सो बात नहीं; लेकिन रधिया के अपने तर्क हैं। उसके हिसाब से जवान औरत को मर्द चाहिए और बिन बाप के बालकों को बाप। उसका आदमी जिंदा होता, तो वह भी किसी सती-सावित्री से कम नहीं थी। हालाँकि वह जानती है कि सोबरन वह मर्द-बाप नहीं है, लेकिन अकेली औरत को, जिसे सब चींथ खा जाना चाहते हों, सुरक्षा का कोई साधन तो चाहिए।

लेकिन गाँव रधिया के तर्क नहीं मानता। उसके लिए तो रधिया बस एक गिरी हुई औरत है। शुरू में जब रधिया अपनी बदनामी से डरती थी, कोई कुछ कहता तो सफाइयाँ देने लगती थी और झूठी कसमें खा जाती थी। फिर भी कहा-सुनी बंद न होती, तो लड़ने लगती। झूठी तोहमतें लगाकर सामने वाले की आबरू मिट्टी में मिला देती। कहती, ‘‘कौन दूध का धोया है, मैं भी तो जानूँ। मुझे तो सब समझाते हैं, कोई उन लोगों को क्यों नहीं समझाता, जो हमेशा मेरी मिट्टी खराब करने की ताक में रहते हैं?’’ रधिया की इतनी बात सच होती और इस सच के आधार पर वह किसी के भी बारे में बड़े से बड़ा झूठ बोल जाती। इसलिए लोग उससे डरने लगे थे। आज भी डरते हैं। मगर नफरत भी करते हैं, इसलिए चुप भी नहीं रह सकते। 

रधिया ने जब देखा कि गाँव वालों के मुँह किसी तरह बंद नहीं किये जा सकते, तो अपना ही मुँह बंद कर लिया। अब कोई कुछ कहता है, तो कहता रहे। वह किसी को जवाब नहीं देती। सारे लांछन, सारे उपदेश चुपचाप सुन लेती है। इस समय भी सुन रही है। सुन रही है, वरना ठेंगा दिखाकर चली गयी होती, तो पंडित शिवदत्त क्या कर लेते उसका?

पंडित शिवदत्त रधिया की चुप्पी से चिढ़ रहे हैं। कह रहे हैं, ‘‘कितनी ढीठ हो गयी है तू! कोई कुछ भी कहता रहे, तुझे किसी की परवाह नहीं।’’ उनकी चिढ़ स्वाभाविक है। जवाब न मिले, तो लांछन धरने वाले का मजा नहीं आता। गुस्सा और चढ़ता है, ‘‘नहीं मानती तो जा, मर, हमें क्या है! जैसा करेगी वैसा भुगतेगी। देखती जा, तेरी देह में नरक फूटेगा। बुढ़ापे में भीख माँगती डोलेगी।’’ लेकिन जानते हैं कि उपेक्षा से भी तो काम नहीं चलेगा, इसलिए फिर कहते हैं, ‘‘तू चाहती है कि हम इस अनर्थ को चुपचाप देखते रहें? सो नहीं होगा। इसका मतलब तो यह है कि तू जो पाप करती है, गाँव की रजामंदी से करती है। पर गाँव यह सब बर्दाश्त नहीं करेगा। पंच-प्रधान लोग तेरा बहिष्कार करने की सोच रहे हैं। खैर चाहती है, तो अब भी सँभल जा।’’

रधिया सुन रही है और चुप है। उसे गाँव से निकाल देने की कोशिश आज से नहीं, तभी से चल रही है, जब से वह विधवा हुई है।

सरूपा कुम्हार मरा था, तो लोगों ने अंदाजा लगाया था कि अकेली रधिया यहाँ नहीं रहेगी। गाँव में कोई दूसरा घर कुम्हारों का नहीं है। सरूपा भी सात-आठ साल पहले ही इस गाँव में आकर बसा था। पहले वह अपने गाँव से गधे पर बरतन लादकर यहाँ बेचने आता था, लेकिन शादी के बाद ही भाइयों में बँटवारा हो गया, तो सरूपा यहाँ के मुखिया ठाकुर नूरसिंह के सामने आकर रोया था, ‘‘ताल के किनारे एक झुपड़िया डाल लेने दो मुखिया, जिंदगी-भर तुम्हारे बासन बनाऊँगा।’’ मुखिया ने इजाजत दे दी थी और सरूपा अपनी नयी ब्याहुली रधिया के साथ गाँव में आ बसा था। कच्ची ईंटें पाथकर दोनें ने खुद ही ताल के किनारे अपना घर बना लिया था और गाँव ने उन्हें ऐसे अपना लिया था, जैसे वे सदा से यहीं रहते आये हों। लेकिन एक बेटी और एक बेटा पैदा करके सरूपा जब पिछले साल हैजे से मर गया, तो लोगों ने सोचा था, अकेली रधिया अब क्या रहेगी यहाँ? सरूपा के भाई उसे लेने आये थे। एक रँडुआ देवर तो रधिया से नाता करके यहीं रह जाने की बात भी करता था, लेकिन रधिया ने लड़कर सबको भगा दिया था। कहा था, ‘‘जब चार दिन की ब्याहुली को घर से निकाला था, तब कहाँ गयी थी तुम्हारी दया-माया? चले जाओ, मैं अकेली ही अपनी जिंदगी काट लूँगी।’’

कुम्हारों में सदा के लिए विधवा बनकर रहना जरूरी नहीं। रधिया चाहती, तो कहीं भी नाता कर लेती, लेकिन अपने हाथों बनाये घर और रोटी-कपड़ा दे सकने वाले जमे-जमाये चाक से उसे इतना मोह हो गया था कि न तो उसे छोड़कर कहीं जाना चाहती थी, न उसे यह पसंद था कि सरूपा का घर किसी और का घर कहलाये। डरती भी थी कि दूसरे आदमी ने अगर सौत लाकर छाती पर बिठा दी, तो वह अपने बालकों को लेकर कहाँ जायेगी?

गाँव वालों को रधिया का रह जाना अच्छा लगा था, लेकिन मुखिया को अखर गया था। रधिया के चले जाने की संभावना सामने आते ही उसके घर पर उनकी नजर गयी थी। भले ही वह उनकी अपनी सीर-पट््टी पर नहीं, गाँव की पंचायती जमीन पर बना था, लेकिन उनकी इजाजत से बना था, इसलिए खाली हो जाने पर वे उस पर कब्जा कर सकते थे। उन्होंने सोच लिया था कि पंच लोग न माने, तो वे उसे चैपाल बना देंगे, पर उसका इस्तेमाल तो कर ही सकंेगे। लेकिन रधिया जब कहीं नहीं गयी, तो उन्हें लगने लगा, जैसे वह उनके अपने घर पर कब्जा किये बैठी है। अहसान जताकर रधिया से कुछ और वसूल करना चाहा, तो वह भी नहीं कर सके। उलटे एक नुकसान और हो गया। सरूपा से उन्होंने चाहे जितने बरतन बनवाये, कभी दाम नहीं दिया था, लेकिन रधिया ने फोकट में बरतन देने से इनकार कर दिया। तब से मुखिया बहुत चिढ़े हुए हैं रधिया से। पंच-प्रधान लोगों को उकसाते रहते हैं कि रधिया को गाँव से निकाला जाये, लेकिन गाँव वाले रधिया का ही पक्ष लेते हैं--पड़ी रहने दो, मुखिया! विधवा है बेचारी, अपना कमाती-खाती है।

रधिया को नहीं मालूम, लेकिन गाँव के लड़कों को मुखिया ने ही रधिया के पीछे लगाया था। रधिया ने लड़कों को हाथ नहीं धरने दिया, तो उन्होंने ही गाँव के गुंडा पहलवान सोेबरन को उकसाया था, ‘‘कुम्हरिया बहुत इतराकर चलती है, सोबरन। लगता है, कोई उसके कस-बल ढीले करने वाला नहीं मिला।’’

नजर तो सोबरन की भी थी रधिया पर, लेकिन डरता था। मुखिया की शह पाकर उसकी झिझक जाती रही थी। उसी शाम उसके घर पानी का गगरा फूट गया था और नया गगरा लेने वह रधिया के घर जा पहुँचा था। लेकिन उसे आश्चर्य हुआ था कि रधिया ने उसकी छेड़खानी का विरोध नहीं किया। गालियाँ नहीं दीं। शोर नहीं मचाया। रोने लगी। रो-रोकर उसने सोबरन को बताया कि गाँव के बड़े लोगों के लड़के उसे तंग करते हैं और वह कई दिनों से खुद ही सोबरन से उनकी शिकायत करने की सोच रही थी। सोबरन ने आश्वासन दिया था, ‘‘फिकर मत करो, राधे, अब किसी की हिम्मत नहीं कि तुम्हारी तरफ आँख उठाकर भी देखे। सब सालों को देख लूँगा मैं।’’

रधिया जानती थी कि सोबरन बदमाश है। हनुमान के अखाड़े में पहलवानी करता है, लेकिन दारू पीता है, जुआ खेलता है, ठाकुर नूरसिंह की पाल्टी में होने के कारण उनके विरोधियों से लड़ाई-झगड़ा और मार-पीट करता रहता है, कोई और नहीं मिलता तो अपनी औरत को ही कसाइयों की तरह पीटता है। फिर भी उसने सोबरन का हाथ पकड़ा था और उसके बाद गाँव के लफंगे लड़कोें से सचमुच सुरक्षित हो गयी थी। 

मुखिया ने यह नहीं सोचा था कि सोबरन से रधिया की ऐसी यारी हो जायेगी। उन्हेें लगा, सोबरन को जिस काम पर उन्होंने लगाया था, सोबरन ने किया नहीं। वे सोबरन से नाराज रहने लगे थे और रधिया के कस-बल ढीले करने के लिए उन्होंने अपने लड़के मलखान सिंह को प्रेरित किया था। नतीजा यह हुआ कि सोबरन और मलनखान सिंह में लड़ाई हो गयी और सोबरन ने मलखान सिंह का सिर फोड़ दिया। खुंस में मुखिया ने सोबरन को झूठमूठ एक डकैती के केस में फँसा दिया। थानेदार को रुपया खिलाकर सोबरन छूट तो आया, लेकिन इसके लिए उसे मुखिया से ही कर्ज लेना पड़ा और अपने खेेत रेहन रख देने पड़े। तब से वह मुखिया की पाल्टी से अलग हो गया है और बदला लेने की सोच रहा है, लेकिन मौका नहीं पा रहा है। मुखिया रधिया और सोबरन दोनों से खफा हैं, लेकिन सोबरन से डरते हैं, इसलिए अब उन्होंने धरम-करम की बातें शुरू कर दी हैं। परसों उन्होंने पंडित शिवदत्त से कहा था, ‘‘रधिया ससुरी बड़ा अनर्थ कर रही है, पंडित! हम तो समझा-बुझाकर हार गये। अब तो तुम ही उसे समझाओ। नहीं माने तो गाँव से साली का बहिष्कार कर दो।’’

पंडित शिवदत्त को नहीं मालूम था कि रधिया को समझाने का मौका उन्हें इतनी जल्दी मिल जायेगा। रधिया से वे डरते भी थे। एक बार कुछ कहा था, तो रधिया ने सबके सामने उसका पानी उतार दिया था। इसलिए उन्होंने मजाक में लोगों से कहा था, ‘‘हम समझाने गये, तो तुम ही लोग कहोगे कि पंडित भी रधिया से जा फँसे।’’ मुखिया की चैपाल पर बैठे लोग उनकी बात सुनकर हँसे थे। कहा था, ‘‘अरे पंडितजी, तुम अब साठ से ऊपर के हुए, अब तुम क्या फँसोेगे किसी से!’’

