Wednesday, May 30, 2012

हिंदी में विज्ञान कथाओं का अभाव : कुछ प्रचलित भ्रमों का निराकरण


हिंदी में विज्ञान लेखन बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही शुरू हो गया था और तब से अब तक बराबर किया जाता रहा है। हिंदी में वैज्ञानिक विषयों पर लिखने वाले कम नहीं हैं। उनमें से कई लेखक समय-समय पर विज्ञान कथाएँ भी लिखते रहे हैं। लेकिन कठिनाई यह है कि हिंदी में विज्ञान कथाओं को साहित्य और उनके लेखकों को साहित्यकार नहीं माना जाता। इसीलिए हिंदी में लिखी गयी विज्ञान कथाएँ चर्चित, प्रतिष्ठित और पुरस्कृत होकर साहित्य और समाज में स्वीकृत नहीं हो पातीं। कहीं से कोई प्रोत्साहन न मिलने पर वे लेखक भी, जो अच्छी विज्ञान कथाएँ लिख सकते हैं, इस तरफ से उदासीन हो जाते हैं। पश्चिमी देशों में विज्ञान और साहित्य निकट आये हैं, लेकिन हमारे यहाँ उनके बीच अलगाव और दूरी की स्थिति बनी हुई है।

अंग्रेजी वैज्ञानिक और साहित्यकार सी.पी. स्नो ने अपनी किताब ‘टू कल्चर्स’ (1959) में विज्ञान और मानविकी के क्षेत्रें में काम करने वाले लोगों के बारे में लिखा था कि ये दोनों मानो दो अलग-अलग दुनियाओं में रहते हैं, जबकि दोनों की दुनिया एक ही है और उस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए दोनों को निकट आकर परस्पर संवाद ही नहीं, मिल-जुलकर काम भी करना चाहिए।

सी. पी. स्नो की बात काफी हद तक सही थी, लेकिन अपनी बात पर जोर देने के लिए शायद उन्होंने थोड़ी अतिशयोक्ति कर दी थी। विज्ञान और मानविकी के क्षेत्रों में भिन्नता तो है, पर ऐसा अलगाव शायद ही कभी रहा हो कि दोनों क्षेत्रों के लोग एक-दूसरे से अलग और अप्रभावित अपनी-अपनी दुनियाओं में रहते हों। आधुनिक साहित्य की तो विशेषता ही यह है कि वह उत्तरोत्तर अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता गया है। विज्ञान भी साहित्य के प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। यदि साहित्य में उसके प्रभाव से भावुकता कम हुई है, तथ्यपरकता और यथार्थपरकता बढ़ी है, तो विज्ञान में भी मानवीय संवेदना, नैतिकता और सुंदरता पर ध्यान दिया जाने लगा है। उदाहरण के लिए, बर्टोल्ट ब्रेश्ट का नाटक ‘गैलीलियो का जीवन’ साहित्य और विज्ञान की निकटता का सूचक था, तो इस नाटक पर सोवियत संघ के वैज्ञानिकों के बीच जो व्यापक बहस हुई थी, वह विज्ञान और साहित्य की निकटता का प्रमाण थी। (यह बहस सोवियत संघ से 1975 में रूसी से अंग्रेजी में अनूदित होकर आयी पुस्तक ‘साइंस एंड मॉरेलिटी’ में छपी थी।)

इसलिए यह मानकर चलना ठीक नहीं कि विज्ञान और साहित्य में जो अलगाव आज दिखायी देता है, उसे दूर नहीं किया जा सकता। मुझे लगता है कि यह मान्यता कुछ भ्रमों पर आधारित है और वास्तविकता को समझने के लिए उन भ्रमों का निराकरण जरूरी है।

एक बड़ा भ्रम यह है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी एक ही चीज है। बहुत-से लोग यह समझते हैं कि फोन, फ्रिज, टी.वी., कार, कंप्यूटर वगैरह ही विज्ञान है और इन चीजों के साथ जीना ही मानो वैज्ञानिक ढंग से जीना है। साहित्य को अपने ही जिये-भोगे की अभिव्यक्ति मानने वाले लोग इस समझ के आधार पर कहते हैं कि वैज्ञानिक ढंग से जिये बिना विज्ञान कथाएँ नहीं लिखी जा सकतीं। उन्नत देशों की प्रौद्योगिकी इतनी आगे बढ़ गयी है कि वहाँ का लेखक उसके साथ जीते हुए उसके बारे में आसानी से लिख सकता है, पर हम तो इस दृष्टि से बहुत गरीब और पिछड़े हुए हैं। हम कैसे वैज्ञानिक ढंग का ऐसा जीवन जी सकते हैं कि उसके अनुभवों से विज्ञान कथाएँ लिख सकें? लेकिन यह एक भ्रम ही है। अभी तक किसी विज्ञान लेखक ने अंतरिक्ष यात्रा नहीं की, जबकि अंतरिक्ष यात्रा संबंधी विज्ञान कथाएँ अंतरिक्ष यानों के आविष्कार के पहले से लिखी जा रही हैं। दूसरी तरफ तमाम ‘आधुनिक’ और ‘वैज्ञानिक’ चीजों के साथ जीते हुए भी हमारा जीवन, चिंतन, लेखन और आचरण नितांत अवैज्ञानिक या विज्ञान-विरोधी हो सकता है। इसके उदाहरण हमारे ही देश में नहीं, प्रौद्योगिकी में बहुत आगे बढ़े हुए देशों में भी खूब मिल सकते हैं।

दूसरा बहुत बड़ा भ्रम यह है कि विज्ञान कथाएँ ‘साहित्य’ नहीं, ‘विज्ञान’ हैं, इसलिए उनको लिखना वैज्ञानिकों का या विज्ञान के क्षेत्र से संबंधित लोगों का काम है। यह भ्रम साहित्य के उन आलोचकों में ही नहीं पाया जाता, जो विज्ञान कथाओं को साहित्य में शुमार नहीं करते; बल्कि उन लेखकों में भी पाया जाता है, जो विज्ञान कथाओं के लेखन को ‘साहित्यिक’ लेखन से भिन्न और भिन्न प्रकार के लेखकों द्वारा किया जाने वाला कार्य समझते हैं। इस भ्रम से मुक्त होने के लिए जहाँ एक तरफ यह जरूरी है कि हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी में फर्क करेंµयानी प्रौद्योगिकी को ही विज्ञान समझ लेने की भूल न करेंµवहीं दूसरी तरफ इस तथ्य को अच्छी तरह हृदयंगम कर लेना भी जरूरी है कि विज्ञान का संबंध वैज्ञानिकों या विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने वालों से ही नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य से है। उदाहरण के लिए, कलम से कागज पर कहानी लिखने वाला लेखक यदि कंप्यूटर पर लिखने लगे, तो इसी बात से वह विज्ञान कथा लिखने में समर्थ नहीं हो जायेगा और विज्ञान की विधिवत शिक्षा पाये बिना या स्वयं वैज्ञानिक हुए बिना भी कोई सर्जनात्मक लेखक स्वाध्याय इत्यादि के जरिये विज्ञान से स्वयं को इस तरह जोड़ सकता है कि वह मौलिक वैज्ञानिक चिंतन और लेखन कर सके।

तीसरा और सबसे बड़ा भ्रम, जो बहुत पहले से चला आ रहा है, यह है कि साहित्य ‘कला’ है, ‘शास्त्र’ नहीं। ऐसा मानने वाले लोग साहित्य को कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना या हद से हद नाटक तक ही सीमित समझते हैं और यह मानते हैं कि ‘साहित्य’ दिमाग से नहीं, दिल से लिखी जाने वाली चीज है। उसमें थोड़ी बौद्धिकता तो हो सकती है, थोड़ी-बहुत होनी भी चाहिए, लेकिन उसे पढ़ने-समझने-सराहने के लिए किसी और ‘शास्त्र’ का ज्ञान आवश्यक नहीं होना चाहिए।

विचित्र बात है कि ‘शास्त्र’ और ‘साहित्य’ को अलग और विपरीत मानने की प्रवृत्ति हिंदी साहित्य में दो भिन्न प्रकार के और परस्पर-विरोधी विमर्शों में दिखायी देती है। एक ओर वे लोग हैं, जो साहित्य को ‘‘जन-जन तक पहुँचाने लायक’’ बनाने के लिए ‘‘सरल’’ और ‘‘सबकी समझ में आने वाला’’ बनाने की बात करते हैं। वे साहित्य को ‘लोकप्रिय संगीत’ की तरह लोकप्रिय बनाने की बात करते हैंµफिल्मी गीतों वाले ‘लोकप्रिय संगीत’ की तरह लोकप्रियµजिसके बारे में उनका खयाल शायद यह होता है कि उसे सुनने-समझने-सराहने के लिए न कविता की समझ जरूरी है न संगीत की। अर्थात् जिस तरह हिंदी के फिल्मी गीतों को समझने-सराहने के लिए समाज, दर्शन या विज्ञान के ‘शास्त्रों’ की जानकारी जरूरी नहीं, उसी तरह काव्य और संगीत के ‘शास्त्रों’ की जानकारी जरूरी नहीं है।

