Wednesday, November 23, 2011

भूमंडलीय यथार्थ और साहित्यकार की प्रतिबद्धता

15 नवम्बर, 2011 को अलीगढ़ में दिया गया कुंवरपाल सिंह स्मृति व्याख्यान

आदरणीय अध्यक्ष जी जनाब क़ाज़ी अब्दुल सत्तार साहब, आदरणीया नमिता सिंह जी, भाई अजय तिवारी जी, वेदप्रकाश अमिताभ जी, अमरीक गिल साहब, अजय बिसारिया जी और सभागार में उपस्थित सभी मित्रो! मेरे लिए यह बड़े सम्मान की बात है कि मुझे कुंवरपाल सिंह स्मृति व्याख्यान देने के लिए यहाँ बुलाया गया है। कुंवरपाल सिंह मेरे आदरणीय मित्र और साथी थे। सुयोग्य शिक्षक, अच्छे लेखक और आलोचक, जन-आंदोलनों से जुड़े कर्मठ कार्यकर्ता कुंवरपाल सिंह को याद करते हुए मुझे याद आ रहा है कि पहले मैं उनके बुलाने पर अलीगढ़ आया करता था। कार्यक्रम कुछ भी हो, मुख्या उद्देश्य होता था उनसे, नमिता जी से और इनके प्यारे बच्चों से मिलना। आज कुंवरपाल सिंह नहीं हैं, पर मैं उन्हीं के लिए आया हूँ। आप लोगों के साथ उन्हें याद करने के लिए आया हूँ। आज का मेरा व्याख्यान उन्हीं की स्मृति को समर्पित है। मेरे व्याख्यान का विषय है 'भूमंडलीय यथार्त और साहित्यकार की प्रतिबद्धता'।

मित्रो, मेरा मानना है कि भारत के लिए भूमंडलीकरण कोई नयी चीज नहीं है। हमारे यहाँ बड़े पुराने जमाने से दुनिया को एक मानकर चलने की विचार-परंपरा रही है, जिसकी अभिव्यक्ति ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘सबै भूमि गोपाल की’ जैसी सूक्तियों में होती रही है। ‘भूमंडलीय यथार्थ’ और ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ की शब्दावली अवश्य नयी है, लेकिन ये अवधारणाएँ हमारे आधुनिक चिंतन में मौजूद रही हैं। उदाहरण के लिए, हम आधुनिक युग के अपने दो महापुरुषों--रवींद्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी--को याद करें, तो पायेंगे कि ये दोनों ही एक प्रकार के भूमंडलीय यथार्थवादी थे। रवींद्रनाथ ने विश्वभारती की स्थापना की, तो उसका आदर्श-वाक्य लिखा ‘यत्र विश्वंभवत्येकनीडम्’ और महात्मा गांधी ने 1 जून, 1921 के ‘यंग इंडिया’ में लिखा--‘‘मैं नहीं चाहता कि मेरा मकान चारों ओर दीवारों से घिरा हो और मेरी खिड़कियाँ बंद हों। मैं तो चाहता हूँ कि सभी देशों की संस्कृतियों की हवाएँ मेरे घर में जितनी भी आजादी से बह सकें, बहें। लेकिन मैं यह नहीं चाहता कि उनमें से कोई हवा मुझे मेरी जड़ों से ही उखाड़ दे।’’

इतिहास को देखें, तो हमारा देश बाकी दुनिया से कटा हुआ कोई अलग-थलग भूखंड कभी नहीं रहा है। हम दूसरे देशों में जाते रहे हैं और दूसरे देशों के लोग हमारे यहाँ आते रहे हैं। व्यापारिक लेन-देन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी हम हमेशा करते रहे हैं। पूँजीवाद के आने पर तो हमारा भूमंडलीकरण होना ही था, क्योंकि पूँजीवाद शुरू से ही एक विश्व-व्यवस्था है। मार्क्स ने जब यह कहा था कि पूँजीपति अपने मुनाफे के लिए दुनिया के किसी भी कोने-अंतरे में जा सकता है, तो एक प्रकार से भूमंडलीय यथार्थ को ही व्यक्त किया था। भारतीय मार्क्सवादी भी अंतरराष्ट्रीयतावाद में विश्वास करते हुए हमेशा भारतीय यथार्थ को भूमंडलीय यथार्थ के संदर्भ में समझते रहे हैं।