मन में यह सरस वार्तालाप चल रहा है और मुँह से धाराप्रवाह उपदेश निकल रहा है। एक पंथ दो काज वाली कहावत को मन ही मन गुनते हुए पंडित शिवदत्त एक साथ दो बातें सोच रहे हैं। रधिया को समझा-बुझाकर सुमार्ग पर लाना है और मौका लगे, तो यह परीक्षा भी कर देखनी है कि इस उम्र में किसी से फँस सकते हैं या नहीं।

लेकिन रधिया ठंड में सुन्न हुई जा रही है। पैरों में चढ़ता शीत उसकी टाँगों को काठ न बना दे, इसलिए कभी एक पाँव पर जोर देकर खड़ी होती है, कभी दूसरे पाँव पर। कह कुछ नहीं रही, लेकिन समझ सब रही है। मुखिया की चैपाल पर हुई बातचीत वह सुन चुकी है। सोबरन से भी अभी यही बात करके आ रही है। सोबरन ने उसे आश्वासन दिया है, लेकिन उसने कहा है कि वह नूरसिंह को तो देख लेगा पर पंडित शिवदत्त से कुछ नहीं कह पायेगा। पंडित शिवदत्त उसके गुरु हैं। उन्हीं के हनुमान मंदिर वाले अखाड़े में वह पहलवान बना है। रधिया शिवदत्त को मँगता बामन ही कहती-मानती है, लेकिन सोबरन से बात करने के बाद उनसे डर रही है। जानती है, यह मँगता बामन गाँव के मुखिया और पंच-प्रधान लोगों से मिलकर उसे गाँव से निकलवा सकता है। अपने बालकोें की चिंता है उसे। गाँव से निकाल दी गयी, तो कहाँ जायेगी उनको लेकर? पीहर में भी तो कोई नहीं बचा, नहीं तो...

‘‘तू कुछ बोलेगी भी? हम इतनी देर से तुझसेे सिर मार रहे हैं और तू एकदम चुप्प खड़ी है।’’ पंडित शिवदत्त जोर से डाँटते हैं, तो रधिया को लगता है, अब तो कुछ बोलना ही पड़ेगा। कहती है, ‘‘तुम ठीक कह रहे हो, पंडितजी। कान पकड़ती हूँ, अब उसकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखूँगी।’’

‘‘पर तेरा क्या विश्वास? कल को फिर तू...?’’

‘‘नहीं पंडितजी, अपने बालकों की सौंह।’’ जानती है कि झूठी कसम खा रही है, लेकिन इसके अलावा जान छुड़ाने का और उपाय भी क्या है? कसम खाते-खाते रुआँसी हो आयी है। इस समय तो वह इस मँगते बामन के पाँव भी पकड़ सकती है। लेकिन पंडित शिवदत्त इतने से ही संतुष्ट हो गयेे हैं। कहते हैं, ‘‘तो जा, अब घर जा। जिन बालकों की सौगंध खायी है, उन्हें जाकर सँभाल।’’

रधिया तेज-तेज कदमों से गाँव की ओर चल दी है और पंडित शिवदत्त ‘हरिओम-हरिओम’ कहते हुए खेत की तरफ बढ़ गये हैं। एक पतिता को पाप से बचा लेने और स्वयं पाप में पड़ते-पड़ते बच जाने के संतोष और आनंद के साथ वे खेत की मेंढ़ पर लोटा रखकर हगने बैठ गये हैं, लेकिन रधिया का गोरा रंग और सुंदर चेहरा उनकी आँखों में बसा हुआ है। थोड़ी देर पहले रधिया और सोबरन ने खेत में बने मचान पर जो लीला की होगी, उसकी कल्पना से वे उत्तेजित हो जाना चाह रहे हैं, लेकिन जाड़े की रात में खुले मैदान की यह ठंड...हरिओम-हरिओम...  

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गाँव सोया पड़ा है। बुझे हुए अलावों की राख से थोड़ी गरमाई पाते हुए कुत्तों ने रधिया की आहट पर जागकर गुर-गुर ही है, लेकिन भौंके नहीं हैं। ताल के किनारे गाँव से अलग-थलग बना रधिया का घर एकदम भूतवासा लग रहा है। एक मड़हे और एक छप्पर वाले इस घर के गज-भर ऊँची सपील से घिरे आँगन में ही चाक चलता है और उसी के एक कोने में आँवाँ सुलगता है। विधवा हो जाने के बाद से रधिया ही मिट्टी खोदने-गोेेड़ने से लेकर बरतन पकाने तक का सारा काम करती है। हुनर हाथ में ऐसा है कि उसे अपने बरतनों पर गेरू पोतने की जरूरत कभी नहीं पड़ी। आँच ही ऐसी देती है कि काली मिट््टी में भी दमकता हुआ लाल रंग खिल उठता है। इस समय सारा आँगन आज ही चाक से उतारे गये कच्चे सकोरों की पाँतों से भरा हुआ है। कल जब ये सूख जायेंगे, तब रधिया इन्हें पकायेगी। अभी तो ये ऐसे लग रहे हैं, जैसे इनमें चाँदनी भरने के लिए इन्हें आँगन में सजा दिया गया हो। 

सकोरों को देखकर रधिया मुस्कराती है। पंडित जी की सारी धमकियाँ और सारे उपदेश बिसर जाते हैं। शाम की वह घड़ी याद आ जाती है, जब वह यहाँ बैठी चाक चला रही थी। थकान से उसकी कमर टूट रही थी, जब सोबरन ताल में बैलों को पानी पिलाकर खँखारता हुआ घर के सामने से गुजरा था। रधिया समझ गयी थी और काम खत्म करने के बाद वह बेहद ठंड के बावजूद गरम पानी और खुशबूदार साबुन से नहायी थी। बच्चों को खिला-पिलाकर उन्हें सुलाते हुए खुद भी थोड़ी देर ऊँघ ली थी कि रात भी हो जाये और कुछ थकान भी उतर जाये। फिर अपने-आप ही जागी थी और घर का दरवाजा भेड़कर दबे पाँव निकल गयी थी। खेत में सोबरन उसकी प्रतीक्षा में जागता मिला था। रधिया ने मचान केे नीचे पहुँचकर सियार की बोली उतारी थी और सोबरन हुर्र करता हुआ फौरन उठ बैठा था। वह मचान पर चढ़ गयी थी और जब सोबरन ने उसे अपनी रजाई में लेकर सीने से चिपटाया था, ठंड के मारे उसके दाँत बज रहे थे और उत्तेजना में उसकी रग-रग काँप रही थी। 

वह सुख मिट्टी हो चुका है। ठंड से काँपती हुई रधिया चुपके से घर में घुसती है। देखती है, दोनों बच्चे चैन से सो रहे हैं। वह अपनी खाट पर रजाई में दुबक जाती है। रजाई ठंडी है और रधिया के पैर तो बरफ हो रहे हैं। जब तक बाहर थी, इतनी ठंड नहीं लग रही थी, लेकिन रजाई ओढ़ लेने के बाद अब उसके दाँत किटकिटा रहे हैं। थोड़ी देर वह पंडित शिवदत्त की बातों पर विचार करती है, लेकिन उसे पता नहीं चलता कि कब रजाई भरक गयी, कब उसकी कँपकँपी बंद हुई और कब उसे नींद आ गयी। 

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पंडित शिवदत्त रधिया को समझाकर ही संतुष्ट नहीं हुए। न जाने उन्हें क्या सूझा कि जंगल-झाड़े से निबटकर खाली लोटा लटकाये खेत की मेढ़-मेढ़ चलते वे सोबरन के मचान तक जा पहुुँचे। सोबरन खर्राटे भर रहा था, पंडित शिवदत्त की ललकारती-सी आवाज सुनकर जागा। लाठी सँभालकर ऊपर से झाँकता हुआ बोला, ‘‘कौन है?’’ और पंडित शिवदत्त को पहचानकर बोला, ‘‘क्या बात है, गुरूजी?’’ कहता हुआ अपनी रजाई लपेटे नीचे उतर आया। मन में खुटका तो हो रहा था कि पंडित ने शायद रधिया को यहाँ से जाते देख लिया है, लेकिन यह नहीं जानता था कि वे इस बात को इतना तूल देंगे।

‘‘तुमको शरम नहीं आती, सोबरन?’’ पंडित शिवदत्त कोई भूमिका बाँधे बिना लताड़ने लगे, ‘‘घर में सुंदर-सुशील बहू है, ठाकुर नेगसिंह जैसे मातबर आदमी के तुम लड़के हो, हमारे अखाड़े में बीस बरस ब्रह्मचारी रहकर तुमने पहलवानी और हनुमान-पूजा की है, और एक नीच कुम्हारिन पर अपना ईमान बिगाड़ लिया है तुमने, ऐं?’’

सोबरन कुछ बोला नहीं, पर उसे हँसी आ गयी। आधी रात को, इतनी ठंड में, और इस तरह सुनसान खेत में आकर, सोबरन को सोते से जगाकर पंडितजी यह सब कहेंगे, यह बात उसे बहुत ही मजेदार लगी।

लेकिन पंडित शिवदत्त पगला रहे थे। पहले वे रधिया की नीचता बताते रहे, फिर न जाने क्या हुआ कि बोेले, ‘‘रधिया के पास ऐसा क्या है, जो तुम्हारी बहू के पास नहीं है?’’ इसके बाद वे रधिका के अंग-प्रत्यंग की तुलना सोबरन की बहू से करने लगे। अपने जाने वे सोबरन को सुमार्ग पर लाने के लिए ही ऐसा कर रहे थे, लेकिन सोबरन को उनके मुँह से रधिया की छातियों के साथ अपनी बहू की छातियों का बखान अच्छा नहीं लगा। उसे गुस्सा आ गया। उसने अपनी रजाई उतार फेंकी और पंडित शिवदत्त को उठाकर खेत में पटक दिया। गेहूँ और सरसों के हाथ-हाथ भर ऊँचे पौधों पर जमी ओस में पंडित शिवदत्त नहा-से गये और भयार्त स्वर में चिल्लाने लगे। सोबरन ने उनका मुँह बंद कर दिया और बुढ़ऊ कहीं मर न जाये, इस डर से उन्हें पीटने के बजाय झकझोरकर बोला, ‘‘कहे देता हूँ पंडित, आगे कुछ बोले तो जबान खेंच लूँगा। सोबरन को समझ क्या रखा है तुमने? अब खैर चाहते हो, तो चुपचाप चले जाओ यहाँ से।’’

पंडित शिवदत्त लटपटाते हुए उठकर चले गये। बासठ की उम्र हुई, आज तक इतना अपमान उनका कभी नहीं हुआ। भृगु, विश्वामित्र और दुर्वासा जैसे तमाम क्रोधी ऋषि-मुनियों को याद करते हुए वे खेत से निकलकर दगड़े में आये और घूमकर खड़े हो गये। मचान के नीचे सोबरन अभी भी खड़ा था। ठाकुर के लौंडे ने ब्राह्मण पर हाथ उठाया। पंडित शिवदत्त को अपने अंदर परशुराम की आत्मा उतरती महसूस हुई और उन्होंने खाली लोटे को फरसे की तरह उठाकर चिल्लाते हुए प्रतिज्ञा की, ‘‘तेरा वंश न मेट दिया तो नाम शिवदत्त नहीं।’’