दूसरी ओर वे लोग हैं, जो साहित्य को ‘शुद्ध’ रखने के लिए उसे ‘शास्त्रों’ के ‘‘आक्रमण से’’ या उनकी ‘‘शरण में जाने से’’ बचाने की बात करते हैं। उन्हें ‘लोकप्रिय’ अथवा ‘जनता का साहित्य’ नहीं चाहिए और वे साहित्य की ‘सोद्देश्यता’ में विश्वास नहीं करते। इसलिए साहित्य यदि बौद्धिक या अतिबौद्धिक होकर चंद लोगों के पढ़ने-समझने-सराहने की ही चीज बनकर रह जाये, तो भी उन्हें कोई परवाह नहीं। लेकिन ‘शास्त्रों’ से साहित्य को बचाना उन्हें भी जरूरी लगता है।

इस प्रकार हिंदी साहित्य में दो परस्पर-विरोधी विमर्श प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से विज्ञान कथाओं के लेखन को हिंदी साहित्य से बाहर ही रखना चाहते हैं। इनमें उस ‘यथार्थवादी’ विमर्श को भी जोड़ लिया जाये, जो कथासाहित्य में फैंटेसी या कल्पना को अच्छा नहीं समझता, तो विज्ञान कथाओं को हिंदी साहित्य में न आने देने के लिए एक मुकम्मल नाकाबंदी हो जाती है, क्योंकि फैंटेसी या कल्पना के बिना तो विज्ञान कथाएँ लिखी ही नहीं जा सकतीं।

अतः यदि हम हिंदी में विज्ञान कथाओं की कमी को वाकई दूर करना चाहते हैं, तो हमें हिंदी साहित्य के चालू विमर्शों से थोड़ा अलग हटकर सोचना होगा और कुछ नये प्रश्न उठाने होंगे। उदाहरण के लिए, यह प्रश्न कि क्या ‘लोकप्रिय’ अथवा ‘जनता का साहित्य’ दिमाग से नहीं, दिल से लिखा जाता है और ‘शास्त्र’ के स्पर्श से वह ‘‘सबकी समझ में आने लायक’’ नहीं रह जाता? विज्ञान कथाओं की भारी लोकप्रियता से तो इस प्रश्न का उत्तर मिलता ही है, फिल्मी गीतों या ‘लोकप्रिय संगीत’ की रचना करने वालों के अनुभवों से भी इस प्रश्न का उत्तर मिल सकता है। जो फिल्मी गीत वास्तव में लोकप्रिय होते हैंµअर्थात् चार दिन चलकर बेकार नहीं हो जाते, बल्कि जिन्हें हम बार-बार सुनना चाहते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी पसंद करते जाते हैंµउन पर गंभीरता से विचार करें, तो स्पष्ट होगा कि उनमें जो ‘अच्छा काव्य’ और ‘अच्छा संगीत’ है, वह काव्यशास्त्र और संगीतशास्त्र के ज्ञान के बिना संभव नहीं था। इतना ही नहीं, उन गीतों की रचना सिर्फ दिल से नहीं हुई थी, बल्कि उनमें काफी दिमाग भी लगा थाµऔर किसी एक का नहीं, बल्कि बहुत-से लोगों का दिमाग लगा था, जिनमें सब ‘कलाकार’ ही नहीं, कई ‘टेक्नीशियन’ भी थे।

इतना ही नहीं, उन संगीत रचनाओं की लोकप्रियता का रहस्य उनके श्रोताओं का काव्य या संगीत के शास्त्र-ज्ञान से शून्य होने में नहीं, बल्कि उनमें उस ज्ञान के होने में है। यह समझना भारी भूल है कि जनता या साधारण लोग, जिनमें अशिक्षित और शास्त्र-ज्ञान से वंचित लोग भी शामिल हैं, काव्य और संगीत के ज्ञान से शून्य होते हैं। परंपरा और निजी अनुभव से उन्हें यह विवेक प्राप्त होता है कि वे एक अच्छे फिल्मी गीत और एक बुरे फिल्मी गीत में फर्क कर सकें। हो सकता है, वे यह न बता सकें कि अमुक गीत में जो कविता है, उसमें काव्यशास्त्र के अनुसार कौन-से गुण या दोष हैं, लेकिन वे यह बता सकते हैं कि एक गीत के बोल दूसरे गीत से बेहतर हैं या बदतर। इसी तरह, हो सकता है, वे किसी राग का नाम न बता सकें, लेकिन वे यह अवश्य बता सकते हैं कि उस राग पर बना एक फिल्मी गीत उसी राग पर बने दूसरे फिल्मी गीत से बेहतर है या बदतर।

ठीक यही बात विज्ञान कथाओं के पाठकों पर लागू होती है। उन्हें मूर्ख या अज्ञानी समझकर उनके लिए ‘सरल’ या ‘सुबोध’ किस्म की विज्ञान कथाएँ लिखना दरअसल साहित्य को विकृत करना और पाठकों की समझ का अपमान करना है। बच्चों और नवसाक्षरों के लिए हिंदी में जो सरल-सुबोध किस्म की चीजें लिखी जाती हैं, वे प्रायः बहुत घटिया होती हैं। वे साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं, पाठकों की दृष्टि में भी कूड़ा ही होती हैं। दूसरी तरफ दुनिया की उत्कृष्ट और लोकप्रिय विज्ञान कथाओं के उदाहरण से इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है कि वे अपने पाठकों को मूर्ख या ज्ञानशून्य मानकर नहीं, बल्कि बुद्धिमान और ज्ञानवान मानकर लिखी जाती हैं। और यह बात केवल विज्ञान कथाओं के बारे में नहीं, बल्कि सभी प्रकार के साहित्य के बारे में सच है। अच्छी रचना हमेशा अपने पाठक, श्रोता या दर्शक को प्रबुद्ध मानकर चलती है और उसे मिलने वाला ‘रेस्पांस’ उसके ‘जजमेंट’ को सही साबित करता है।

साहित्य सिर्फ दिल से या सिर्फ दिमाग से कभी नहीं रचा जाता। उसकी रचना हमेशा ही संवेदना और बौद्धिकता के ऐसे अद्भुत मिश्रण से होती है, जिसमें कभी यह पता नहीं चलता कि कौन-से तत्त्व की मात्रा कितनी है। अतः देखना यह चाहिए कि विज्ञान कथाओं के लेखन के लिए संवेदना और बौद्धिकता का वह अद्भुत मिश्रण कैसे संभव है, जो अच्छी साहित्यिक रचना के लिए हमेशा आवश्यक रहा है।

मेरे विचार से हिंदी में अच्छी विज्ञान कथाओं का लिखा जाना तभी संभव है, जब एक वैज्ञानिक विमर्श हमारे जीवन का अभिन्न अंग हो। वैसे ही, जैसे बहुत-से नैतिक और सौंदर्यशास्त्रीय मूल्य हमारे जीवन के अभिन्न अंग होते हैं, चाहे हम उनके प्रति सचेत हों या न हों। लेकिन विमर्श भाषा में होता है, इसलिए भाषा की समस्या पर सबसे पहले ध्यान देना जरूरी है। आखिर क्यों हमारे देश में विज्ञान की उच्चस्तरीय पढ़ाई आजादी के इतने साल बाद भी हिंदी में न होकर अंग्रेजी में होती है? क्यों विज्ञान संबंधी सारा कामकाज अंग्रेजी में ही होता है? और क्यों विज्ञान संबंधी ज्यादातर लेखन अंग्रेजी में ही होता है?