लेकिन पूँजीवादी भूमंडलीकरण हमेशा एक-सा नहीं रहा है। उसके कई रूप और अलग-अलग दौर रहे हैं। मसलन, साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद के दौर का भूमंडलीकरण एक तरह का था, तो समाजवाद और पूँजीवाद के बीच चले शीतयुद्ध के दौर का भूमंडलीकरण दूसरी तरह का। सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद पूँजीवादी भूमंडलीकरण का एक नया दौर शुरू हुआ है। उससे भूमंडलीय यथार्थ बदल गया है और इसी कारण साहित्य में एक नये यथार्थवाद की जरूरत महसूस की जा रही है।

इसी तरह साहित्यकार की प्रतिबद्धता भी कोई नयी चीज नहीं है, लेकिन वह भी विभिन्न प्रकार की होती है। उसके भी विभिन्न रूप इतिहास में और आज भी पाये जाते हैं। मैं तो यह मानता हूँ कि साहित्यकार होना ही प्रतिबद्ध होना है, क्योंकि साहित्यकार--किसी भी युग का और किसी भी देश का साहित्यकार--सत्य, न्याय, नैतिकता, सुंदरता, प्रेम, समता, स्वतंत्रता जैसी सकारात्मक चीजों का पक्षधर और असत्य, अन्याय, अनैतिकता, कुरूपता, घृणा, विषमता, पराधीनता जैसी नकारात्मक चीजों का विरोधी होता है। यदि ऐसा नहीं है, तो वह साहित्यकार कहलाने का अधिकारी ही नहीं है। सच्चा साहित्यकार वह है, जिसे बड़े से बड़ा दमन या प्रलोभन भी ऐसी पक्षधरता और प्रतिबद्धता से विचलित न कर सके। किसी भी देश-काल और किसी भी भाषा के महान साहित्यकारों को देखें, सबमें ऐसी पक्षधरता और प्रतिबद्धता दिखायी पड़ेगी।

जहाँ तक वैचारिक प्रतिबद्धता का सवाल है, वह भी कोई नयी अथवा प्रगतिशील और जनवादी साहित्य की ही विशेषता नहीं है। यह विशेषता भी प्रत्येक देश-काल के महान साहित्य में मौजूद रही है। उदाहरण के लिए, भक्तिकाल के हिंदी साहित्य को देखें। उसमें सगुण भक्ति वाले कवि हों या निर्गुण भक्ति वाले कवि, रामभक्त कवि हों या कृष्णभक्त कवि, संत कवि हों या सूफी कवि--सब में वैचारिक प्रतिबद्धता देखी जा सकती है। सूर, तुलसी, कबीर, जायसी, मीरा आदि में से किसी को भी देख लीजिए। सभी में यह चीज मिलेगी। मीराबाई जब कहती हैं कि ‘‘मेरे तो गिरधर गुपाल दूसरो न कोई’’, तो अपनी प्रतिबद्धता ही व्यक्त करती हैं। इसी प्रकार तुलसीदास जब कहते हैं कि ‘‘जाके प्रिय न राम-वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही’’, तो अपनी प्रतिबद्धता ही प्रकट करते हैं। यह और बात है कि मैं व्यक्तिगत रूप से मीराबाई की-सी प्रतिबद्धता पसंद करता हूँ, जिसमें अपनी प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति तो है, उसके लिए लोकलाज की परवाह न करने से लेकर विष का प्याला तक पी लेने की बात भी है, लेकिन तुलसीदास की तरह दूसरों को यह उपदेश या आदेश देने वाली बात नहीं है कि जो हमारे राम-वैदेही से प्रेम नहीं करते--अथवा हमारी विचारधारा से सहमत नहीं हैं--उन्हें करोड़ों शत्रुओं के समान मानकर त्याग देना चाहिए। आज के साहित्य में भी, प्रगतिशील और जनवादी साहित्य में भी, मीराबाई की-सी और तुलसीदास की-सी प्रतिबद्धताओं के उदाहरण मिल जायेंगे।