खेत में छायी खामोशी पर तैरते उनके शब्द दूर खड़े सोबरन तक पहुँचे और वह दगड़े की तरफ बढ़ा। लेकिन उसकी आकृृति हिलती दिखाई दी, तो पंडित शिवदत्त फिर से पकड़ लिये जाने के डर से गिरते-पड़ते गाँव की तरफ दौड़ पड़े। 

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पंडित शिवदत्त चले गये, पर सोबरन को नींद नहीं आ रही है। वह मचान पर बनी झोंपड़ी में घुसकर रजाई ओढ़कर बैठ गया है और बीड़ी फूँक रहा है। सुन रहा है कि नीचे खेत में कोई जानवर घुस आया है और चर रहा है, लेकिन वह उसे भगाने के लिए उठ नहीं पा रहा है। लड़ाई-झगड़ा उसके लिए नयी चीज नहीं है, लेकिन पंडित शिवदत्त पर हाथ उठाना उसे अखर रहा है। अपने गुस्से को सही ठहराने के लिए वह पंडित शिवदत्त की बातें याद कर रहा है, लेकिन उनकी बातें उसे गलत भी लग रही हैं और सही भी। रधिया और अंगूरी की जिस तुलना पर वह बिगड़ उठा था, खुद तब से कई बार कर चुका है। रधिया कभी उन्नीस लगती है, कभी इक्कीस। अंगूरी उसकी बहू है, रधिया से ज्यादा जवान है, उसके लड़के की माँ है। फिर रधिया? लेकिन रधिया में जो बात है, अंगूरी में नहीं। रधिया प्यार करती है, अंगूरी अधिकार जमाती है। अंगूरी सोबरन के दारू पीने पर चिढ़ती है और लड़ती है, रधिया दारू को बुरा नहीं समझती, बल्कि पीने के लिए दो-चार रुपये भी दे देती है। आज भी तीन रुपये दे गयी है। लेकिन...

सोबरन को लगता है, बात सिर्फ देह और दारू की नहीं, बात कुछ और है। लेकिन क्या?

उसे रधिया की बातें याद आ रही हैं। मुखिया उसे गाँव से निकाल देने की फिराक में हैं, यह सोबरन भी जानता है। लेकिन वह इसमें क्या कर सकता है? रधिया का कोई कानूनी हक तो यहाँ है नहीं। और होता भी तो क्या? कानून तो पैसे का है सब। मेरे ही मामले में क्या हुआ? झूठा मुकद्दमा था, फिर भी जेल हो गयी होती, अगर पैसा न होता...और पैसा तो साले मुखिया जैसे लोगों के पास ही है। उनकी पहुँच भी ऊपर तक है। थाना-कचहरी से लेकर असेंबली तक। सोबरन उनसे अपनी ही लड़ाई नहीं लड़ पा रहा है, रधिया के लिए कैसे लड़े?

मगर उसकी यह कमजोरी रधिया जाने, यह सोबरन को मंजूर नहीं। वह कौन होती है उस पर ताना कसने वाली कि वह कुछ नहीं कर सकता? अरे, जब मैं कह रहा हूँ कि मैं सब देख लूँगा तो विश्वास कर। नहीं करती तो मर। उस मास्टर साले को बीच में क्यों लाती है?

दरअसल गुस्सा सोबरन को मास्टर पर ही था, मारे गये पंडित शिवदत्त। रधिया ने सोबरन को कच्चा पड़ता देख कहा था, ‘‘देख लो, सोबरन, कहीं मास्टर की ही बात सच्ची न निकले कि तुम कुछ नहीं कर पाओगे।’’

सोबरन ने रधिया को डाँट दिया था, ‘‘उस पाजी की बात मत करो, राधे! मैं उसका नाम भी तुम्हारे मुँह से नहीं सुनना चाहता।’’ रधिया हँस दी थी, ‘‘मैं उसका नाम क्यों लूँ, बात आयी तो मैंने कह दी। तुम्हें नहीं पसंद है, तो छोड़ो। पर यह सोच लो कि अब तुम्हें कुछ करना जरूर पड़ेगा। मुखिया मुझे गाँव से निकालने पर तुले हैं।’’

रधिया हँस दी थी और सोबरन ने कह दिया था, ‘‘तुम फिकर मत करो, मैं सब देख लूँगा।’’ लेकिन कहते समय उसे लगा था कि वह झूठ बोल रहा है और रधिया उस झूठ को समझ रही है। रधिया के जाने के बाद भी सोबरन इस अहसास से तिलमिला रहा था। उसे लगा, मास्टर से रधिया की बातचीत आजकल कुछ ज्यादा ही होने लगी है। मास्टर जरूर उसे मेरे खिलाफ भड़काता होगा। 

‘‘मुखिया के खिलाफ तुम कुछ नहीं करोगे। तुम्हें अपने मौज-मजे से फुर्सत मिले तब न!’’ गाँव के स्कूल में पढ़ाने आने वाले मास्टर की यह बात सोबरन को अक्सर याद आती है। हालाँकि मास्टर ने उसका कभी कुछ बुरा नहीं किया, फिर भी उसे मास्टर पर गुस्सा आता है। उसकी समझ में नहीं आता कि जब दुनिया में सभी बदमाश हैं, तो मास्टर ही एक शरीफ कैसे हो सकता है? फिर गाँव के लोग आनगाँव के इस आदमी की इतनी इज्जत क्योें करते हैं? यहाँ तक कि मुखिया भी उससे दबते हैं, जबकि वह खुलेआम मुखिया की मुखालफत करता है। बातें उसकी सोबरन को भी सही लगती हैं, लेकिन उसमें कुछ ऐसा है कि सोबरन को उससे डर लगता है। और डेढ़ पसली के उस आदमी से सोेबरन डरना नहीं चाहता। हालाँकि मास्टर से डरने की कोई बात नहीं है, मास्टर जब भी मिलता है, हँसकर बात करता है, लेकिन उसकी बातों में कुछ ऐसा होता है कि सोबरन उसके सामने खुद को बहुत छोटा और कमजोर समझने लगता है। यह चीज उसे तिलमिला देती है। तिलमिलाकर वह गुस्से से भर उठता है। गुस्से में किसी से लड़ाई-झगड़ा कर लेता है। कोई और नहीं मिलता, तो अंगूरी को ही पीट देता है। अपने लड़के को ही मार बैठता है। फिर भी तिलमिलाहट जाती नहीं। दारू पीता है, रधिया को भोगता है, फिर भी नहीं। भीतर एक आग-सी लगी रहती है। सोचता है, जब तक नूरसिंह से बदला नहीं ले लेगा, यह आग बुझेगी नहीं। लेकिन मुखिया नूरसिंह रात-बिरात कभी निकलते नहीं, निकलें भी तो तमंचा हर वक्त उनकी जेब में रहता है।

इसी उधेड़-बुन में पड़ा सोबरन जागता रहा और बीड़ियाँ फूँकता रहा। उसके लिए यह एक अजीब और परेशानी वाली बात थी। वह कभी उधेड़-बुन में नहीं पड़ता। या तो सीधा सोचता है, या सोचता ही नहीं। सही-गलत जो होता है, कर डालता है। भुगतना पड़ता है, तो भुगत लेता है। चिंता और पहलवानी का कोई साथ नहीं। 

हारकर सोबरन ने सीधी बात सोच ली है: सुबह होते ही वह पंडित शिवदत्त के पास जायेगा। उनके चरण छूकर क्षमा माँगेगा। रधिया का जो होना हो सो हो, उसकी परवाह नहीं करेगा। सोबरन ने उसकी सुरक्षा का ठेका थोड़े ही ले रखा है! मास्टर के गुण गाती है, तो जा, मास्टर से मदद माँग। मास्टर की भगतिन...साले को मारा नहीं तो नाम सोबरन नहीं!

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सुबह रोज की-सी सुबह थी। रात को जो घटना खेत में घट गयी थी, उसका रंचमात्र भी प्रभाव रधिया के मन पर नहीं था। आँख खुलने पर राधे-राधे कहकर बातें करने वाले सोबरन की आवाज उसके कानों में जरूर गूँजी थी, उठकर अँगड़ाई लेते समय एक सुखद सिहरन भी उसने महसूस की थी, दगड़े में खड़े पंडित शिवदत्त का उपदेश भी उसे याद आया था, लेकिन इस सबको उसने मन पर टिकने नहीं दिया था।

रोज की तरह उठी और बाजरा पीसने बैठ गयी। पीसती रही और जो मन में आया, गाती रही। बच्चों के जागने का समय हुआ, तो छप्पर के नीेचे बने चैके में आकर चूल्हा चेताया और पानी का बटुला गरम होने को रख दिया। ठंडे पैरों को आँच के सामने रखकर तपाने लगी। अरहर की सूखी डंडियाँ भरभराकर जल रही थीं और लपट लेती आँच को देखना उसे अच्छा लग रहा था। कल खरीदी हुई गुड़ की भेली उसके ध्यान में थी और वह सोच रही थी कि बालक उठ जायें, तो उनके लिए बाजरे का मीठा दलिया पका देगी।

तभी पाँच बरस की उसकी बिटिया उसके पास आ बैठी। रधिया ने ओढ़ा हुआ खेस खोलकर बेटी को ढँक लिया और अपने साथ सटा लिया। फिर बोली, ‘‘अपने मास्साब की बात भूल गयी, बिट्टो?’’

सुनकर बिट्टो को सहसा ध्यान आया और उसने मुस्कराते हुए छोटे-छोटे हाथ जोड़कर माँ से कहा, ‘‘अम्मा, नमस्ते।’’

रधिया खिल उठी। बिट्टो पर असीसें बरसा दीं। आशीर्वादों में बिट्टो खूब बड़ी हो गयी, पढ़-लिखकर मास्टरनी बन गयी, अच्छे-से दूल्हे के साथ उसकी शादी भी हो गयी। बिट्टो ने माँ की गोद में लेटकर आँखों में बची रह गयी नींद में फिर सपने खोजना शुरू कर दिया, लेकिन माँ चुप होकर चूल्हे में लकड़ियाँ सरकाती हुई, आँच की लपटों को एकटक देखने लगी। 

माँ का सपना बहुत बड़ा है, इसलिए खुली आँखों से देखना पड़ता है उसे। वह जानती है कि एक मेहनत-मजूरी करने वाली, नीच जात, अकेली विधवा को अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर किसी लायक बनाने का सपना नहीं देखना चाहिए, लेकिन वह देखती है। वह जानती है कि उसका सपना कहीं भी टूट सकता है या तोड़ दिया जा सकता है; लेकिन कच्चे बरतन टूट जायेंगे इस डर से क्या कोई बरतन बनाना छोड़ देता है? उसके बच्चे तो चाक पर चढ़ी गीली मिट्टी हैं। वह उन्हें अच्छे से अच्छा बनाकर चाक सेे उतारेगी, बढ़िया से बढ़िया आँच देकर उन्हें पकायेगी, सुंदर से सुंदर बेल-बूटों से उन्हें सजायेगी।

स्कूल में बिट्टो को दाखिल कराने गयी थी, तो उसने मास्टर से कहा था, ‘‘खूब अच्छी तरह पढ़ाना, मास्टर, मैं अपनी बिट्टो को मास्टरानी बनाऊँगी।’’

मास्टर एक विधवा कुम्हारिन की इस महत्त्वाकांक्षा पर मुस्कराया था। मूँछों में हँसते हुए उसने कहा था, ‘‘सो तो ठीक है, रधिया, लेकिन यह ठहरी लड़की जात। मास्टरनी बन भी गयी, तो क्या इसकी कमाई तुम्हारे हाथ आयेगी?’’