हिंदी में विज्ञान कथाएँ लिखना चाहने वाले लेखक के सामने सबसे बड़ी समस्या भाषा की होती है। जिन चीजों को उसने अंग्रेजी के माध्यम से ही जाना और सोचा-समझा है, उन्हें वह हिंदी के माध्यम से कैसे व्यक्त करे? यदि वह सारी शब्दावली और अभिव्यक्तियाँ अंग्रेजी से लेता है, तो उसे लगता है, इससे तो बेहतर है कि वह सीधे अंग्रेजी में ही लिखे। और यदि वह अंग्रेजी की शब्दावली और अभिव्यक्तियों का शब्दकोश की सहायता से हिंदी में अनुवाद करता है, तो भाषा में वह सहजता नहीं रहती, जो साहित्यिक रचना की अनिवार्य शर्त है।

इस समस्या का समाधान यही है कि हिंदी में विज्ञान कथाओं के लेखन के लिए समाज में ऐसा वातावरण बनाया जाये, जैसा किसी भी विषय से संबंधित सर्जनात्मक लेखन के लिए जरूरी होता है। आजादी से पहले विज्ञान की पढ़ाई तो पूरी तरह अंग्रेजी में होती ही थी, हिंदी भी आज की तरह विकसित और समृद्ध भाषा नहीं थी। उस समय हिंदी में वैज्ञानिक विषयों पर लिखने वालों की और उनके लिखे हुए को प्रकाश में लाने वाले माध्यमों की भी बेहद कमी थी। फिर भी उस समय के लेखक वैज्ञानिक ज्ञान और उसके प्रचार-प्रसार को देश की आजादी और तरक्की के लिए जरूरी समझते थे। इसलिए उन्होंने हिंदी में एक ऐसा वैज्ञानिक विमर्श शुरू किया, जिसने विज्ञान संबंधी चिंतन, लेखन, पत्रकारिता और साहित्य को संभव बनाया। वैज्ञानिक साहित्य लिखने वाले जानते थे कि वे एक बड़े उद्देश्य के लिएµलोगों में वैज्ञानिकता की चेतना जगाने के लिए और उसके जरिये देश की आजादी और जनता की खुशहाली के लिएµलिख रहे हैं। पाठक भी उस साहित्य को इसी बड़े उद्देश्य को ध्यान में रखकर पढ़ते थे और उससे अपने जीवन के लिए उचित और आवश्यक प्रेरणाएँ ग्रहण करते थे।

आजादी के बाद हिंदी में सबसे बड़ी दुर्घटना शायद यही हुई कि साहित्यकारों ने पाठकांे को उचित और आवश्यक दिशाओं में प्रेरित करने के लिए लिखना और पाठकों ने ऐसी प्रेरणाएँ पाने के लिए साहित्य को पढ़ना कम कर दिया। लेखक समझने लगे कि लिखना प्रतिष्ठा, पैसा, पद, पुरस्कार आदि पाने का साधन है, तो पाठक समझने लगे कि पढ़ना मनोरंजन करने या वक्त काटने का साधन। ऐसी स्थिति में आजादी की लड़ाई के दौरान भारतीय साहित्य में जो वैज्ञानिक विमर्श शुरू हुआ था और जिसने हमारे बहुत-से भ्रमों तथा अंधविश्वासों से हमें मुक्त किया था, वह आजादी के बाद लगभग बंद हो गया। नतीजा यह हुआ कि विज्ञान ही नहीं, साहित्य भी जन-जीवन से दूर हो गया और दोनों के बीच आपस में भी एक ऐसा अलगाव पैदा हो गया, जिसने विज्ञान कथाओं की रचना को एक कठिन काम बना दिया।

आजादी के बाद एक और दुर्घटना घटी: हिंदी भाषा और विज्ञान लेखन को प्रोत्साहन देने के प्रयास तो हुए, सरकारी स्तर पर इस काम के लिए पैसा भी खूब बहाया गया, लेकिन वर्चस्व अंग्रेजी का ही बनाये रखा गया। नतीजा यह हुआ कि आजादी के बाद भारतेंदु युग का वह सूत्र कहीं बिला गया कि अपनी भाषा की उन्नति ही सभी प्रकार की उन्नतियों की जड़ होती है। आजादी के बाद उस जड़ को सींचने के बजाय उसमें मट्ठा डालने का काम ज्यादा किया गया। हिंदी वालों को खुश रखने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी दोनों स्तरों पर लेखकों को बड़े-बड़े पद और पुरस्कार दिये जाने लगे। उधर विज्ञान के प्रचार-प्रसार के नाम पर भी खूब पैसा बहाया गया। इस काम के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने कुछ काम भी किया, लेकिन जन-जीवन में वह ‘वैज्ञानिक मानसिकता’ पैदा नहीं की जा सकी, जिसकी वकालत हमारे देश के वैज्ञानिकों ने ही नहीं, बल्कि राजनीतिक नेताओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों आदि ने भी की थी। हालाँकि हिंदी में विज्ञान संबंधी कुछ पत्रिकाएँ निकलीं, हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञान संबंधी सामग्री प्रकाशित होने लगी और कई विज्ञान लेखक सामने आये, मगर विज्ञान की उच्चतर शिक्षा और शोध का माध्यम अंग्रेजी ही बनी रही। ऐसी स्थिति में कोई वैज्ञानिक विमर्श शुरू नहीं हो सकता था, जो हिंदी में विज्ञान संबंधी मौलिक चिंतन और सर्जनात्मक लेखन को प्रेरित-प्रोत्साहित करता।

दूसरी तरफ आजादी के बाद विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा पाकर विदेशों में जाकर बस जाना आसान हो गया, तो उच्च-मध्यवर्गीय माता-पिता अपने बच्चों को इसी उद्देश्य से विज्ञान की शिक्षा दिलाने लगे और अपने बच्चों के वहाँ जाकर बस जाने पर गर्व करने लगे। इस प्रकार भारतीय मध्यवर्ग के ऊपरी तबके में अपने देश और अपनी भाषा (वह हिंदी हो या कोई और भारतीय भाषा) के प्रति वह लगाव-जुड़ाव नहीं रह गया, जो आजादी से पहले था।

चूँकि ज्यादातर राजनेता, वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार आदि, जो मुखर बुद्धिजीवी होने के कारण समाज को दिशा और गति देते हैं, मध्यवर्ग के इसी तबके से आते हैं, इसलिए जब यह तबका अपने देश और अपनी भाषा की चिंता छोड़कर अपनी चिंता करने लगा, तो एक प्रकार की दिशाहीनता फैली, जो देश की विकास संबंधी नीतियों में आज भी दिखायी पड़ती है। ध्यान से देखें, तो यही वह तबका है, जो भारत में पूँजी के भूमंडलीकरण का सबसे बड़ा समर्थक है। भूमंडलीकरण के विचार ने मानो उसे अपने देश और अपनी भाषा के प्रति महसूस होने वाली रही-सही नैतिक जिम्मेदारी से भी मुक्त कर दिया है। उदाहरण के लिए, उसे जनता को यह बताना चाहिए था कि भारत में जब से आत्मनिर्भरता की नीति को त्यागकर निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियाँ अपनायी गयी हैं, तब से हम प्रौद्योगिकी के मामले में दूसरे देशों पर उत्तरोत्तर अधिक निर्भर होकर इस दिशा में अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता खोते जा रहे हैं। मगर क्या उसने ऐसा किया?

इस वर्ग के ज्यादातर लोगों के लिए उन्नति, प्रगति, विकास आदि सब चीजें मानो सार्वजनिक से व्यक्तिगत हो गयी हैं। उनके लिए अपनी और अधिक से अधिक अपने बच्चों की चिंता ही सब कुछ हो गयी है, जबकि यह नितांत अवैज्ञानिक विचार है, जो व्यक्ति को समाज, प्रकृति, पर्यावरण और संपूर्ण मनुष्यता का शत्रु बनाते हुए सबसे पहले उसी की मनुष्यता को नष्ट करता है।

भारत के शासक वर्ग का प्रयास रहा है कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ समाज में कोई वैज्ञानिक विमर्श चलाने में समर्थ न हो पायें। इसके पीछे कौन-से कारक या कारण हैं, इसकी पूरी जाँच-पड़ताल अभी नहीं हुई है, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि हिंदी को इस मामले में असमर्थ बनाये रखने की एक कोशिश बराबर की जाती रही है। यह तो हिंदी की अपनी ताकत है कि वह तमाम उपेक्षाओं और अवरोधों-प्रतिरोधों के बावजूद आगे बढ़ी है, समृद्ध हुई है और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का माध्यम बनने में समर्थ बनी है। हालाँकि स्वयं हिंदी के ही कई लेखक लगातार यह रोना रोते रहते हैं कि हिंदी में कुछ नहीं है और हिंदी का कोई भविष्य नहीं है, फिर भी हिंदी ऐसी घोषणाएँ करने वालों को अँगूठा दिखाती हुई आगे बढ़ रही है और अपना विकास कर रही है। अन्यथा हिंदी में इतने ज्यादा अखबार और उनके नित नये संस्करण कैसे निकल रहे होते? हिंदी में इतनी पत्रिकाएँ क्यों निकल रही होतीं? तमाम तरह के विषयों की इतनी सारी किताबें हिंदी में कैसे छप रही होतीं?