1970-80 के दशकों में हिंदी के प्रगतिशील और जनवादी साहित्यकारों के बीच प्रतिबद्धता एक बड़ा मूल्य मानी जाती थी। लेखक का प्रतिबद्ध होना जरूरी माना जाता था, क्योंकि साहित्य और साहित्यकारों को दो खेमों या शिविरों में बँटा माना जाता था, जैसे प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी, समाजवादी और पूँजीवादी, जनवादी और जन-विरोधी, जनपक्षीय और शासकवर्गीय इत्यादि। मगर यह विभाजन प्रगतिशील और जनवादी लेखक ही किया करते थे। वे जिन लेखकों को दूसरे खेमे का कहते थे, वे तो ऐसे नामकरणों को सिरे से नकारते थे। वे लेखकों को खेमों या शिविरों में बाँटना पसंद नहीं करते थे, इसलिए ‘खेमेबाजी’ या ‘शिविरबद्धता’ को साहित्य के लिए हानिकारक समझते हुए प्रतिबद्धता को हिकारत की नजर से देखते थे। वे प्रतिबद्धता को वैचारिक गुलामी कहते थे और लेखक के विचार-स्वातंत्रय को बहुत बड़ा मूल्य मानते थे। वे जनवाद और समाजवाद की जगह व्यक्तिवाद और व्यक्ति-स्वातंत्रय की बात करते थे और साहित्य को राजनीति से अलग तथा ऊपर की कोई चीज मानते थे। दूसरी तरफ प्रगतिशील और जनवादी लेखक यह कहते थे कि साहित्य को राजनीति से अलग या ऊपर की कोई चीज मानना भी एक विचारधारा है, यह भी एक राजनीति है।

उन दिनों प्रगतिशील और जनवादी लेखकों के बीच मुक्तिबोध के दो कथन बहुत प्रचलित थे। एक यह कि ‘‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’’ और दूसरा यह कि ‘‘बशर्ते तय करो किस ओर हो तुम’’। मुक्तिबोध ऐसी बातें पूँजीवादी और समाजवादी व्यवस्थाओं के बीच चलने वाले उस शीतयुद्ध के संदर्भ में कहा करते थे, जो विचारधारात्मक और प्रचारात्मक हथियारों से लड़ा जाता था। साहित्यकार भी, चाहे वे प्रतिबद्ध साहित्यकार हों या अप्रतिबद्ध साहित्यकार, अपनी वर्गीय स्थितियों अथवा सामाजिक परिस्थितियों के चलते अनजाने ही या सचेत रूप से उस युद्ध में शामिल रहते थे। जो सचेत रूप से समाजवाद के पक्ष में और पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ते थे, वे अपनी पक्षधरता को छिपाते नहीं थे, क्योंकि वे स्वयं को देश और दुनिया के तमाम शोषित-उत्पीड़ित जनों की मुक्ति के लिए लड़ने वाला सिपाही मानते थे। प्रेमचंद की तरह ‘कलम का सिपाही’। वे शोषण, दमन, अन्याय और अत्याचार पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एक शोषणमुक्त समतामूलक और न्यायपूर्ण व्यवस्था के लिए लड़ने वाले लेखक के रूप में अपने पक्ष को नैतिक आधार पर उचित समझते थे, इसलिए अपनी राजनीति को दूसरे पक्ष के साहित्यकारों की तरह छिपाते नहीं थे। जो लेखक अपनी राजनीति को छिपाते थे, उनसे वे पूछते थे कि ‘‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’’ और उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि में फर्क न कर पाने के कारण दुविधा में पड़े साहित्यकारों को बताते थे कि लड़ाई तो तुम्हें लड़नी ही पड़ेगी, चाहे इस पक्ष में रहकर लड़ो या उस पक्ष में रहकर, इसलिए तय करो कि तुम किस पक्ष में हो।