रधिया बात समझकर भी तिलमिलायी नहीं थी। हँसकर कहा था, ‘‘इतने गगरे-सुराहियाँ बनाती हूँ, मास्टर, सबका ठंडा पानी मैं ही पीती हूँ क्या? और तुम भी तो यही काम करते हो। तुम्हारे पढ़ाये हुए बालकों में से कोई मास्टर बनेगा, कोई पटवारी, कोई थानेदार। क्या उनकी कमाई तुम्हें खाने को मिल जायेगी?’’

मास्टर अचकचाकर रधिया का मुँह देखने लगा था। रधिया जैसी औरत के मुँह से ऐसी ज्ञान की बात सुनने की उम्मीद उसे नहीं थी। उस समय कुछ नहीं कहा था उसने, पर एक दिन बिट्टो ने स्कूल से लौटकर माँ को बताया था कि मास्साब ने क्या कहा है--अपनी माँ से खूब प्यार किया करो। रोज सुबह उठकर नमस्ते किया करो। तुम्हारी माँ बहुत समझदार औरत है।

रधिया चूल्हेे की आँच को देखती है और मुस्कराती है। अपने बारे में सोचती है--कितनी गिरी हुई और बदनाम औरत है वह, लेकिन कोई तो है, जो उसे ठीक समझता है। मास्टर के लिए उसके मन में आदर ही आदर है। उसे वह बिट्टो के संदर्भ से ही नहीं, अपने संदर्भ से भी जानती है।

गाँव में सोबरन के साथ रधिया को सबसे पहले मास्टर ने ही देखा था। उस दिन मास्टर को गाँव में कुछ देर हो गयी थी। शाम के झुटपुटे में रेतीले दगड़े में अपनी साइकिल रौंदता वह अपने गाँव जा रहा था कि अमराई के साथ वाले अरहर के खेत में से सोबरन और रधिया अचानक एक साथ निकल पड़े थे। गाँव में अरहर के खेत बदनाम होते हैं। रधिया के साथ सोबरन को अरहर के खेत से निकलते देख अनुमान के लिए कुछ बचा ही नहीं था। मास्टर मुस्कराता हुआ आगे बढ़ गया था, लेकिन सोबरन ने उसे पुकार लिया था, ‘‘सुनो मास्टर!’’ और मास्टर के रुक जाने पर सोबरन ने पास आकर उसकी साइकिल का हैंडिल पकड़ लिया था। कहा था, ‘‘तुमने देख तो लिया और देखकर मुस्करा भी लिये, पर आगे बात फैली, तो इस गाँव में मास्टरी नहीं कर पाओगे। मेरा नाम सोबरन है।’’

धमकी तगड़ी थी, क्योंकि सोबरन तगड़ा था, लेकिन मास्टर हँस दिया था। बोला, ‘‘हाँ, भाई, तुम सोबरन ही हो। मैं तुम्हें जानता हूँ। नामी पहलवान हो। लेकिन गाँव में शायद एक सोबरन और भी तो है, जो किसी डकैती-वकैती में पकड़ा गया था? सुना है, वह थानेदार के जूते चाटकर जेल जाने से बच आया था।’’ सोबरन को झटका लगा था, लेकिन मास्टर उसे बोलने का मौका दिये बिना कहता गया था, ‘‘मुझे तो तुम यहाँ मास्टरी करने नहीं दोगे, पर नूरसिंह ने तुमको डाके में फँसाकर जबर्दस्ती तुम्हारे खेत रेहन रख लिये, तब तुम्हारी मर्दानगी कहाँ गयी थी?’’

‘‘उस बात से तुमको कोई मतलब नहीं, मास्टर!’’ सोबरन को गुस्सा चढ़ आया था और साइकिल के हैंडिल को झकझोरते हुए उसने कहा था, ‘‘तुमने मेरे खिलाफ कुछ किया, तो काटकर नहर में फेंक दूँगा।’’

‘‘तुम्हारा क्या खयाल है, मैं तुम्हारे खिलाफ क्या करूँगा?’’ मास्टर ने गंभीर होकर पूछा था। 

‘‘बदनामी करोगे, और क्या करोगे तुम! पर मैं भी देख लूँगा।’’

‘‘निश्चिंत रहो, तुम्हारी बदनामी करते फिरने की मुझे फुरसत नहीं है। लेकिन तुम्हें देखना ही हो, तो अपने को देखो। क्या हो तुम? अच्छे-भले किसान के लड़के थे, दारूबाजी और गुंडागर्दी में पड़ गये और जिनके लिए लड़े-मरे, उन्हीें के बनाये झूठे मुकद्दमे में फँसकर अपनी जमीन से हाथ धो बैठे। अपने ही खेतों में तुम ठाकुर नूरसिंह के नौकर बनकर रह गये हो, इस चीज को भी देखते हो तुम?’’

‘‘सब देख रहा हूँ, मास्टर! मौका देख रहा हूँ। नूरा को एक दिन ठिकाने लगाकर ही रहूँगा। देख लेना।’’

‘‘देख लिया! मुखिया के खिलाफ तुम कुछ नहीं करोगे। तुम्हें अपने मौज-मजे से फुरसत मिले तब न!’’ कहते हुए मास्टर ने सोबरन का हाथ पकड़कर अपनी साइकिल के हैंडिल से हटा दिया था।

रधिया देखती रह गयी थी। सोबरन कुछ नहीं बोल पाया था। सोबरन को किसी के सामने इतना फीका पड़ते रधिया ने कभी नहीं देखा था। उसे आश्चर्य हुआ था, इस पतले सींक-से आदमी में कौन-सी ताकत है, जो सोबरन जैसे खूनी आदमी का हाथ झटककर चला गया? रधिया की समझ में एक ही बात आयी थी कि मास्टर के पास विद्या है और विद्या की ताकत सोबरन की खूनी ताकत से बड़ी है। उसने सोचा था, अगर वह पढ़ी-लिखी होती और कहीं मास्टरानी होती, तो क्या उसे किसी से डरना पड़ता?

उस दिन से रधिया मास्टर की इज्जत करने लगी थी और उसे अपनी बिट्टो को मास्टरनी बनाने की धुन सवार हो गयी थी। और जिस दिन से रधिया ने बिट्टो के मुँह से मास्टर द्वारा की गयी अपनी प्रशंसा सुनी है, वह उसका और भी आदर करने लगी है। मास्टर सुबह-शाम गाँव में आते-जाते रधिया के घर के सामने से ही गुजरता है। स्कूल रधिया के घर से जरा दूर है, इसलिए जाते समय बिट्टो को साइकिल पर बिठा ले जाता है, लौटते समय छोड़ जाता है। रधिया से दो-चार बातें भी कर लेता है।

एक दिन उसने पूछा था, ‘‘सोबरन तुम्हें कैसा आदमी लगता है, रधिया?’’
‘‘मेरे लिए तो अच्छा ही है, मास्टर!’’

‘‘उसे दारू-पानी के लिए पैसा तुम देती हो?’’

‘‘कभी-कभार हाथ में कुछ रह जाता है तो...’’ रधिया सकुचा गयी थी। उस दिन मास्टर से न जाने क्यों उसे कुछ डर-सा लगा था। लेकिन मास्टर ने फिर और कुछ नहीं पूछा था, मुस्कराकर रह गया था। रधिया का मन हुआ था, कह दे--सोबरन का हाथ मैंने अपनी हिफाजत के लिए पकड़ा है, मास्टर! गाँव के लोगों को तो तुम जानते हो, उनका बस चले तो मुझे चींथकर खा जायें। सोबरन बदमाश आदमी है, उससे सब डरते हैं, इसीलिए उसकी होकर रहती हूँ। इसीलिए चार पैसे भी उस पर खरच देती हूँ। लेकिन मास्टर से यह सब कह नहीं पायी थी। कहना जरूरी भी नहीं लगा था। सोचा था, मास्टर इतना विद्वान आदमी है, क्या इतनी बात नहीं समझता होगा?

‘‘सोबरन की बहू को यह सब मालूम है?’’ मास्टर ने पूछा था।

‘‘मालूम है। एक दिन आकर मुझसे लड़ी भी थी, पर सोबरन ने उसे पीट दिया था। फिर नहीं आयी। हाँ, राह-बाट कभी मिल जाती है, तो गालियाँ देती है। मैं जवाब नहीं देती।’’

‘‘ऐसा कब तक चलेगा, रधिया?’’

‘‘जब तक जिंदा हूँ, जब तक ये हाथ-गोड़ चलते हैं, तब तक ऐसा ही चलेगा, मास्टर! मेरे लिए दुनिया में और कहीं ठौर नहीं है। बस, ये बालक पल जायें, कुछ पढ़-लिख जायें।’’ रधिया ने कहा था और फिर एकाएक पूछ लिया था, ‘'बिट्टो कुछ पढ़ती-पढ़ाती है कि नहीं?’’

‘‘पढ़ती तो है, पढ़ाने भी लगेेगी कभी।’’

‘‘मास्टरानी बन जायेगी?’’ 

‘‘तुम बनाना चाहती हो, तो क्यों नहीं बनेगी? तुम मास्टरनी की अम्मा जरूर बनोगी।’’

तब से मास्टर रधिया को ‘मास्टरनी की अम्मा’ कहने लगा है। रधिया को उसका यह मजाक अच्छा लगता है। एक दिन उसने भी मजाक में कहा था, ‘‘तुम इतने बड़े, ऊँची जात के और बाल-बच्चों वाले न होते और मेरी बिट्टो बड़ी होती, तो तुमसे उसका ब्याह कर देती। फिर बिट्टो को मास्टरानी बनाये बिना ही मास्टरानी की अम्मा बन जाती।’’ मास्टर ने रधिया को झिड़क दिया था। कहा था, ‘‘क्या बात करती हो! बिट्टो मेरी छोटी लड़की के बराबर है।’’

एक दिन इसी तरह हँसते और बातें करते उन्हें किसी ने देख लिया था और सोबरन से जाकर कह दिया था। सोबरन ने रधिया पर गुस्सा किया था। कहा था, ‘‘अब मास्टर से आँख लड़ाने लगी हो?’’ रधिया नाराज हो गयी थी। धारदार जबान से कह दिया था, ‘‘होश की बात करो, सोबरन! अव्वल तो ऐसी कोई बात है नहीं, और हो भी तो मैं तुम्हारी ब्याहता नहीं हूँ। तुमसे कुछ लेती नहीं हूँ, तुम्हें कुछ दे ही देती हूँ।’’

कहने को कह गयी थी, लेकिन कहने के बाद डर गयी थी। सोेबरन कहीं कुछ कर न डाले। इतनी बात कौन मर्द बर्दाश्त करेगा? लेकिन सोबरन बेशरम-सा हँस दिया था और रधिया की खुशामद करने लगा था। उस रात रधिया को सोेबरन--वही गुंडा पहलवान, जिससे सारा गाँव डरता था--एकदम नामर्द-सा लगा था और रधिया को अपनी चिंता हो आयी थी। मुखिया अगर मुझे गाँव से निकाल देने पर तुल जायें, तो क्या वह मुझे बचा लेगा? और कोई सहारा न देख उसने अपने डर को मन में ही दबा लिया था। लेकिन उस रात सोबरन के साथ का सुख रधिया को सुख-सा नहीं लगा था। 

कल रात भी कुछ-कुछ ऐसा ही...