लेकिन हिंदी के बहुत-से लेखक इस वस्तुपरक यथार्थ को अनदेखा करते हुए यही राग अलापते जा रहे हैं कि हिंदी में कुछ नहीं है और कुछ नहीं हो सकता। वे देख रहे हैं कि हिंदी के अखबारों और पत्रिकाओं में तमाम तरह के विषयों पर तमाम तरह का लेखन हो रहा है, लेकिन उन्होंने मानो साहित्य के उसी कुएँ का मेंढक बने रहने का फैसला कर रखा है, जिसमें ‘‘अपने जिये-भोगे यथार्थ’’ के नाम पर लेखक अपने अत्यंत सीमित निजी अनुभवों को लेकर ही सारी उछल-कूद करते रहते हैं। लेकिन वह दिन दूर नहीं, जब हिंदी के पाठक कथासाहित्य के नाम पर लेखकों की आत्मकथाओं या अन्य लेखकों की जीवनियों से संतुष्ट नहीं हो पायेंगे और ऐसे बहुत-से नये लेखक पैदा हो जायेंगे, जो पाठकों को उनकी जरूरत का नया साहित्य उपलब्ध करायेंगे। उस नये साहित्य में विज्ञान कथाएँ भी अवश्य होंगी।

--रमेश उपाध्याय  

Monday, May 21, 2012

नये कहानीकार एक नया आंदोलन चलायें

कथाकार रमेश उपाध्याय से अशोक कुमार पांडेय की बातचीत

अशोक कुमार पांडेय : रमेश जी, आजकल हिंदी की पत्रिकाओं में जिस तरह युवा-आधारित विशेषांकों की लगभग होड़-सी दिखायी देती है, उसकी क्या वजहें हैं और क्या सचमुच उससे कुछ हासिल हो रहा है?

रमेश उपाध्याय : देखिए, अशोक जी, एक वजह तो एकदम प्रत्यक्ष है कि हिंदी साहित्य में लेखकों की एक नयी पीढ़ी आ गयी है। देखते-देखते एक साथ बहुत-से युवा रचनाकार सामने आ गये हैं और उन्हें सामने लाने में हिंदी की उन पत्रिकाओं की बड़ी भूमिका रही है, जिन्होंने युवा पीढ़ी पर केंद्रित विशेषांक निकाले हैं। हालाँकि उन्होंने ये विशेषांक न निकाले होते, तो भी ये रचनाकार देर-सबेर सामने आते ही, फिर भी एक साथ बहुत-से रचनाकारों को एक मंच पर ले आने से पाठकों का ध्यान उनकी तरफ जल्दी जाता है। इसे उन विशेषांकों की एक उपलब्धि कहा जा सकता है।

जहाँ तक युवा पीढ़ी पर केंद्रित विशेषांकों की लगभग होड़-सी दिखायी देने की बात है, मेरे विचार से उसके दो-तीन कारण हैं। एक तो यह कि प्रायः सभी पत्रिकाओं को--विशेष रूप से नियमित रूप से निकलने वाली मासिक पत्रिकाओं को--अपने पृष्ठ भरने के लिए सामग्री चाहिए। ढेर सारी सामग्री चाहिए और निरंतर चाहिए। आज हिंदी में हमेशा से कहीं ज्यादा बड़ी संख्या में पत्रिकाएँ निकल रही हैं। सामग्री प्राप्त करने के लिए उनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक होड़-सी हमेशा लगी रहती है। उनके संपादक लगातार इस कोशिश में रहते हैं कि अधिक से अधिक संख्या में लेखकों की रचनाएँ उन्हें निरंतर प्राप्त होती रहें। इसके लिए वे युवा लेखकों को पकड़ते हैं--अंग्रेजी के मुहावरे ‘कैच दैम यंग’ के अर्थ में भी--क्योंकि उनमें रचनात्मक ऊर्जा ज्यादा होती है और जल्दी से जल्दी प्रकाशित और प्रतिष्ठित हो जाने की ललक भी। इसमें युवा पीढ़ी विशेषांक बहुत सहायक होते हैं, जिनके जरिये एक साथ बहुत-से युवा रचनाकारों को पकड़ा जा सकता है और अपनी पत्रिका से जोड़ा जा सकता है।

दूसरा कारण यह है कि पहले से स्थापित प्रौढ़ लेखकों की रचनाएँ प्राप्त कर पाना कठिन होता है, क्योंकि एक तो वे लिखते कम हैं और दूसरे वे हर किसी पत्रिका में नहीं लिखते। इस कारण उनसे अच्छी रचनाएँ निरंतर प्राप्त करते रहना संपादकों के लिए मुश्किल होता है। पाठक भी प्रौढ़ और प्रसिद्ध लेखकों से अच्छी रचनाओं की अपेक्षा करते हैं और अपेक्षा पूरी न होने पर पत्रिका से कटने लगते हैं। ऐसी स्थिति में संपादकों को युवा पीढ़ी के लेखकों को अधिक से अधिक संख्या में अपनी पत्रिका से जोड़ना जरूरी लगता है। युवा लेखक उत्साहपूर्वक और भरपूर रचनात्मक सहयोग देते हैं, इसलिए एक तो संपादकों को पत्रिका के लिए सामग्री की कमी नहीं रहती और दूसरे, उनकी कच्ची-पक्की रचनाओं को भी यह कहकर छापा जा सकता है कि ये अभी नये हैं, लिखना सीख रहे हैं, इसलिए इनकी रचनाओं में कच्चापन या अधकचरापन होना स्वाभाविक है। पत्रिका के पाठक भी युवा लेखकों की रचनाओं को एक प्रकार का ‘कंसेशन’ देते हुए पढ़ते हैं और उनसे वैसी अपेक्षाएँ नहीं रखते, जैसी प्रौढ़ लेखकों से की जाती हैं। इस प्रकार युवा पीढ़ी विशेषांक निकालने वाले संपादक को एक तरफ अपनी पत्रिका के लिए ढेर सारी रचनाएँ मिल जाती हैं और दूसरी तरफ युवा पीढ़ी को सामने लाने के श्रेय के साथ-साथ उसे स्तरहीन रचनाएँ प्रकाशित करने का ‘लाइसेंस’ भी मिल जाता है।

तीसरा कारण राजनीतिक है। प्रौढ़ और प्रसिद्ध लेखकों की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई न कोई राजनीति होती है। पत्रिकाओं के संपादक उनसे अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने वाली रचनाएँ नहीं लिखवा सकते। इसलिए वे युवा लेखकों को अपनी ओर खींचते हैं और उन्हें अपनी राजनीति या विचारधारा के अनुसार ढालने का प्रयास करते हैं। व्यावसायिक पत्रिकाएँ राजनीति से ऊपर उठकर काम करने का दिखावा करती हैं, लेकिन उनकी भी अपनी कोई न कोई राजनीति अवश्य होती है। उनमें लिखने वाले युवा लेखक जाने-अनजाने उसी राजनीति में ढल जाते हैं। यह अकारण नहीं है कि ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ के माध्यम से जो युवा कहानीकार सामने आये हैं, वे या तो हर तरह की राजनीति के खिलाफ हैं, या विशेष रूप से वाम राजनीति के खिलाफ। फिर, सफल होने के लिए बाजार की शर्तों पर लिखना अराजनीतिक लगते हुए भी एक प्रकार का राजनीतिक लेखन करना है। कुछ लघु पत्रिकाएँ घोषित रूप से प्रगतिशील या जनवादी पत्रिकाएँ हैं और उनकी राजनीति स्पष्ट है। लेकिन युवा लेखकों को अपनी ओर खींचने के लिए उनके संपादक भी नयी पीढ़ी के लेखकों द्वारा लिखी जा रही प्रगतिशील या जनवादी कहानी के विशेषांक नहीं निकालते, बल्कि ‘युवा पीढ़ी’ की कहानी के विशेषांक ही निकालते हैं। उदाहरण के लिए, ‘प्रगतिशील वसुधा’ के दो खंडों में निकले कहानी विशेषांक को आवरण पर भले ही ‘युवा कहानी विशेषांक’ के बजाय ‘समकालीन कहानी विशेषांक’ कहा गया हो, पर उनमें छपे ज्यादातर लेखक वही थे, जो अन्य पत्रिकाओं के युवा पीढ़ी विशेषांकों में छपे थे। ‘प्रगतिशील वसुधा’ में भी उन्हें युवा कथाकार या युवा पीढ़ी के कहानीकार ही कहा गया। यहाँ तक कि उनके द्वारा लिखी जा रही कहानी को भी ‘युवा कहानी’ कहा गया! संपादक कमला प्रसाद ने लिखा कि ‘‘प्रगतिशील वसुधा के ये दोनों अंक युवा कहानी पर केंद्रित हैं।’’ अर्थात् प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका के इस विशेषांक में लेखकों या उनकी कहानियों पर प्रगतिशील होने की शर्त नहीं लगायी गयी है!

अशोक कुमार पांडेय : ‘युवा’ को आप कैसे परिभाषित करेंगे?