मुक्तिबोध जिस यथार्थ के संदर्भ में ऐसे प्रश्न उठा रहे थे, वह उनके समय का भूमंडलीय यथार्थ था। उस समय दुनिया तीन दुनियाओं में बँटी हुई थी--पूँजीवादी देशों वाली पहली दुनिया, समाजवादी देशों वाली दूसरी दुनिया और औपनिवेशिक गुलामी से नये-नये आजाद हुए देशों वाली तीसरी दुनिया। पहली और दूसरी दुनियाओं के बीच शीतयुद्ध चल रहा था, जिसके एक पक्ष का नेतृत्व अमरीका कर रहा था और दूसरे पक्ष का नेतृत्व सोवियत संघ। तीसरी दुनिया के देशों के सामने एक विकल्प यह था कि वे पूँजीवादी खेमे में रहें, दूसरा विकल्प यह था कि समाजवादी खेमे में चले जायें और तीसरा विकल्प यह कि वे दोनों गुटों से अलग गुटनिरपेक्ष देशों के रूप में अपनी खिचड़ी अलग ही पकायें। भारत ने तीसरा विकल्प अपनाया और गुटनिरपेक्ष देशों का आंदोलन ही नहीं चलाया, उसका नेतृत्व भी किया। भारत ने वैश्विक राजनीति में ही नहीं, अपनी अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में भी एक मध्यम मार्ग अपनाया। उसमें थोड़ा पूँजीवाद और थोड़ा समाजवाद मिलाकर मिश्रित अर्थव्यवस्था चलायी। यह एक अच्छी विदेशनीति और अच्छी अर्थनीति थी, जो चलती रहती, तो हमारे देश का इतिहास आज कुछ और ही होता। बेहतर ही होता। लेकिन दुर्भाग्य से पूँजीवाद और समाजवाद दोनों के समर्थक इन नीतियों को गलत समझते थे। पूँजीवाद के समर्थक चाहते थे कि भारत अमरीका को अपना आदर्श माने और पूँजीवादी ढंग से अपना विकास करते हुए अमरीका जैसा देश बनने का प्रयास करे। इसलिए उन्हें नेहरू का समाजवादी रुझान, गुट-निरपेक्षता की विदेशनीति और मिश्रित अर्थव्यवस्था वाली आर्थिक नीति पसंद नहीं थी। दूसरी तरफ समाजवाद के समर्थक, जो सोवियत संघ को अपना आदर्श मानते थे, गुट-निरपेक्षता और मिश्रित अर्थव्यवस्था को राजनीतिक अवसरवाद या ढुलमुलपन समझते थे। उन्हें भारत का यह ढुलमुल रवैया पसंद नहीं था। वे चाहते थे कि भारत वैश्विक राजनीति में खुल्लमखुल्ला पूँजीवाद के विरुद्ध समाजवाद के पक्ष में खड़ा हो। यही अपेक्षा वे साहित्यकारों से करते थे। इसीलिए वे मुक्तिबोध के उपर्युक्त कथनों को बार-बार दोहराते थे। इसमें कहीं न कहीं यह भाव भी शामिल होता था कि जो हमारे साथ नहीं है, या तटस्थता की बात करता है, वह निश्चय ही दूसरे खेमे का है और हमारा शत्रु है। यदि ऐसा नहीं है, तो वह समाजवादी खेमे के पक्ष में खुलकर खड़ा हो और अपनी प्रतिबद्धता को स्पष्ट करे। अर्थात् हमारे साथ आकर अपनी प्रतिबद्धता का प्रमाण दे।

आगे चलकर जब समाजवादी शिविर के अंदर आपसी मतभेद उभरे और भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में यह सवाल उठा कि भारत में क्रांति रूसी रास्ते पर चलकर होगी या चीनी रास्ते पर चलकर, और इस सवाल पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन तथा पुनर्विभाजन होने से एक की जगह तीन-तीन कम्युनिस्ट पार्टियाँ बन गयीं, और बाद में तीनों के अपने अलग-अलग लेखक संगठन भी बन गये, तो साहित्यकार की प्रतिबद्धता का प्रश्न एक जटिल समस्या बन गया। लेखकों के लिए यह तय करना मुश्किल हो गया कि वे किससे प्रतिबद्ध हों। नेताओं ने इस समस्या का एक सरल समाधान यह बताया कि साहित्यकार उस दल और संगठन से जुड़ें, जो सबसे सही हो। लेकिन इससे हुआ यह कि वामपंथी दलों और उनसे जुड़े लेखक संगठनों में स्वयं को सही और दूसरों को गलत साबित करने की होड़ मच गयी। संकीर्णता और कट्टरता बढ़ी और इस विचार ने जोर पकड़ा कि जो लेखक हमारे दल और संगठन को सबसे सही नहीं मानता, वह हमारा शत्रु है। हमारा शत्रु, यानी जन-शत्रु, वर्ग-शत्रु, क्रांति का शत्रु, क्रांतिकारी विचारधारा का शत्रु। प्रगतिशील और जनवादी साहित्यकार अपनी प्रतिबद्धता पर ध्यान देने की जगह दूसरों की प्रतिबद्धता को सही-गलत ठहराने लगे और इसी आधार पर उन्हें मित्र या शत्रु समझने लगे। कहने को वे सभी मार्क्सवादी, प्रगतिशील और जनवादी थे, लेकिन उनमें वर्ण, जाति और संप्रदाय जैसे भेद, ऊँच-नीच तथा वैमनस्य के भाव दिखायी पड़ने लगे। इसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति गुलाबी, लाल और गाढ़े लाल रंगों वाले लेखकों के भेद के रूप में हुई। 1973 में रणजीत और केदारनाथ अग्रवाल ने बाँदा में प्रगतिशील लेखकों का जो सम्मेलन आयोजित किया था, उसे ‘‘विभिन्न रंगतों वाले प्रगतिशील लेखकों का सम्मेलन’’ कहा गया।