अंदर से छोटे बच्चे के जागकर रोने की आवाज सुनकर सोच में डूबी रधिया का ध्यान भंग हुआ। गोद में ऊँघती बिट््टो को जगाकर उसने कहा, ‘‘उठ बिट्टो, लाला जाग गया है। तू यह गरम पानी ले ले। हाथ-मुँह धोकर स्कूल जाने को तैयार हो।’’

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मास्टर ओस-भीगे दगड़े में साइकिल चलाता हुआ खेतों के बीच से निकलकर गाँव की तरफ आ रहा है। तेजी से चलती हुई उसकी साँस धुएँ की शक्ल में बाहर निकल रही है। नौ बजने वाले हैं और धूप निकल आयी है, लेकिन रात कोहरा इतना घना पड़ा है कि अभी तक नहीं छँटा है। मास्टर ताल की ओर देखता है। कोहरे को भेदकर जल तक पहुँचती किरणों का दृृश्य उसे अच्छा लगता है। जल पर भाप-सी उठ रही है, जैसे ताल में नहाने के लिए गरम किया हुआ पानी भरा हो।

मास्टर मुग्ध होकर ताल की तरफ देख रहा था, इसलिए देख नहीं पाया कि सोबरन कब सामने आ गया और कब उसने पास आकर उसकी साइकिल को पकड़ लिया। मास्टर ने चैंककर देखा और दारू की तीखी गंध उसके नथुनों में घुस पड़ी। 

कोई और होता तो डर जाता, लेकिन मास्टर को सोबरन से डर नहीं लगता। सोबरन सामने आता है, तो मास्टर को हँसी आने लगती है। सोचता है, यह बैल कभी नहीं समझ पायेगा कि इसकी जिंदगी किस तरह बर्बाद हो रही है। पंडित शिवदत्त के धर्म और ठाकुर नूरसिंह की राजनीति के मिक्सचर ने इसे एक तरफ निहायत बौड़म, निकम्मा और डरपोक बना दिया है, तो दूसरी तरफ एकदम लंपट, हिंसक और दुस्साहसी। ऐसे लोगों से किस तरह पेश आया जाता है, मास्टर को मालूम है। सोबरन की चर्चा चलने पर वह कहा करता है, ‘‘ऐसे लोगों से डरे तो मरे।’’

  ‘‘आज सुबह-सुबह कहाँ से पी आये, ठाकुर सोबरन सिंह?’’ मास्टर ने साइकिल से उतरकर मुस्कराते हुए कहा, ‘‘लगता है, रधिया आजकल पैसे कुछ ज्यादा देने लग गयी है!’’

क्षण-भर पहले तक सोबरन का खयाल था कि वह मास्टर को मारेगा। इतना मारेगा कि मास्टर इस गाँव में आना भूल जायेगा। वह काफी देर से पुलिया पर बैठा मास्टर की ही प्रतीक्षा कर रहा था, जिसकी बातों ने उसे सारी रात सोने नहीं दिया था। रात को ही उसने एक सीधी बात सोच ली थी: रधिया के खयाल के साथ मास्टर का खयाल आता है, और यह ठीक नहीं है, इसलिए वह मास्टर को मारेगा। इसके बाद कुछ भी सोचना जरूरी नहीं था। रात को रधिया तीन रुपये दे गयी थी। खेत से उठकर सोबरन सुबह सीधा छिद्दा के घर चला गया था, जिसके यहाँ कच्ची दारू खिंचती और बिकती है। तीन रुपये में जितनी आ सकती थी, खडे़-खड़े पीकर सोबरन चला आया था और मास्टर को मारने के लिए पुलिया पर बैठकर उसकी प्रतीक्षा करने लगा था। लेकिन मास्टर की बात सुनकर वह भौंचक-सा बस उसे देखता रह गया। न हाथ उठा, न मुँह से कोई गाली निकली। उसे लगा, यह सुबह-सुबह ठंड में खाली पेट नशा कर लेने के कारण है।

‘‘पुलिया पर बैठो और धूप खाओ।’’ मास्टर ने कहा और साइकिल खड़ी कर दी। सोबरन के हाथ से हैंडिल छुड़ाया और उसे पकड़कर पुलिया पर ले आया। बिठाकर चलने लगा था कि सोबरन औंधे मुँह उसके पैरों पर गिर पड़ा। मास्टर ने समझा, नशे के कारण गिर गया है। उठाने की कोई जरूरत न समझकर उसने अपने पैर खींचे, लेकिन देखा कि सोबरन उसके पैर पकड़े हुए है और कह रहा है, ‘‘मुझे माफ कर दो, गुरूजी! अब कभी तुम पर हाथ नहीं उठाऊँगा।’’

मास्टर मुस्कराया। बोला, ‘‘चलो, कर दिया माफ। अब उठो।’’

‘‘नहीं-नहीं, पहले वचन दो, वचन।’’

‘‘क्या वचन लेना चाहते हो मुझसे?’’

‘‘नहीं, पहले वचन दो, वचन।’’

‘‘अच्छा, वचन दिया। अब बोलो, क्या चाहते हो?’’

कुछ देर मास्टर उत्तर की प्रतीक्षा में खड़ा रहा। कोई जवाब नहीं आया, तो उसने झुककर सोबरन को उठाया। सोबरन की आँखें बंद थीं और मुँह में दगड़े की धूल भरी हुई थी। वह या तो सो गया था, या बेहोश हो गया था। उसे वहीं छोड़कर मास्टर गाँव की तरफ चल दिया।

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रधिया का घर रास्ते में ही पड़ता है और स्कूल जाने के लिए तैयार बिट्टो अक्सर मास्टर को घर के बाहर खड़ी मिलती है। बिट्टो को अपने साथ स्कूल ले जाना मास्टर का नियम-सा बन गया है। लेकिन यह क्या? आज बिट्टो नहीं, रधिया के घर के सामने गाँव के कई लोग खड़े दिखायी दे रहे हैं। पंडित शिवदत्त, चैधरी रामसेेवक, मुखिया नूरसिंह, और भी कई लोग। घूँघट वाली एक औरत हाथ नचा-नचाकर ऊँची आवाज में रधिया को गालियाँ दे रही है, ‘‘तेरे बालकों को साँप डस जाये, नासपीटी नागिन! रंडी, छिनाल, मेरा ही आदमी रह गया था तेरी आग बुझाने को?’’

मास्टर ने साइकिल से उतरकर देखा, रधिया छोटे बच्चे को गोद में चिपकाये और एक बाँह से बिट््टो को अपने-से सटाये अंदर दरवाजे के पास खड़ी भय से काँप रही है। पंडित शिवदत्त ने बिना पूछे ही मास्टर को बता दिया कि गालियाँ देने वाली औरत सोबरन की बहू है, कि रात को उन्होंने अपनी आँखों से रधिया को सोबरन के खेत में देखा था, कि सोबरन सुबह खेत से घर नहीं लौटा और खेत पर भी नहीं है। मास्टर को स्थिति से अवगत कराने के बाद पंडित शिवदत्त रधिया की ओर मुड़ गये, ‘‘अब बोलती क्यों नहीं? कहाँ भेज दिया है सोबरन को?’’
मास्टर कुछ कहता कि गाँव के दो-तीन लोग उसे खींचकर एक तरफ ले गये। संतू धीमर जल्दी-जल्दी कहने लगा, ‘‘मास्साब, मुखिया लोग रधिया को गाँव से निकालने की मिसकौट करके आये हैं। हमारे खयाल से इन्होंने सोबरन को कहीं छिपा दिया है और उसकी बहू को भड़काककर यहाँ ले आये हैं। अब बताओ, क्या किया जाये?’’

‘‘तुम मेरे साथ आओ।’’ मास्टर ने संतू से कहा। दूसरों से वहीं रुकने को कहकर उसने साइकिल वहीं खड़ी कर दी और संतू केे साथ पुलिया की ओर चल दिया। 

मुखिया नूरसिंह उस समय रधिया से कह रहे थे, ‘‘तुझे क्या हम जानते नहीं हैं! तू कुछ भी कर सकती है। तू तो ऐसी है कि जिंदा आदमी को खा जाये। अब सीधे-सीधे बता दे कि सोबरन कहाँ है, नहीं तो पुलिस बुलाकर जूते पड़वाऊँगा साली पर।’’

रधिया चुप है। उसकी चुप्पी से अंगूरी का हौसला और बढ़ गया है। गालियाँ बकती हुई वह रधिया के घेर में घुस आयी है। आँगन में सूखने के लिए रखे सकोरों को उसने लात मारकर इधर-उधर छितरा दिया है। पाँव पटक-पटककर उन्हें तोड़ रही है। रधिया क्रोध से थरथर काँपती हुई भी अपनी मेहनत की यह बरबादी देख रही है, मगर चुप है। अपनी जगह से हिल भी नहीं पा रही है। बच्चों को उसने और ज्यादा अपने साथ सटा लिया है। शायद वह खतरे को भाँप गयी है कि अंगूरी अब उसके बच्चों पर झपटने वाली है। लेकिन उसकी समझ में यह बात नहीं आ रही है कि जब रात को वह सोबरन को अच्छा-भला छोड़ आयी थी, तो सुबह होते ही वह कहाँ चला गया? क्यों चला गया? और चला गया, तो क्या इसका दुख रधिया को नहीं होगा? जिसकी छाया में वह अपने को सुरक्षित समझती है, उसे वह कहाँ भेज देगी? क्यों भेज देगी? फिर ये लोग उसके पीछे क्यों पड़े हैं?

रधिया के कच्चे सकोरों को चूर-चूर करने के बाद अंगूरी रधिया पर झपटी और गोद के बच्चे को छीनने लगी। अब उसे घूँघट का खयाल नहीं रह गया था और क्रोध में बिफरती हुई वह रधिया को एकदम डायन लग रही थी। लगता था, बच्चा उसके हाथ आ गया, तो वह उसे धरती पर पटककर मार डालेगी या दूूर ताल में फेंक देगी। छीना-झपटी में छोटा बच्चा चीखा, तो घबराकर बिट्टो भी चीखने लगी। बच्चे को छीनने के लिए जब अंगूरी रधिया को नोचने-काटने लगी, तो रधिया उसे धक्का देकर चीख उठी, ‘‘छोड़ मुझे, चुड़ैल! मुझे क्यों खाने आ रही है? तेरा आदमी मेरी गाँठ में तो बँधा नहीं है। घर में बैठा हो, तो तू खुद जाकर देख ले।’’

एक तरह से खुद ही अंगूरी को अपने घर के भीतर ठेलकर रधिया बाहर घेर में निकल आयी। जबान खुल ही गयी, तो अब क्या है! वह एक-एक को देख लेगी। गाँव के पंच-प्रधान लोगों से उसे नफरत हो रही थी, जो सोबरन की बहू को समझाने के बजाय खड़े-खड़े तमाशा देख रहे थे। सबसे ज्यादा नफरत हो रही थी उसे पंडित शिवदत्त से। रात को कैसे उपदेश दे रहे थे, और अब झूठा इल्जाम लगा रहे हैं कि मैंने सोबरन को कहीं भगा दिया है। मैं कहाँ भगा दूँगी उसे?