रमेश उपाध्याय : कई साल पहले, जब मेरी गिनती नयी पीढ़ी के लेखकों में होती थी, मैंने ‘पहल’ में एक लेख लिखा था ‘हिंदी की कहानी समीक्षा: घपलों का इतिहास’। उसमें मैंने हिंदी कहानी को नयी, पुरानी, युवा आदि विशेषणों वाली पीढ़ियों में बाँटकर देखने की प्रवृत्ति का विश्लेषण किया था। इस प्रवृत्ति से दो भ्रांत धारणाएँ पैदा हुई थीं, जो कमोबेश आज तक भी चली आ रही हैं। एक तो यह कि हिंदी कहानी बीसवीं सदी के प्रत्येक दशक में उत्तरोत्तर अपना विकास करती गयी है और दूसरी यह कि कहानीकारों की हर नयी पीढ़ी पूर्ववर्ती पीढ़ियों से बेहतर कहानी लिखती है। आज वही पीढ़ीवादी प्रवृत्ति पुनः प्रबल होती दिखायी पड़ रही है। इसलिए अपने उस लेख की कुछ बातें मैं आपको सुनाना चाहता हूँ। सुनाऊँ?

अशोक कुमार पांडेय : जरूर सुनाइए।

रमेश उपाध्याय : सुनिए, मैंने लिखा था--नयी पीढ़ी के नाम पर किये गये घपले में निहित आत्मप्रचारात्मक व्यावसायिकता की गंध आगे आने वाले लेखकों को भी मिल गयी। उनमें से भी कुछ लोगों ने खुद को जमाने के लिए अपने से पहले वालों को उखाड़ने का वही तरीका अपनाया, जो ‘नयी कहानी’ वाले कुछ लोग आजमा चुके थे। पीढ़ीवाद का यह घटिया खेल आज भी जारी है और उसे कुछ नयी उम्र के लोग ही नहीं, बल्कि कुछ साठे-पाठे भी खेलते देखे जा सकते हैं। बदनाम भी होंगे, तो क्या नाम न होगा!

आगे मैंने लिखा था--यह खेल कितना वाहियात और मूर्खतापूर्ण है, इसका अंदाजा आपको ‘युवा पीढ़ी’ पद से लग सकता है। इसे ‘नयी पीढ़ी’ की तर्ज पर चलाया गया और इसकी कहानी को ‘नयी कहानी’ की तर्ज पर ‘युवा कहानी’ कहा गया। कई पत्रिकाओं के ‘युवा कहानी विशेषांक’ निकले। ‘युवा कहानी’ पर लेख लिखे गये। ‘युवा कथाकार’ जैसे कहानी संकलन निकाले गये। मेरी आदत है कि पत्रिका या संकलन के लिए कोई मेरी कहानी माँगता है, तो मैं आम तौर पर मना नहीं करता। इसलिए आप देखेंगे कि मेरी कहानियाँ साठोत्तरी कहानी, पैंसठोत्तरी कहानी, सातवें दशक की कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी, समांतर कहानी, स्वातंत्र्योत्तर कहानी, अमुक-तमुक वर्ष की श्रेष्ठ कहानी, प्रगतिशील कहानी, जनवादी कहानी आदि से संबंधित पत्रिकाओं और संकलनों में छपी हुई हैं। ‘युवा कथाकार’ नामक संकलन में भी मेरी कहानी छपी है। लेकिन मैं कभी नहीं समझ पाया कि ‘युवा कहानी’ क्या होती है। किसी को युवा कहने से उसकी उम्र के अलावा क्या पता चलता है? ‘युवा वर्ग’ कहने से किस वर्ग का बोध होता है? युवक तो शोषक और शोषित दोनों वर्गों में होते हैं। इसी तरह युवकों में सच्चे और झूठे, शरीफ और बदमाश, बुद्धिमान और मूर्ख, शक्तिशाली और दुर्बल, प्रगतिशील और दकियानूस--सभी तरह के लोग हो सकते हैं। तब ‘युवा कहानी’ का क्या मतलब? यह किस वर्ग के युवाओं की कहानी है? यह किस काल से किस काल तक की कहानी है? यह किस उम्र से किस उम्र तक के लेखकों की कहानी है?

और निष्कर्ष के रूप में मैंने लिखा था--कहानी को किसी दशक या पीढ़ी की छतरी के नीचे ले आने से कहानी की किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। हिंदी कहानी के दशक उसके विकास के सूचक नहीं हैं। विकास की गति सदा इकसार और कालक्रमानुसार नहीं होती, क्योंकि विकास हमेशा अंतर्विरोधों के बीच होता है। साहित्य में यह अंतर्विरोध दशकों और पीढ़ियों के बीच न होकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों के बीच और रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों के बीच होते हैं।

आपने देखा होगा, पिछले दिनों मैंने अपने ब्लॉग ‘बेहतर दुनिया की तलाश’ पर आज की ‘युवा पीढ़ी’ के कहानीकारों से कहा था कि वे पीढ़ीवाद की निरर्थकता से बचकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों तथा रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों पर सार्थक बहस चलायें।

अशोक कुमार पांडेय : आपके ब्लॉग पर मैंने ‘लेखकों के मुँह में चाँदी का चम्मच’ वाली पोस्ट भी पढ़ी थी, जो ‘नया ज्ञानोदय’ के जून, 2010 के संपादकीय में रवींद्र कालिया के इन शब्दों पर टिप्पणी करती थी कि ‘‘आज की युवा पीढ़ी उन खुशकिस्मत पीढ़ियों में है, जिन्हें मुँह में चाँदी का चम्मच थामे पैदा होने का अवसर मिलता है।’’

रमेश उपाध्याय : हाँ, मैंने उसमें लिखा था कि कालिया द्वारा लिखा गया यह वाक्य एक अंग्रेजी मुहावरे का हिंदी अनुवाद करके बनाया गया है--‘‘बॉर्न विद अ सिल्वर स्पून इन वंस माउथ’’, अर्थात् वह, जो किसी धनाढ्य के यहाँ पैदा हुआ हो। इस पर अंग्रेजी के ही एक और मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि कालिया के इन शब्दों से ‘‘बिल्ली बस्ते से बाहर आ गयी है’’! मतलब, कालिया कहानीकारों की जिस नयी पीढ़ी को हिंदी साहित्य में ले आने का श्रेय स्वयं ही लेने को आतुर हैं, उसका वर्ग-चरित्र उन्होंने स्वयं ही बता दिया है। वैसे यह कोई रहस्य नहीं था कि सेठों के संस्थान से निकलने वाली पत्रिकाओं से--यानी पहले भारतीय भाषा परिषद् की पत्रिका ‘वागर्थ’ से और फिर भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ से--पैदा हुई नयी पीढ़ी ही नयी पीढ़ी के रूप में क्यों और कैसे प्रतिष्ठित हुई! अन्यथा उसी समय में ‘परिकथा’ जैसी कई और पत्रिकाएँ ‘नवलेखन’ पर अंक निकालकर जिस नयी पीढ़ी को सामने लायीं, उसके लेखक इतने खुशकिस्मत क्यों न निकले? जाहिर है, वे लघु पत्रिकाएँ थीं, जबकि ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ तथाकथित बड़ी पत्रिकाएँ! और ‘नया ज्ञानोदय’ तो भारतीय ज्ञानपीठ जैसे बड़े प्रकाशन संस्थान की ही पत्रिका थी, जिसका संपादक उस प्रकाशन संस्थान का निदेशक होने के नाते अपने द्वारा सामने लायी गयी पीढ़ी के मुँह में चाँदी का चम्मच दे सकता था!

अशोक कुमार पांडेय : अच्छा, यह बताइए कि 1980 के दशक के बाद के कालखंड में हिंदी कविता और कहानी, दोनों में किसी आंदोलन का जो अभाव दिखता है, उसके क्या कारण हैं?

रमेश उपाध्याय : इस प्रश्न पर सही ढंग से विचार करने के लिए साहित्यिक आंदोलन और साहित्यिक फैशन में फर्क करना चाहिए। साहित्यिक आंदोलन--जैसे भक्ति आंदोलन या आधुनिक युग में प्रगतिशील और जनवादी आंदोलन--हमेशा अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों से सार्थक और सोद्देश्य रूप में जुड़े होते हैं, जबकि साहित्यिक फैशन ‘कला के लिए कला’ के सिद्धांत पर चलते हैं और अंततः उनका संबंध साहित्य के बाजार और व्यापार से जुड़ता है। आपने 1980 के दशक के बाद के कालखंड की बात की। अर्थात् आप 1991 से 2010 तक के बीस वर्षों में हिंदी साहित्य में किसी आंदोलन को अनुपस्थित पाते हैं। तो आप यह देखें कि आजादी के बाद से 1980 के दशक तक हिंदी साहित्य में आंदोलनों की स्थिति क्या रही। आजादी से पहले का हिंदी साहित्य मुख्य रूप से दो बड़े आंदोलनों से जुड़ा हुआ था--एक राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से और दूसरे प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन से। और यह दोनों ही प्रकार का साहित्य अपने-अपने ढंग से सार्थक और सोद्देश्य साहित्य था। लेकिन आजादी के बाद जो साहित्यिक आंदोलन चले, वे आंदोलन कम और साहित्य के नये फैशन ज्यादा थे।