इस प्रकार साहित्यकार की प्रतिबद्धता का निर्णय उसकी दलगत संबद्धता को देखकर किया जाने लगा। कौन कितना अधिक प्रतिबद्ध है, इसका निर्णय उसकी ‘रंगत’ यानी दलगत संबद्धता को देखकर किया जाता था, जिसको प्रमाणित करने का काम उस दल के नेता अथवा उससे जुड़े लेखक संगठन के नेता करते थे। फिर दल और लेखक संगठन के भीतर भी अलग-अलग गुट होते थे, उन गुटों के अलग-अलग नेता होते थे, इसलिए लेखक को अपनी प्रतिबद्धता प्रमाणित कराने के लिए उनमें से किसी न किसी गुट में शामिल होना पड़ता था और उस गुट के नेता के प्रति निष्ठावान रहना पड़ता था। लेखक संगठनों में पार्टी के सदस्यों और समर्थकों की प्रतिबद्धता में तो भेद किया ही जाता था, पार्टी के सदस्य लेखकों को भी उनकी पार्टी पोजीशन के मुताबिक कम या ज्यादा प्रतिबद्ध माना जाता था।

होना तो यह चाहिए था कि प्रतिबद्धता को लेखक के निजी निर्णय पर आधारित और उसके नैतिक आचरण से संबंधित उसका एक आंतरिक गुण माना जाता, लेकिन हुआ यह कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता को उसकी दलगत प्रतिबद्धता में रिड्यूस करके देखा जाने लगा। इससे लेखकों में एक तरफ यह डर पैदा हुआ कि पार्टी की रीति-नीति से अलग कुछ लिखने पर कहीं उन्हें पार्टी-विरोधी न समझ लिया जाये, तो दूसरी तरफ तुलसीदास की-सी कट्टरता पैदा हुई कि ‘‘जाके प्रिय न राम-वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही’’! स्वयं को सही और दूसरों को गलत ठहराने की ऐसी होड़ मची कि प्रलेस (प्रगतिशील लेखक संघ) से जुड़े लेखक जलेस (जनवादी लेखक संघ) और जसम (जन संस्कृति मंच) से जुड़े लेखकों को गलत ठहराने लगे, जलेस से जुड़े लेखक प्रलेस और जसम से जुड़े लेखकों को गलत ठहराने लगे और जसम से जुड़े लेखक प्रलेस और जलेस से जुड़े लेखकों को गलत ठहराने लगे। दूसरी पार्टियों को गलत और अपनी पार्टियों को सही सिद्ध करते-करते वे अपनी पार्टी को इतनी ज्यादा सही मानने लगे कि जैसे वह तो गलती कर ही नहीं सकती और उन्हें हर हाल में उसे सही साबित करना ही है। यही कारण था कि ‘‘चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन’’ का नारा देने वाली पार्टी हो या आपातकाल का समर्थन करने वाली पार्टी या ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने की ‘‘हिमालयन ब्लंडर’’ करने वाली पार्टी, लेखकों ने अपनी-अपनी पार्टी को सही ही सिद्ध किया। इससे यह भी हुआ कि पार्टियों से प्रतिबद्ध लेखकों की रचनाओं में यथार्थ की जगह पार्टी द्वारा की गयी उसकी राजनीतिक व्याख्या लिखी जाने लगी। यहाँ तक कि मार्क्सवाद भी अपने-आप पढ़ने-समझने की चीज नहीं रहा, पार्टी उसकी जो व्याख्या करती, उसी को मार्क्सवाद मान लिया जाता। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही था कि स्वतंत्र रूप से सोचने-समझने वाले लेखक पार्टी-विरोधी मान लिये जायें और अंधभक्तों की तरह व्यवहार करने वाले लेखक प्रतिबद्ध लेखक माने जायें।