बाहर आकर उसने पंडित शिवदत्त को लताड़ा, ‘‘क्यों रे मँगते, तूने ही लगायी है न यह आग? तू कहता है, तूने मुझे रात में सोबरन के साथ खेत में देखा था। अब खोल दूँ तेरी पोल-पट्टी?’’ पंडित शिवदत्त को उम्मीद नहीं थी कि रधिया इतने दिन बाद फिर अपने पुराने चंडी रूप में लौट आयेगी। वे कुछ कहते, तब तक तो रधिया ने अन्य लोगों को सुनाते हुए कह दिया, ‘‘इससे पूछो, आधी रात को यह मँगता आनगाँव के एक आदमी लेकर मेरे घर पर क्या अपनी बिटिया की दलाली करने आया था? मैंने इसे फटकार दिया, तो यह बगुला भगत बदला निकालने आया है? झूठे, मक्कार, तुझे कोेढ़ फूटे, मेरे बासनों का नास करा दिया। एक-एक फूटे सकोरे की पाई-पाई टेंट से न निकलवा ली, तो नाम रधिया नहीं। गाँव वालों को तमाशा दिखाने लाया है तू? पर गाँव वालों की आँखें फूट गयी हैं क्या? सोबरन से दुश्मनी रही होगी, तो तेरी रही होगी। उसको कुछ किया होगा, तो तूने किया होगा।’’

पंडित शिवदत्त नहीं जानते थे कि रधिया इतना साफ झूठ इतनी सफाई से बोल जायेगी। वे कब किसके लिए दलाली करने आये थे इसके द्वार पर? उन्होंने लोगों से कहा कि रधिया झूठ बोल रही है, लेकिन रधिया ने बात इस ढंग से कही थी कि लोगों को पंडित शिवदत्त की बात पर विश्वास नहीं हुआ। सबूत यह था कि रात को पंडित शिवदत्त के यहाँ सचमुच कोई बाहर का आदमी आया था, जो सुबह होते ही चला गया था। पंडित शिवदत्त सफाई देने लगे कि वह तो उनकी जिजमानी का नाई था, जो एक बारात का न्यौता देने आया था। लेकिन वह तो उनके साथ कहीं नहीं निकला। और उसे लेकर रधिया के घर आने का तो सवाल ही नहीं उठता। वे इतने धरम-करम वाले आदमी क्या रंडी की दलाली करने आयेंगे? कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू आ गये। रात को सोबरन ने उन्हेें खेत में उठाकर पटक दिया था और अब रधिया ने यह झूठा इल्जाम उन पर लगा दिया है। हे भगवान, सचमुच कलियुग आ गया है। सत्य का कोई मूल्य नहीं रहा।

रधिया ने देखा कि पंडित शिवदत्त फँस गये हैं, तो उसकी आवाज और ऊँची हो गयी, ‘‘एक-एक पाई धरा लूँगी, एक-एक पाई। मुझ पर कोई बस नहीं चला, तो इस घोड़ी को भड़काकर ले आया। नासपीटे, मेरे सारे बासन खुँदवा दिये। सारे दिन हाड़-गोड़ तोड़कर बनाये थे। माँग-माँगकर फोकट का माल खाने वाले मँगते, तुझे क्या मालूम कि इनको बनाने में कितनी मेहनत लगती है। और मुझे धमकाने के लिए इन मुखिया-चैधरी लोगों को अपने साथ लाया है तू? तू समझता है, मैं इनकी दाब-डाँट में आ जाऊँगी? अरे, मैं किसी का दिया नहीं खाती। ढैया-पँसेरी नाज देते हैं, तो ढाई मन की मेहनत के बासन बनवा लेते हैं। ऊपर से बेगार। कभी रधिया इनका आँगन लीपे, कभी रधिया इनके घरों में मिट्टी पहुँचाये। इतनी मेहनत तो चमार-टोले के लिए करूँगी, तो भी अपना और अपने बालकों का पेट भर लूँगी। तू यह मत समझ कि मुझे तू गाँव से निकलवा देगा। यहाँ सब कितने बड़े धर्मात्मा हैं, सो मैं खूब जानती हूँ। कहे तो एक-एक के गुन बखान दूँ?’’

‘‘चलो भाई, चलो। अब रधिया किसी को नहीं बोलने देगी।’’ चौधरी रामसेवक ने मुखिया नूरसिंह से कहा। 

मुखिया नूरसिंह पंडित शिवदत्त का हाथ पकड़कर बोले, ‘‘छोड़ो पंडित, तुमको वहम हो गया होगा। रधिया की जगह किसी और को देख लिया होगा तुमने।’’

पंडित शिवदत्त की स्थिति बड़ी विचित्र हो गयी थी। अब वहाँ से चल देेने में ही उन्हें कुशल दिखायी दी। लेकिन सोबरन की बहू उन्हें खिसकते देख आगे बढ़ आयी। सोबरन को रधिया के घर में न पाकर वह कब की बाहर निकल आयी थी और चुपचाप खड़ी हुई नासमझ-सी यह सब देख-सुन रही थी। अब वह पंडित शिवदत्त की ओर लपकी, ‘‘जाते कहाँ हो, पंडित, पहले यह बताओ कि मेरा आदमी कहाँ है?’’

‘‘यह रहा तुम्हारा आदमी।’’ मास्टर की आवाज ने सबको चौंका दिया।

सबने देखा, नशे में धुत्त सोबरन को एक-एक बाँह से कंधे पर उठाये मास्टर और संतू धीमर उसे घसीटते-से ला रहे हैं। 

‘‘पुलिया के पास पीये पड़ा था।’’ संतू ने कहा और सोबरन को वहीं जमीन पर डाल दिया। 

अंगूरी सोबरन को देखकर सिहर गयी। उसने घूँघट खींच लिया और जहाँ की तहाँ खड़ी रह गयी। क्या कहे-करे, उसे कुछ नहीं सूझा। 

‘‘ले जाओ, भाई, कोई इसे इसके घर पहुँचा दो।’’ मुखिया ने कहा। लेकिन कोई आगे नहीं आया। संतू हाथ झाड़ चुका था और मास्टर अपनी साइकिल थाम चुका था। बाकी लोग मुखिया से नजर बचाकर मास्टर की तरफ देख रहे थे। स्थिति समझ कर मुखिया ने कहा, ‘‘मास्टर, तुम कहो, कोई दो आदमी इसे यहाँ से उठाकर इसके घर ले जायें।’’

मास्टर का इशारा पाकर जवाहर नाई और सीतो मुसहर ने सोबरन को उसी तरह कंघों पर डाला और घसीट ले चले। सोबरन की बहू भी चुपचाप उनके पीछे चली गयी। 

‘‘कोई बात न बात की जड़।’’ किसी ने कहा और अपनी साइकिल से टिके खड़े मास्टर को छोड़कर बाकी सब लोग भौंचक, डरे-सहमे और बेवकूफ-से बने वहाँ से चल पड़े।

मास्टर चकित-सा खड़ा था और रधिया के चेहरे पर बदलते भावों को पढ़ रहा था। फिर आँगन में फूटे पड़े कच्चे सकोरों की ओर देखते हुए उसने कहा, ‘‘आज तो तुम्हारा बहुत नुकसान हो गया, मास्टरनी की अम्मा!’’

‘‘नहीं मास्टर, यह कोई खास नुकसान नहीं है।’’ रधिया ने कहा और बिट्टो को मास्टर के पास छोड़कर गोद के बच्चे को चूमती हुई भीतर चली गयी। जब वह मुड़ी थी, मास्टर ने उसकी डबडबायी आँख में चमकता एक आँसू देख लिया था। 

मास्टर कुछ पल ठिठका-सा खड़ा रहा, फिर बिट्टो के साथ स्कूल की तरफ चल दिया। 

रधिया भीतर जाकर बच्चे को सीने से लगाये फूटकर रो पड़ी। वह रो रही थी और अपने को ही कोस रही थी, ‘‘माटीमिली, तूने हाथ भी पकड़ा तो किसका!’’

--रमेश उपाध्याय

Saturday, May 20, 2017

मेरे और तुम्हारे बीच


अंबाला शहर (हरियाणा) से एक पत्रिका निकलती है 'पुष्पगंधा'. उसके संपादक हैं हमारे एक पुराने मित्र विकेश निझावन. वर्षों से उनसे न मिलना हुआ था न किसी माध्यम से संपर्क रहा था, पर अचानक कुछ समय पहले उनका फोन आया कि उन्हें हमारी कहानी 'चिंदियों की लूट' अपनी पत्रिका के लिए चाहिए. हमने भेज दी और वह उसके नये अंक (मई-जुलाई 2017) में छप गयी है. उस पर प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाओं के फोन भी आने लगे है. अंक के साथ उनका जो पत्र आया है, उसमें उन्होंने लिखा है :
"बहुत समय पहले का आपका एक आलेख 'मेरे और तुम्हारे बीच' क्या उपलब्ध हो पायेगा? उस वक्त मेरे और मित्रों के बीच उस पर काफी चर्चा रही थी. कई वर्ष सँभाल कर रखा था, अब मिल नहीं रहा..."
आज वह लेख खोजा तो पाया कि 1974 का लिखा हुआ है. (बहुत-से अन्य लेखों की तरह यह भी हमारी किसी पुस्तक में नहीं है.) हम इसे लगभग भूल चुके थे, पर आज मिलने पर पढ़ा तो बड़ा सुख मिला कि पत्र शैली में लिखा गया यह लेख आज भी प्रासंगिक और पठनीय है. --रमेश उपाध्याय

 लेख

मेरे और तुम्हारे बीच

मेरे और तुम्हारे बीच अब शायद ऐसा कोई संबंध-सूत्र नहीं रह गया है, जिसे पकड़कर मैं अपनी बात कह सकूँ, क्योंकि कल तक तुम मुझे जितना प्रिय और आत्मीय मानते थे, आज उससे भी अधिक अपना शत्रु मानने लगे हो। ऐसे में तुम्हें मेरी कोई भी बात सच और अच्छी नहीं लगेगी। फिर भी मैं निराश नहीं हूँ। मुझे अब भी आशा है कि तुम मुझे समझ सकोगे। आज नहीं तो कल। और मैं तो कहूँगा कि तुम इस पत्र को बैंक में अपने लाॅकर में रख देना और मेरी मृत्यु के बाद निकालकर पढ़ना। मुझे विश्वास है कि उस समय तुम्हें इसका एक-एक शब्द सच लगेगा। 

तुम मुझे एक सामूहिक कार्य में शामिल होने पर मिले थे। मुझे नहीं मालूम कि तुम्हें मुझमें क्या अच्छा लगा कि तुम मेरी तरफ आकृष्ट हुए, लेकिन कुछ तो अच्छा लगा ही होगा। मुझे तुममें जो अच्छा और आकर्षक लगा, वह था तुम्हारा सौहार्दपूर्ण निश्छल व्यवहार, शर्मीला-सा विनम्र स्वभाव, तुम्हारे अंदर छलकता हुआ नये यौवन का उत्साह, निःस्वार्थ भाव से सामूहिक कार्य में जी-जान से जुट पड़ने की तुम्हारी लगन और तुम्हारा वह मासूम भोलापन, जिसे बगैर मिलावट के शुद्ध सोने जैसी इंसानियत का नाम देने को जी करता है। हमारे संबंध की यह शुरुआत शायद हम दोनों को ही जिंदगी भर बहुत अच्छे दिनों के रूप में याद रहेगी। 

उन दिनों हम बहुत-से थे, मगर सब एक। सारी अलग-अलग इकाइयाँ एकजुट थीं, जैसे एक के बिना दूसरी का अस्तित्व ही न हो। फिर वह काम पूरा हो गया और हम सब बिखर गये। कोई कहीं चला गया, कोई कहीं। लेकिन इस बीच हमारे संबंध मजबूत हो चुके थे। तुम मेरे काफी नजदीक आ गये थे। मेरे अन्य मित्र भी तुम्हारे मित्र बन गये और मेरे परिवार के बीच भी तुम एक आत्मीय जन के रूप में माने जाने लगे। इसका एक कारण यह भी था कि हमारे उस ग्रुप के बिखरने के बाद मैं और तुम ही अपने-अपने परिवारों के कारण उस छोटे शहर से इस महानगर में साथ-साथ आ सके। यहाँ आकर भी हम उसी आत्मीय भाव से मिलते रहे। यह सब बहुत अच्छा लगता था--तुम्हें भी अच्छा लगता था और मुझे भी। शुरू के वे तीन वर्ष मेरे-तुम्हारे संबंधों को उत्तरोत्तर घनिष्ठ बनाते चले गये थे। 