अशोक कुमार पांडेय : इस बात को जरा स्पष्ट करें।

रमेश उपाध्याय : देखिए, आजादी के तुरंत बाद हिंदी में ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के जो आंदोलन चले, उनमें आपको दो तरह का लेखन दिखता है, जिसे मोटे तौर पर आप कलावादी और जनवादी कह सकते हैं। उनमें से एक का उद्देश्य साहित्य में कुछ नयापन लाना है, तो दूसरे का उद्देश्य साहित्य के जरिये एक नया समाज बनाना है। यह बात मैं ‘एब्सोल्यूट टर्म्स’ में नहीं, सापेक्ष ढंग से कह रहा हूँ, क्योंकि साहित्य में, और जीवन में भी, बहुत स्पष्ट विभाजन नहीं हुआ करते। एक प्रवृत्ति में दूसरी प्रवृत्ति घुली-मिली रहती है। देखना यह चाहिए कि उनमें मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है। ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ दोनों में आपको प्रगतिशील और जनवादी लेखक दिखायी पड़ते हैं। लेकिन प्रमुखता है आधुनिकतावादी, व्यक्तिवादी, कलावादी प्रवृत्ति की। उदाहरण के लिए, ‘नयी कविता’ में मुक्तिबोध भी हैं, लेकिन प्रमुखता प्राप्त है अज्ञेय को। ‘नयी कहानी’ में अमरकांत, मार्कंडेय और शेखर जोशी भी हैं, लेकिन प्रमुखता प्राप्त करते हैं मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव। इसलिए ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ दोनों साहित्य के आंदोलन कम हैं, साहित्य के फैशन ज्यादा हैं। इन दोनों के बाद हिंदी में जो साहित्यिक आंदोलन चले, वे भी मोटे तौर पर फैशनेबल ही थे...

अशोक कुमार पांडेय : 1970-80 के दशकों में फिर से उभरा प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन भी?

रमेश उपाध्याय : जी हाँ, काफी हद तक वह भी। आप देखिए कि ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के दौर में आधुनिकतावाद एक फैशन की तरह आता है और बहुत-से लेखक एलियट, एजरा पाउंड, हेमिंग्वे आदि की तर्ज पर लेखन में नयापन पैदा करने लगते हैं। फिर ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ के दौर में बहुत-से लेखक सार्त्र, कामू, काफ्का और एब्सर्ड थिएटर की तर्ज पर एक नया फैशन चलाते हैं। उसके बाद प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन फिर से उभरता है, तो पक्षधरता, प्रतिबद्धता और वर्ग-संघर्ष से दूर रहने वाले कई लेखक भी मार्क्स, लेनिन, माओ आदि की चर्चा करते हुए क्रांतिकारी-सी लगने वाली चीजें लिखने लगते हैं। फैशन की एक खास बात यह होती है कि वह जल्दी-जल्दी बदलता रहता है। इस मामले में भी यही हुआ। मार्क्सवाद का फैशन भी जल्दी ही बदल गया। उसकी जगह दलितवाद आ गया, स्त्रीवाद आ गया, उत्तर-आधुनिकतावाद आ गया, जादुई यथार्थवाद आ गया। एक और बात है। फैशनपरस्त लेखक हमेशा अद्वितीय होना चाहते हैं। इसलिए वे अन्य लेखकों के साथ एकजुट या संगठित होने में अपनी अद्वितीयता की हानि समझते हैं। इसी कारण वे स्वयं कोई आंदोलन चलाने या किसी आंदोलन में शामिल होने में विश्वास नहीं रखते। हाँ, ऐसा हो सकता है कि जब कोई आंदोलन अपने उत्कर्ष पर हो, तो वे उसे भी कोई नया फैशन मानकर उसके साथ चलते नजर आने लगें। मगर उत्कर्ष के समय वे जितनी तेजी के साथ उसमें आते हैं, अपकर्ष के समय उतनी ही तेजी के साथ उससे अलग भी हो जाते हैं। सोवियत संघ का विघटन होने और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के शुरू होने के बाद प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन का उभार एक प्रकार के उतार में बदल गया, तो उससे अलग हो जाने वाले लेखकों के उदाहरण से इस सत्य को समझा जा सकता है। आंदोलन में आते समय ऐसे कई लेखक स्वयं को सबसे अधिक प्रगतिशील, सबसे अधिक जनवादी, सबसे अधिक क्रांतिकारी जताते थे। लेकिन उससे अलग होते समय उसकी निंदा करने या उसका मजाक उड़ाने में भी वे सबसे आगे दिखायी दिये।

अशोक कुमार पांडेय : क्या इस कालखंड की कहानी को, जिसे युवा पीढ़ी की कहानी कहा जा रहा है, आप कोई नाम देना चाहेंगे?

रमेश उपाध्याय : इस कालखंड में कोई एक प्रवृत्ति नहीं रही, जिसे कोई एक नाम दिये जा सके। विभिन्न प्रवृत्तियाँ रही हैं और उनके अनुसार कहानी के विभिन्न नामकरण भी होते रहे हैं, जैसे जनवादी कहानी, दलितवादी कहानी और स्त्रीवादी कहानी--इन दोनों को दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की कहानी कहा जाता है--और फिर उत्तर-आधुनिक कहानी, जादुई यथार्थवाद की कहानी और भूमंडलीय यथार्थवाद की कहानी। ये नाम कितने सही और सार्थक हैं, इस पर बहस हो सकती है। लेकिन ये नाम इस कालखंड की कहानी की विभिन्न प्रवृत्तियों को दरशाते हैं, जबकि ‘युवा कहानी’ कहने से किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। इसलिए उम्र के आधार पर कहानीकारों को बाँटना और युवा लेखकों की कहानी को युवा कहानी जैसा नाम देना किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। इस कालखंड की कहानी को ‘आज की कहानी’ या ‘समकालीन कहानी’ कहना भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि उससे पता नहीं चलता कि ‘आज’ की व्याप्ति कब से कब तक है। दूसरे, इस कालखंड में कहानीकारों की एक ही पीढ़ी नहीं, अनेक पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय हैं और कहानी में कोई एक नहीं, बल्कि अनेक प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं। उम्र के आधार पर तो आज जो युवा है, उसे कल प्रौढ़ और परसों बूढ़ा होना ही है। तो क्या हम आज के युवा लेखक की कहानी को आज युवा कहानी, कल प्रौढ़ कहानी और परसों बूढ़ी कहानी कहेंगे? फिर, आज के युवाओं में भी सबका लेखन एक जैसा नहीं है। उसमें बड़ी भिन्नताएँ हैं। इसलिए देखा यह जाना चाहिए कि ‘आज की कहानी’ में कौन-कौन-सी प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं और उनमें से मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है, जिसके आधार पर आज की कहानी का नामकरण किया जा सके।

अशोक कुमार पांडेय : आपके विचार से आज की कहानी की मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है?

रमेश उपाध्याय : यदि आप आज की कहानी को सोवियत संघ का विघटन होने और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के शुरू होने के बाद की कहानी मानें, तो 1991 से 2010 तक का बीस वर्षों का यह कालखंड देश और दुनिया के यथार्थ में हुए एक जबर्दस्त उलटफेर का समय है। इसमें हमारा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन ही नहीं बदला है, बल्कि हमारे साहित्य और संस्कृति में भी एक स्पष्ट बदलाव आया है। निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण ने हमारे यथार्थ को ही नहीं बदला है, यथार्थ को देखने की हमारी दृष्टि को भी बदला है। पहले हम लेखक-कलाकार आदि दुनिया के बेहतर भविष्य में विश्वास रखते थे और अपनी रचनाओं से उस भविष्य को बनाने की कोशिश करते थे। अब हममें से ज्यादातर लोग यह मानने लगे हैं कि दुनिया जैसी बन सकती थी, बन चुकी है और आगे इसमें कोई परिवर्तन नहीं होने वाला है। इसलिए भविष्य के बारे में सोचने और उसका निर्माण करने की कोशिश करने के बजाय इस कालखंड के ज्यादातर लेखक वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान में उन्हें सिर्फ बाजार दिखता है--एक भूमंडलीय बाजार--जिसमें अपनी जगह बनाना, अपना बाजार बनाना, उस बाजार में टिके रहना और ऊँची कीमत पर बिकना ही उन्हें अपना और अपने लेखन का एकमात्र उद्देश्य दिखता है। दूसरे शब्दों में इस कालखंड के ज्यादातर लेखक वर्तमान व्यवस्था में ही अपनी जगह बनाने और कामयाब होने को ही अपने जीवन और लेखन का उद्देश्य मानने लगे हैं। इस प्रवृत्ति को आप बाजारोन्मुखी कह सकते हैं और आज की मुख्य प्रवृत्ति यही है।

अशोक कुमार पांडेय : मैं जानता हूँ कि आप बाजारवाद के विरोधी हैं, इसलिए आप इस बाजारोन्मुखी प्रवृत्ति के समर्थक नहीं हो सकते। तो आज की कहानी की वह कौन-सी प्रवृत्ति है, जिसे आप सही मानते हैं?
रमेश उपाध्याय: भविष्योन्मुखी प्रवृत्ति। कहानीकार किसी भी पीढ़ी का हो, आज उसमें भविष्योन्मुखी दृष्टि से भूमंडलीय यथार्थ को समझने की और उसे कहानी में प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता होनी चाहिए।

अशोक कुमार पांडेय : तो आपकी इन अपेक्षाओं पर युवा पीढ़ी कितनी खरी उतर पा रही है?