लेकिन ऐसे संबंधों में एक भूल अक्सर हो जाया करती है। वह यह कि हम भावुकता में बह जाते हैं। अपनी भावुकता में हम यह भूल जाते हैं कि समय बीतने के साथ-साथ हमारा जीवन बदलता रहा है और अब हम बिलकुल वैसे ही नहीं रहे हैं, जैसे कुछ वर्ष पहले थे। होना तो यह चाहिए कि हम अपने जीवन में आये परिवर्तनों को देखते-जानते-समझते चलें और तदनुसार अपने संबंधों को पुनर्परिभाषित करते चलें, लेकिन हमारी भावुकता हमें ऐसा करने से रोकती है। भावुकता बुद्धि की दुश्मन है। वह तर्क को स्वीकार नहीं करती। नतीजा यह होता है कि हम अपने संबंधों में आये परिवर्तनों के अनुसार स्वयं को बदलने के बजाय (या उन्हें बदले हुए रूप में समझने के बजाय) उसी पुराने संबंध को जीते रहना चाहते हैं, जो शुरू में था और हमें प्रिय था।

हमारी यह भूल, यह भावुकता, बड़ी गड़बड़ी पैदा कर देती है। हम पहले की तरह ही मिलना चाहते हैं, वैसी ही बातें करना चाहते हैं, उसी तरह साथ-साथ रहना और मीठे सपने देखना चाहते हैं, उसी तरह एकजुट होकर काम करना चाहते हैं। ऐसे में यदि हम फिर किसी सामूहिक कार्य में एक साथ शामिल हो जाते, तो शायद हमारी यह इच्छा पूरी होती रहती। लेकिन वैसा हो नहीं पाया। किसी एक समान उद्देश्य के लिए एक साथ आगे बढ़ने के बजाय हमारे काम की दिशाएँ अलग-अलग हो गयीं। हाँ, हमारा मिलना-जुलना बना रहा। 

यदि हम भावुक हों, तो किसी पुराने मित्र से मिलने जाते समय हम वैसे ही भाव मन में लेकर जाते हैं, जो उससे मिलते समय वर्षों पहले हमारे मन में होते थे। लेकिन हम पाते हैं कि उससे मिलकर हमें ठेस लगी है और हम कहते हैं--अरे, वह तो एकदम बदल गया है। वह बदलाव हमें अच्छा नहीं लगता। हम दुखी हो जाते हैं। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। कुछ लोग होते हैं, जिनसे हम चाहे जितने समय बाद मिलें, हमें नहीं लगता कि वे बदल गये हैं। ऐसा केवल दो स्थितियों में हो सकता है--या तो हम दोनों भावुकता में जीने वाले अतीतजीवी हों और हमारा बौद्धिक विकास समान रूप से रुका रहा हो, अथवा हम दोनों बौद्धिकता के साथ अपने वर्तमान को समझते हुए जीने वाले हों और हमारा बौद्धिक विकास एक-दूसरे को जानते-समझते हुए समान रूप से हुआ हो। लेकिन ऐसा आदर्श जोड़ बहुत कम देखने में आता है। गड़बड़ी सबसे ज्यादा वहाँ होती है, जहाँ दोनों में एक व्यक्ति भावुक हो और दूसरा बौद्धिक। बौद्धिक व्यक्ति जीवन में आने वाले बदलाव को समझता हुआ अपने पुराने संबंधों को नयी नजर से देखता है और उन्हें बदलना चाहता है, जबकि भावुक व्यक्ति पुराने संबंधों को पुरानी नजर से ही देखता है और उन्हें उसी रूप में देखते रहना चाहता है। 

मेरे और तुम्हारे बीच यही हुआ है। मैं स्वीकार कर लूँ कि शुरू के दिनों में मैं भी तुम्हारी तरह भावुक था। हाँ, इतना नहीं। शायद उस भावुकता के लिए मेरी परिस्थितियाँ भी जिम्मेदार थीं, क्योंकि उस समय मैं अकेला था और उस छोटे शहर में घरेलू जिम्मेदारियों से मुक्त छात्र जीवन जीते समय उस प्यार करने वाली उम्र में वह भावुकता शायद जायज भी थी। या कम से कम अस्वाभाविक नहीं थी। लेकिन फिर मैं इस महानगर में आ गया। आजीविका संबंधी तमाम समस्याएँ मेरे जीवन में आ गयीं। मेरी शादी हो गयी। बच्चे हो गये। नये-नये लोगोें से मेरा परिचय हुआ। मैं एक नयी विचारधारा के संपर्क में आया, जिसने मुझे ऐसा झकझोरा कि मेरे बहुत-से पुराने विचार और विश्वास बदल गये। मेरा लेखन बदल गया। संक्षेप में, मैं काफी बदल गया। बदले तुम भी। अपने छोटे और प्यारे शहर से इस बड़े और अजनबी शहर में आये, नौकरी की, व्यवस्थित हुए, अपना निजी जीवन शुरू किया, लेकिन... 

तुम्हें याद है, अपनी नौकरी के कुछ दिन बाद ही तुम्हें लगने लगा था कि सब लोग बदल गये हैं? लोग सचमुच बदल गये थे। बदलते ही हैं। बदलना ही है। बदलना जीवन का नियम है। और जीवन हमें इसीलिए इतना प्रिय भी होता है कि वह बदलता रहता है। लेकिन तुमने अपने और दूसरों के जीवन में आये परिवर्तनों को समझने की कोशिश नहीं की। तुम्हें लगा, दूसरे ही बदलते हैं; तुम नहीं बदलते, तुम वही हो। लेकिन जब हम यह मान लेते हैं कि हम वही हैं, तो दूसरे सब और भी ज्यादा बदले हुए लगने लगते हैं। दरअसल, तब हम स्वयं को अपरिवर्तित मानते हुए अपने अतीत से प्यार कर रहे होते हैं और इस अतीत में जिन लोगों से हमने प्यार किया होता है, उनसे उसी रूप में प्यार करते और उसी रूप में उनसे प्यार पाते रहना चाहते हैं। उन लोगों की एक प्रिय प्रतिमा हमारे मन में बनी होती है और उस प्रतिमा में किसी प्रकार का परिवर्तन हमें उसमें आयी हुई विकृति जैसा लगता है। अपने मन की उस प्रतिमा को हम बाहर भी उसी अविकृत रूप में देखना चाहते हैं। यही भावुकता है। यह सोचने का अबौद्धिक-अतार्किक ढंग है। सारी गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है। अपनी भावुकता में हम भूल जाते हैं कि हमारे मन में बनी प्रतिमा में और यथार्थ व्यक्ति में अंतर है। और जब ऐसा होता है कि वह अंतर हमें बाहर तो नजर आता है, पर हमारा मन उसे स्वीकार नहीं करना चाहता, तो हमारा पहला काम यह होना चाहिए कि हम इस अंतर्विरोध को समझें और अपने-आप को बदले हुए यथार्थ के साथ एडजस्ट करें। लेकिन यह बुद्धि का काम है और हमारी भावुकता बुद्धि को यह काम करने से रोकती है। 

अकेलेपन, अजनबीपन, संबंधों की निरर्थकता, जीवन के ऊलजलूलपन आदि की बातें यहीं से पैदा होती हैं और उन बातों में हम जितने उलझते जाते हैं, उतनी ही यथार्थ की पकड़ हमसे छूटती जाती है। और तब यदि कोई हमें कोंचकर यथार्थ दिखाना चाहता है, तो हम क्षुब्ध हो उठते हैं। तर्क और बुद्धि का मजाक उड़ाते हुए हम दूसरों की ‘दुनियादारी’ से चिढ़ने लगते हैं। तब हम सारी बातें भावनाओं से कहना और समझना चाहते हैं। शब्द हमें व्यर्थ लगने लगते हैं और हम शब्दों के अर्थ समझने के बजाय बोलने वाले के आशय को भाँपने लगते हैं (जो पुनः एक अबौद्धिक काम है) और तब हमारे लिए आंगिक चेष्टाएँ तथा चेहरे पर आने वाले भाव अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं--अपने भी और दूसरों के भी। शब्दों के प्रति अविश्वास हमारे मन में घर कर जाता है और भाषा हमारे लिए व्यर्थ होने लगती है। तभी हम अपने संबंधों को पुनर्परिभाषित करने और उन्हें नया नाम देने से कतराने लगते हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी, कैसा भी मानवीय संबंध भाषा में व्यक्त हुए बिना, यदि वह हो भी तो अस्तित्वहीन है। मानवीय संबंधों का जन्म ही भाषा के साथ हुआ है। अतः स्नेह संबंधों में भाषा के इस्तेमाल को फालतू मानना और मौन से बातों को समझाने की कोशिश करना सारे मानवीय विकास को अँगूठा दिखाकर बहुत पीछे, आदिम पशुवत जीवन-स्थिति में लौट जाना होगा। अगर तुम्हें याद हो, तुमने देखा होगा कि अकविता और अकहानी के दौर में बहुत-से हिंदी लेखक अपनी रचनाओं में उसी आदिम पशुवत जीवन-स्थिति की ओर लौटते मालूम होते थे। 

अपनी भावुकता में हम यह मान लेते हैं कि हमारे कोमल और जटिल भावों को व्यक्त करने की क्षमता भाषा में नहीं है, लेकिन वास्तव में उस समय हम अपने और अपने आसपास की चीजों के बदलते हुए संबंधों को नये नाम देने की जरूरत महसूस कर रहे होते हैं। बौद्धिक व्यक्ति के लिए यह एक चुनौती होती है, वह इस चुनौती को स्वीकार करता है और यदि उसे अपनी भाषा में इन संबंधों को नये नाम देने के लिए उचित शब्द नहीं मिलते, तो वह नये शब्द गढ़ता है, नयी भाषा का आविष्कार करता है। भाषा का विकास इसी तरह होता है। और साहित्य इसीलिए तो हर युग में नया होता हुआ विकसित होता रहता है। लेकिन भावुक लोग इस चुनौती को स्वीकार करने के बजाय पुरानी भाषा में ही अपने-आप को अभिव्यक्त करने की कोशिश करते हैं और जब इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पाते, तो भाषा को अक्षम बताकर मौन में सार्थकता खोजते हैं। 

तब हमें बात करना नहीं, खामोश रहना अच्छा लगता है और हम चाहने लगते हैं कि अगर हम खामोश बैठे हैं, तो दूसरे भी खामोश बैठें। हमें प्रायः महसूस भी नहीं होता और हमारी इच्छाएँ हमारे लिए सर्वोपरि होती जाती हैं। तब हम चाहते हैं कि हम हँसें तो सारी दुनिया हँसे, हम उदास हों तो सारी दुनिया उदास हो जाये, हम कोई काम करें तो हमसे संबंधित सारे लोग उस काम में हिस्सा लें, हम निष्क्रिय हो जायें तो सारे लोग हमारी तरह निष्क्रिय हो जायें। मगर जब ऐसा नहीं होता, क्योंकि ऐसा हो नहीं सकता, तो दुनिया हमें बड़ी गलत, क्रूर और बेईमान दिखायी देने लगती है। लगता है, जैसे हम एक तरफ हैं और बाकी सारी दुनिया दूसरी तरफ। हमारा अतीतजीवी होना हमारी इस धारणा को और पुष्ट करता है। हम सोचते हैं--यदि हम पहले सही थे, और इसका प्रमाण यह कि बहुत-से लोग हमारे साथ थे और हमें सही कहते थे, और आज भी हम वही हैं, तो सही क्यों नहीं हैं? और यदि हम सही हैं और नहीं बदले हैं, तो दूसरे जो बदल गये हैं, निश्चय ही गलत हैं। (भावुकता की भी अपनी एक तर्क-पद्धति होती है, जो अपने-आप को जस्टीफाइ करने के लिए इस्तेमाल की जाती है।) 

ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि हम दूसरों में आये हुए परिवर्तन को गलत या अनैतिक मानने लगें। लेकिन भावुकता में नैतिकता का मानदंड भावुक व्यक्ति स्वयं होता है, क्योंकि वह खुद को ही सही मानता है और बाकी सबको गलत। अधिक से अधिक वह उन्हीं को सही मान सकता है, जो उसी जैसे हों या उसका समर्थन करते हों। कोई वस्तुपरक मानदंड न होने के कारण वह भावना पर आधारित अपनी उस अबौद्धिक तथा अवैज्ञानिक तर्क-पद्धति को ही आगे बढ़ाता जाता है और बढ़ाते-बढ़ाते एक पूरा व्यक्तिपरक नीतिशास्त्र गढ़ लेता है। दुर्भाग्य से वह अपने द्वारा गढे़ गये उस नीतिशास्त्र में विश्वास भी करने लगता है। यहाँ तक कि उसे लगने लगता है कि उसकी तर्क-पद्धति और उसका अपना नीतिशास्त्र सर्वमान्य है। 

लेकिन किसी का निजी नीतिशास्त्र दूसरों पर कैसे लागू हो सकता है? और जब वह लागू नहीं होता, तो उसके आधार पर दूसरों को गलत, बुरा या बेईमान कैसे कहा जा सकता है? मगर भावुक व्यक्ति की यह विशेषता होती है कि अपनी बनायी नैतिकता का वह खुद जितनी सख्ती से पालन करता है (और अपनी इस कोशिश में वह इतना ‘ईमानदार’ होता है कि दोस्त, प्रेमिका या देश के लिए सचमुच प्राण दे सकता है!), उतनी ही सख्ती से उसका पालन वह दूसरों से कराना चाहता है। और जब दूसरे उसका पालन नहीं करते, तो उसे बेइंतिहा गुस्सा आता है। (और अपने इस गुस्से में वह इतना ‘ईमानदार’ होता है कि दूसरों की बेईमानी बर्दाश्त न कर पाने के कारण उनकी हत्या तक कर डालता है!) दोनों तरह के पचासों उदाहरण तुम्हें मिल जायेंगे। लेकिन यहाँ सोचने की बात यह है कि अबौद्धिक-अवैज्ञानिक चिंतन के कारण एक बलिदानी और एक हत्यारे में कितना कम फर्क रह जाता है। उत्कट प्रेम करने वाले प्रेमी-प्रेमिका और एक-दूसरे पर जान देने वाले दोस्त क्यों कभी-कभी एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं? इस सवाल का जवाब उनकी भावुकता या अबौद्धिकता में ही मिल सकता है। शादी के बाद अनेक प्रेम-विवाहों के असफल हो जाने का कारण अक्सर यह होता है कि प्रेमी से दंपती बन चुके दो व्यक्ति शादी के बाद बदले हुए अपने संबंधों को बौद्धिक ढंग से स्वीकारने के बजाय प्रेम के पुराने संबंध को ही जीने की कोशिश करते हैं। प्रेम-प्रसंगों में हत्याएँ और आत्महत्याएँ प्रायः किसी एक की भावुकताजन्य नैतिकता के कारण होती हैं, जिसे वह दूसरे पर भी लागू करना चाहता है। 

राजनीति में इस प्रवृत्ति का सबसे बड़ा उदाहरण हिटलर है। फासिज्म आखिर क्या है? अबौद्धिक, अतार्किक, अवैज्ञानिक चिंतन से पैदा हुई विचारधारा, जिसको मानने वाले एक खास तरह की नैतिकता के कट्टर समर्थक और पालनकर्ता होते हैं। यद्यपि वह नैतिकता उनकी अपनी होती है, जिसे वे बलपूर्वक दूसरों से मनवाते हैं और जो लोग उसे मानने से इनकार करते हैं, उन्हें वे खत्म कर देते हैं। बुद्धि से काम न लेकर भावना से काम लेने वाले फासिस्टों को अपने देश में देखना हो, तो जनसंघियों को देख लो। जनसंघी लोग नैतिकता और उच्चचरित्रता की दुहाई देते मिलेंगे, पर उनकी नैतिकता है क्या? वे सारे मूल्य, जो शोषण पर आधारित समाज-व्यवस्था को बनाये रखने में सहायक हों। लेकिन जिनका शोषण हो रहा है और जो शोषण से मुक्त होना चाहते हैं, वे उस नैतिकता को कैसे स्वीकार कर लें? वे तो उसके विरुद्ध आवाज उठायेंगे। जनसंघियों को यह बर्दाश्त नहीं। यही कारण है कि देश के नाम पर प्राण देने को तैयार जनसंघी देश की करोड़ों शोषित जनता के दमन का कट्टर समर्थक बन जाता है। यही नहीं, उस दमन में वह खुद दमनकारी शक्तियों का साथ देता है। तुमने सुना होगा कि जनसंघी लोग अक्सर जनता के चारित्रिक पतन की बात किया करते हैं और उसके चारित्रिक उत्थान के लिए हिटलर जैसे किसी डिक्टेटर की जरूरत पर जोर दिया करते हैं। 

भावुक व्यक्ति जनसंघी या फासिस्ट न हो, तो भी वह समाजवादी नहीं हो सकता। कारण यह है कि समाजवाद एक वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित जीवन-दर्शन है और उसमें अबौद्धिकता के लिए गुंजाइश नहीं है। दूसरे, समाजवादी होने के लिए प्रगतिशील होना जरूरी है, लेकिन भावुकता इसके विपरीत हमें प्रतिगामी बनाती है। प्रगतिशील व्यक्ति के लिए जो परिवर्तन सामाजिक प्रगति और उन्नति का सूचक है, प्रतिगामी व्यक्ति के लिए वही परिवर्तन बेईमानी या चारित्रिक पतन की निशानी है। अब तुम्हीं सोचो, जो आदमी परिवर्तन को ही गलत मानता है, वह किसी महत् और व्यापक परिवर्तन (क्रांति) से अपना तालमेल कैसे बिठायेगा? 

तुमने लेखक और लेखन के बारे में कुछ धारणाएँ बना रखी हैं या जाने-अनजाने दूसरों से लेकर अपना रखी हैं। उनमें से एक प्रमुख धारणा यह है कि लेखक को राजनीति से दूर रहना चाहिए। यदि वह पहले अराजनीतिक था और अब राजनीतिक हो गया है, तो उसमें आया यह परिवर्तन अनुचित और अनैतिक है। तुम अपनी इसी धारणा के आधार पर मुझ में आये परिवर्तन को अनुचित और अनैतिक मानते हो। 

इसी से जुड़ी हुई एक और धारणा यह है कि लेखक यदि क्रांति की बात करता है, मजदूरों और किसानों के पक्ष से उनके बारे में लिखता है, तो उसे नौकरी, गृहस्थी और साहित्य-वाहित्य छोड़कर क्रांति ही करनी चाहिए। उसे अपना सुख-सुविधासंपन्न जीवन त्यागकर मजदूरों और किसानों के बीच जाकर रहना चाहिए। उन्हीं का-सा खाना-पहनना चाहिए। और जो लेखक ऐसा नहीं करता, वह झूठा है, बेईमान है, अनैतिक है। 

लेकिन ये धारणाएँ तर्कसंगत या बुद्धिसंगत नहीं, नितांत अतार्किक और अबौद्धिक हैं, जो आदमी को भावुक और कुतर्की बनाती हैं। भावुक और कुतर्की व्यक्ति भावना के आधार पर अपने मन में क्रांति और क्रांतिकारियों की एक काल्पनिक तस्वीर बना लेता है और मानने लगता है कि उसके मन में बनी हुई तस्वीर ही सच है। तुम मुझे एक ऐसा आदमी समझते हो, जो क्रांतिकारी बनता है, लेकिन है नहीं; जो कुछ करता नहीं, सिर्फ बातें बनाता है। यानी एक ऐसा आदमी, जिसकी कथनी और करनी में फर्क है; जो झूठा और बेईमान है। लेकिन मैंने कब तुमसे कहा कि मैं क्रांतिकारी हूँ? मैं क्रांति चाहता हूँ, क्योंकि शोषण, दमन और अन्याय पर टिकी वर्तमान व्यवस्था की जगह मैं भविष्य की एक बेहतर व्यवस्था चाहता हूँ। ऐसी इच्छा या कामना मेरे मन में, तुम्हारे मन में, किसी के भी मन में हो सकती है और जब वह मन में होती है, तो वाणी में व्यक्त भी होती है। मैं लेखक हूँ, सो मेरे लेखन में मेरी यह इच्छा या कामना व्यक्त होती है। कभी वर्तमान व्यवस्था की आलोचना के रूप में, तो कभी भविष्य की बेहतर व्यवस्था की परिकल्पना के रूप में। लेकिन इससे तुम यह निष्कर्ष कैसे निकाल सकते हो कि मैं क्रांति की बात करता हूँ, तो मुझे प्रोफेशनल क्रांतिकारी होना चाहिए, जो कि मैं नहीं हूँ? 

दरअसल, तुम अपना प्रिय मित्र और आदर्श व्यक्ति मुझे नहीं, मेरी उस काल्पनिक छवि को मानते हो, जो भावुकतावश तुमने अपने मन में बना ली है। उसके अनुसार तुम मुझे जैसा देखना चाहते हो, वैसा मैं नहीं दिखता हूँ, बिलकुल बदल गया लगता हूँ, तो तुम्हें बुरा लगता है और मुझ पर गुस्सा आता है। मैं तुम्हें समझाने की कोशिश करता हूँ, तो तुम मुझे गलत और स्वयं को सही ठहराने लगते हो। तुम यह मानते ही नहीं कि कुछ भी और कोई भी हमेशा सही या हमेशा गलत नहीं होता। तुम स्वयं को हमेशा सही समझते हो, लेकिन अपने-आप को हमेशा सही कहने वाला तो कोई हिटलर ही हो सकता है। (तुम्हें पता है, हिटलर ने अपने बारे में क्या प्रचार कराया था? यह कि हिटलर हमेशा सही होता है।) 

तो, मेरे और तुम्हारे बीच इस बात का फैसला कैसे हो कि कौन सही है और कौन गलत? इस बात का फैसला भावुकतापूर्ण  ढंग से नहीं, यथार्थवादी तरीके से ही हो सकता है। मेरे और तुम्हारे बीच अगर कोई वास्तविक निर्णायक है, तो वह है यथार्थ, जो निरंतर स्वयं तो बदलता ही है, मुझे और तुम्हें भी बदलता है। लेकिन यथार्थ ही हमें नहीं बदलता, हम भी यथार्थ को बदलते हैं। हमारे उस बदलाव की दिशा यदि प्रतिगामी न होकर प्रगतिशील है, मनुष्य और समाज को बेहतर भविष्य की ओर ले जाने वाली है, तो हम सही हैं, अन्यथा गलत। मेरे और तुम्हारे बीच सही-गलत की कसौटी यही हो सकती है।