रमेश उपाध्याय : मुझे प्रसन्नता है कि आज की हिंदी कहानी में कई लेखक इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। मैं कहानी पढ़ते समय यह नहीं देखता कि कहानीकार युवा है या प्रौढ़, स्त्री है या पुरुष, दलित है या सवर्ण, हिंदू है या मुसलमान या किसी और धर्म का। जिन्हें कहानीकारों में ऐसे भेद करना जरूरी लगता है, उनकी वे जानें, मैं तो कहानी को देखता हूँ और हर तरह के कहानीकारों की कहानियाँ पढ़ता हूँ। इससे कई बार मुझे बड़ी आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, एक कहानीकार हैं द्वारकेश नेमा, जिनका पहला कहानी संग्रह उनकी उम्र के इकहत्तरवें वर्ष में छपा है। आज के चट मँगनी पट ब्याह वाले समय में यह वाकई एक अद्भुत और विलक्षण बात है कि एक कहानीकार का पहला कहानी संग्रह इकहत्तर वर्ष की उम्र में छपे और उसकी ग्यारह में से नौ कहानियाँ पैंसठ साल की उम्र के बाद लिखी गयी हों। लेकिन इस बुजुर्ग कहानीकार की कहानियों का-सा नयापन आज के बहुत-से युवा कहानीकारों की कहानियों में भी मिलना मुश्किल है। आपको विश्वास न हो, तो उनका कहानी संग्रह ‘हीरामन-अमर्त्य सेन और अन्य कहानियाँ’ पढ़कर देख लें। दूसरी तरफ एक नितांत नये लेखक अमित मनोज की ‘परिकथा’ के नवलेखन अंक (सितंबर-अक्टूबर, 2008) में छपी कहानी ‘चूड़ियाँ’ पढ़ें, तो आप पायेंगे कि नये लेखक भी आज के भूमंडलीय यथार्थ को एक भविष्योन्मुखी दृष्टि से देख रहे हैं और उनकी कहानियों में जो नयापन है, वह उस यथार्थ के व्यापक परिप्रेक्ष्य में कहानी लिखने के कारण आ रहा है।

अशोक कुमार पांडेय : कुछ ऐसे युवा कहानीकार, जिनमें आपको संभावना दिखायी देती है? कुछ ऐसी कहानियाँ, जिनमें वाकई नयी रचनाशीलता दिखायी दी हो?

रमेश उपाध्याय : देखिए, संभावना तो हर लेखक में रहती है और हर लेखक के विषय में यह आशंका भी कि आज वह जो बहुत अच्छा लिख रहा है, कल बहुत खराब लिखने लगे। या आज जो बहुत नया लग रहा है, कल ही पुराना पड़ जाये। मैं नाम नहीं लूँगा, लेकिन रवींद्र कालिया ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ से जिस युवा पीढ़ी को सामने लाये और परमानंद श्रीवास्तव जैसे नामगिनाऊ आलोचकों ने उस पीढ़ी के जिन कहानीकारों को रातोंरात आसमान पर चढ़ा दिया, वे अपने से आगे वाले युवा कहानीकारों की तुलना में आज ही पुराने पड़ गये लगते हैं। उदाहरण के लिए, ‘नया ज्ञानोदय’ के ही मई-जून, 2007 में निकले युवा पीढ़ी विशेषांक में छपे लेखकों की कहानियों की तुलना जून, 2010 में निकले युवा पीढ़ी विशेषांक में छपे लेखकों की कहानियों से करें, तो आप पायेंगे कि इन तीन सालों में ही ‘युवा पीढ़ी’ के कई चमकीले सितारे अपनी चमक खोकर पुराने-से लगने लगे हैं। मैं यह नहीं कहता कि उनमें संभावना नहीं रही। मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि संभावना के नाम पर की गयी भविष्यवाणियाँ अक्सर गलत साबित होती हैं। नयी पीढ़ी का स्वागत अवश्य किया जाना चाहिए, लेकिन इस प्रकार नहीं कि उनके आगमन मात्र से जैसे कोई क्रांति हो गयी हो और अब तक साहित्य में जो कुछ हुआ, वह सब पुराना और बेकार हो गया हो। लेखकों की उम्र से नयी रचनाशीलता का कोई सीधा संबंध नहीं होता। उदाहरण के लिए, अभी मैंने जिन दो कहानीकारों के नाम लिये, उनमें अमित मनोज केवल 28 वर्ष के हैं और द्वारकेश नेमा 71 वर्ष के। लेकिन दोनों की कहानियों में नयी रचनाशीलता दिखायी पड़ती है। अमित मनोज की कहानी के बारे में मैंने विस्तार से ‘परिकथा’ के नवंबर-दिसंबर, 2008 के अंक में लिखा था और नेमा जी कहानियों पर विस्तार से ‘कथन’ के जुलाई-सितंबर, 2010 के अंक में लिखा है।

अशोक कुमार पांडेय : इस नयी रचनाशीलता की क्या विशेषताएँ हैं?

रमेश उपाध्याय : नयी रचनाशीलता का कोई एक रूप नहीं होता। उसके विभिन्न रूप होते हैं। उदाहरण के लिए, एक प्रकार की नयी रचनाशीलता आपको ‘नया ज्ञानोदय’ के युवा पीढ़ी विशेषांकों में मिलेगी, तो दूसरी प्रकार की नयी रचनाशीलता ‘परिकथा’ तथा अन्य पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांकों में। ‘नया ज्ञानोदय’ वाली युवा पीढ़ी की विशेषताएँ उसके संपादक रवींद्र कालिया के शब्दों में ये हैं--‘‘इस पीढ़ी के पास अपनी शब्द संपदा है, अपने मुहावरे हैं। वाक्य विन्यास में भी नये-नये प्रयोग देखे जा सकते हैं। ये भाषा के स्तर पर बहुत शुद्धतावादी नहीं हैं और न ही आदिवासियों, दलितों और शोषितों के प्रति घड़ियाली आँसू बहाते हैं।’’ ध्यान से देखें, तो यहाँ नयी रचनाशीलता भाषा में आये बदलाव में देखी जा रही है। कथ्य में आये बदलाव की बात यहाँ सकारात्मक रूप से नहीं, बल्कि नकारात्मक रूप में की जा रही है। उससे ‘युवा पीढ़ी’ की कहानी की अंतर्वस्तु का पता नहीं चलता कि उसमें क्या है। बस, इतना पता चलता है कि क्या नहीं है। और उससे ‘युवा पीढ़ी’ की प्रशंसा के बहाने प्रगतिशील-जनवादी कहानी की निंदा की गयी है और उस पर कुछ आक्षेप किये गये हैं। मसलन, प्रगतिशील-जनवादी कहानीकार भाषा के स्तर पर बहुत शुद्धतावादी हैं, जो ये युवा पीढ़ी के कहानीकार नहीं हैं। या प्रगतिशील-जनवादी कहानीकार अपनी कहानियों में आदिवासियों, दलितों और शोषितों के प्रति घड़ियाली आँसू बहाते हैं, जो युवा पीढ़ी के कहानीकार नहीं बहाते। मतलब यह कि प्रगतिशील-जनवादी कहानीकारों का लेखन एक प्रकार का छद्म लेखन है और इस युवा पीढ़ी का लेखन जेनुइन है। मैं ‘छद्म’ और ‘जेनुइन’ शब्दों का इस्तेमाल जान-बूझकर कर रहा हूँ, क्योंकि यह शब्दावली हिंदी को प्रगतिशील-जनवादी लेखन के विरोधियों की देन है।

अशोक कुमार पांडेय : तो आपके विचार से ‘परिकथा’ तथा अन्य पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांकों से सामने आ रही नयी पीढ़ी के कहानीकारों की कहानी की क्या विशेषताएँ हैं?

रमेश उपाध्याय : मैंने ‘परिकथा’ के सितंबर-अक्टूबर, 2008 वाले नवलेखन अंक में प्रकाशित कहानियों पर जो लेख उसके नवंबर-दिसंबर, 2008 वाले अंक में लिखा था, उसका शीर्षक था ‘कलावाद और अनुभववाद से मुक्त होती हिंदी कहानी’। लेकिन इधर की चर्चित, बल्कि जरूरत से ज्यादा चर्चित ‘युवा पीढ़ी’ की ये ही दो विशेषताएँ हैं--कलावाद और अनुभववाद! आप इस ‘युवा पीढ़ी’ की सारी कहानियाँ पढ़ जाइए, उनमें ‘बात’ पर कम और ‘बात कहने के ढंग’ पर ज्यादा जोर है। ये कहानीकार कहानी का कथ्य अपने निजी अनुभव से लेते हैं, जो स्वाभाविक है कि पहले की पीढ़ियों के अनुभव से भिन्न है, नया है--नयी टेक्नोलॉजी, नयी सूचना-संस्कृति, नयी जीवन-शैली के कारण--लेकिन आज के भूमंडलीय यथार्थ की व्यापकता को देखते हुए वह अत्यंत सीमित है। वह लगभग निरुद्देश्य और लगभग निरर्थक भी है, क्योंकि ये लेखक शायद यह मानकर चल रहे हैं कि दुनिया जैसी है, वैसी ही हमेशा रहनी है और उसका कोई विकल्प नहीं है। इससे बेहतर दुनिया की कोई कल्पना या परिकल्पना उनके पास नहीं है, इसलिए उनकी कहानियों का कथ्य किसी बेहतर भविष्य की ओर प्रवाहित गतिशील धारा का नहीं, बल्कि यथास्थितिवाद के पोखर में रुके हुए सड़ते पानी का-सा अहसास कराता है, जिसे वे भाषाई चमत्कारों से सुंदर बनाने की कोशिश करते दिखायी देते हैं। लेकिन यह कोशिश सड़ते हुए पानी में कमल के फूल खिलाने की-सी कोशिश होती है--हिंदी की जगह हिंग्लिश के प्रयोग से, गालियों और भदेस अभिव्यक्तियों से, दुनिया भर की सूचनाओं की भरमार से, विदेशी लेखकों के संदर्भरहित उद्धरणों से, कहानी के बीच में लंबे-लंबे चमत्कारपूर्ण उपशीर्षकों से, किसी भी संदर्भ में घुसा दिये जाने वाले यौन-प्रसंगों से या एक प्रकार का बौद्धिक आतंक उत्पन्न करने के प्रयासों से!

अशोक कुमार पांडेय : पर आज की सभी कहानियों में तो यह सब नहीं होता।

रमेश उपाध्याय : मैं सभी कहानियों की नहीं, इधर की चर्चित और जरूरत से ज्यादा चर्चित ‘युवा पीढ़ी’ की कहानियों की बात कर रहा हूँ। इस ‘युवा पीढ़ी’ के कहानीकार गर्व से कहते हैं कि वे उदय प्रकाश को अपना आदर्श मानते हैं। अब आप देखें कि उदय प्रकाश के लेखन में सबसे ज्यादा जोर किस चीज पर होता है। उस भाषा पर, जो बौद्धिक आतंक उत्पन्न करने वाली सूचनाओं से लदी-फँदी भाषा है। ‘युवा पीढ़ी’ के लेखक भी ऐसी भाषा लिखने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, प्रभात रंजन स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं कि ‘‘जब मैं कहानियाँ लिखता हूँ, यह उदय प्रकाश से सीखा है कि जो चीज आप उस समय पढ़ रहे हैं, उसका उपयोग जरूर कर लें।’’ इन कहानीकारों का जोर कहानी के कथ्य पर उतना नहीं है, जितना भाषा और शिल्प पर। मगर ये सभी कहानीकार इस मामले में एक जैसे नहीं हैं। भाषा और शिल्प पर जरूरत से ज्यादा जोर देना ठीक नहीं है, यह बात इनमें से कई लेखक आत्मालोचना के रूप में कहते भी हैं। लेकिन ज्यादातर का जोर भाषा और शिल्प पर ही रहता है।

अशोक कुमार पांडेय : कुछ उदाहरण?

रमेश उपाध्याय : उदाहरण के लिए, ‘प्रगतिशील वसुधा’ में छपे युवा लेखकों के संवाद को देखें। उसमें आपको दोनों प्रकार के विचार मिल जायेंगे। मसलन, ज्योति चावला कहती हैं कि ‘‘विषय तो हर युग में बदलते रहे हैं। लेकिन इस युवा कहानी ने जो अपनी अलग पहचान बनायी है, इसका कारण उसका अपना शिल्प है, उसकी भाषा है, उसका ट्रीटमेंट है, उसका प्रेजेंटेशन है।’’ लेकिन संजय कुंदन इससे सहमत नहीं। वे कहते हैं कि ‘‘कई बार तो हम पूरी कहानी पढ़ जाते हैं और भाषा के चमत्कार में बँधकर रह जाते हैं। अंत में पता चलता है कि कहानी में तो कुछ था ही नहीं।’’ प्रभात रंजन कहते हैं कि ‘‘मैं मानता हूँ, कोई भी लेखक जो है, वह भाषा से ही है।’’ इसके विपरीत योगेंद्र आहूजा का विचार है कि ‘‘कई बार कंटेंट की कमी को भाषा से ढँकने की कोशिश भी की जाती है।’’ लेकिन कुणाल सिंह पुनः भाषा पर जोर देते हुए कहते हैं कि ‘‘भाषा अपने-आप में कंटेंट है।’’ शायद भाषा और शिल्प पर इतना जोर देने के कारण ही ये लेखक स्वयं को प्रगतिशील और जनवादी लेखकों की परंपरा का नहीं, बल्कि निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी और उदय प्रकाश की परंपरा में रखकर देखते हैं। उदय प्रकाश इनके आदर्श शायद इसलिए भी हैं कि उन्हें साहित्य के बाजार में अद्वितीय और असाधारण सफलता प्राप्त हुई है। ये लेखक भी ऐसी ही सफलता के आकांक्षी हैं।

अशोक कुमार पांडेय : लेकिन इसी पीढ़ी में दूसरे लेखक भी तो हैं, जो भाषा या शिल्प और शैली पर इतना जोर न देकर कहानी के कथ्य और आज के यथार्थ का चित्रण करने पर जोर देते हैं। वे भी बहुत अच्छी और महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिख रहे हैं, पर उनकी इतनी चर्चा नहीं होती। इसका क्या कारण है?

रमेश उपाध्याय : यह सवाल आलोचकों से पूछा जाना चाहिए।

अशोक कुमार पांडेय : हिंदी कहानी की आलोचना की अब क्या भूमिका है? क्या वह वास्तव में नये रचनाकारों की परख कर पा रही है?

रमेश उपाध्याय : आपके प्रश्न में ही उसका उत्तर निहित है। लेकिन यह देखना चाहिए कि इसका कारण क्या है। मुझे लगता है कि हिंदी कहानी और कहानी की आलोचना दोनों को बाजारवाद बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। बाजारोन्मुख कहानीकार और आलोचक यह मानकर चल रहे हैं कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए यह दुनिया अब हमेशा ऐसे ही चलेगी। इसे बदलना, सुधारना, सँवारना, बेहतर बनाना संभव नहीं है। साहित्य से, और कहानी जैसी विधा से तो बिलकुल नहीं। वे कहानी को बाजार में बिकने वाली वस्तु मानते हैं। कहानीकार आलोचकों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी कहानी को--और उनको भी--बाजार में ऊँचे दामों में बिकने लायक बनायें। अर्थात् उनका विज्ञापन करें, बाजार में उनकी जगह बनायें, उनकी कीमत बढ़ायें। दुर्भाग्य से आलोचक स्वयं भी यही चाहते हैं कि वे लेखकों का बाजार बना और बिगाड़ सकने की भूमिका में बने रहें, ताकि वे स्वयं भी बाजार में टिके रहें और उनकी अपनी कीमत भी बढ़ती रहे। ऐसे लेखक और आलोचक दुनिया के भविष्य के बारे में नहीं, केवल अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं।

अशोक कुमार पांडेय : लेकिन ऐसे कहानीकार और ऐसे आलोचक भी तो हैं, जो अपना भविष्य दुनिया के भविष्य के साथ जोड़कर देखते हैं?

रमेश उपाध्याय : निश्चित रूप से हैं। मगर उन्हें आपस में जोड़ने वाला कोई आंदोलन न होने के कारण वे बिखरे हुए हैं, अलग-थलग पड़े हुए हैं। जरूरत है कि वे निकट आयें और मिल-जुलकर एक आंदोलन चलायें। एक नया कहानी आंदोलन।

अशोक कुमार पांडेय : आपके विचार से उस नये आंदोलन का नाम और रूप?

रमेश उपाध्याय : रूप तो आंदोलन चलाने वाले लेखक ही उसे देंगे, पर मैं एक नाम सुझा सकता हूँ। हमारी इस बातचीत में अभी-अभी दो शब्द आये--बाजारोन्मुखी और भविष्योन्मुखी। तो हम बाजारोन्मुखी कहानी के बरक्स भविष्योन्मुखी कहानी का आंदोलन ही क्यों न चलायें?


--रमेश उपाध्याय