मेरे विचार से प्रतिबद्धता का मतलब दलगत राजनीति की रस्सी गले में डालकर पार्टी के खूँटे से बँध जाना नहीं है। मार्क्सवाद से लेखक की प्रतिबद्धता का मतलब है मार्क्सवाद को स्वयं पढ़ना-समझना, उसके आधार पर यथार्थ को अपने ढंग से विश्लेषित और व्याख्यायित करना, और अपनी व्याख्या पार्टी की व्याख्या से भिन्न होने पर अपनी समझ पर भरोसा करते हुए उसी के अनुसार यथार्थ का चित्रण करना, यथार्थवादी रहते हुए अपनी प्रतिबद्धता को कायम रखना, उसे विस्तार और गहराई देना, अपनी कथनी और करनी की एकता पर आधारित सच्चा प्रतिबद्ध आचरण करना और सोद्देश्य, सार्थक, कलात्मक तथा पाठकों को प्रेरित करने वाला लेखन करना। प्रतिबद्ध लेखक को यह मानकर चलना चाहिए कि उसके लेखन के अच्छे-बुरे परिणामों के लिए कोई दल या संगठन नहीं, वह स्वयं जिम्मेदार है। अतः उसे अपनी प्रतिबद्धता को दल या संगठन से प्रमाणित कराने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन 1970-80 के दशकों में हिंदी के प्रगतिशील-जनवादी लेखकों की प्रतिबद्धता दलगत आधारों पर जाँची-परखी जाती थी और पार्टियों के साहित्यिक कमिसार लेखकों को उनकी प्रतिबद्धता के प्रमाणपत्र दिया करते थे। लेकिन जब प्रतिबद्धता को प्रमाणित कराना पड़े, इसके लिए समझौते करने पड़ें, तो प्रतिबद्धता एक मजाक बनकर रह जाती है।

जिन दिनों हिंदी साहित्य में प्रतिबद्धता का यह हाल हो रहा था, ऐसी प्रतिबद्धता से परेशान प्रगतिशील और जनवादी लेखकों के बीच एक चुटकुला चला करता था कि एक लीडर कॉमरेड अपने काडर कॉमरेड से कहता है--‘‘आओ, साथी, तुम्हारी आत्मालोचना करें।’’ इस पर काडर कॉमरेड लीडर कॉमरेड से कहता है--‘‘साथी, इससे तो अच्छा, मैं आत्महत्या कर लूँ।’’ यह सुनकर लीडर कॉमरेड कहता है--‘‘तो ठीक है, आओ, तुम्हारी आत्महत्या करते हैं।’’

इस चुटकुले का ‘आत्मालोचना’ वाला पूर्वार्ध पहले से चला आ रहा था, ‘आत्महत्या’ वाला उत्तरार्ध मैंने गढ़ा था, क्योंकि मैं प्रतिबद्धता को किसी अन्य से प्राप्त प्रमाणपत्र या मैडल नहीं, लेखक का अपना आंतरिक गुण मानता था और मानता हूँ।

मैं साहित्यकार की प्रतिबद्धता को एक नैतिक निर्णय और उस पर आधारित नैतिक आचरण मानता हूँ। मेरी यह मान्यता मार्क्सवाद और साम्यवादी आंदोलन के इतिहास के मेरे अध्ययन पर आधारित है। उसी अध्ययन के आधार पर मैंने 1974 में ‘कम्युनिस्ट नैतिकता’ नामक पुस्तिका लिखी थी, जिसे एक तरफ व्यापक स्वीकृति और सराहना प्राप्त हुई थी, तो दूसरी तरफ जिसकी तीखी आलोचना भी हुई थी। तीखी आलोचना करने वालों में मेरे आदरणीय मित्र सव्यसाची भी थे, लेकिन बाद में जब वैश्विक परिस्थिति बदल गयी थी, उन्होंने अपनी भूल मानते हुए लिखा था कि मैंने उस पुस्तिका में जो सवाल उठाये थे, वे सही और जरूरी थे।

1973 के बाँदा सम्मेलन में मुझे किस रंगत के प्रगतिशील लेखक के रूप में बुलाया गया था, मुझे मालूम नहीं; क्योंकि मैं अपने लेखन के आधार पर प्रगतिशील माना जाता था, किसी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता के आधार पर नहीं। बाद में जब मैं जनवादी लेखक संघ के निर्माण में सक्रिय हुआ और उसके निर्माण के बाद पहले उसकी केंद्रीय कार्यकारिणी में तथा बाद में उसके राष्ट्रीय सचिव मंडल में मुझे शामिल किया गया, तब भी मैं किसी कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य नहीं था। जनवादी लेखक संघ के मेरे कई साथी--जिनमें चंद्रबली सिंह, भैरव प्रसाद गुप्त, शिव कुमार मिश्र, ओमप्रकाश ग्रेवाल, सव्यसाची, इसराइल और कुँवरपाल सिंह जैसे मेरे कई अग्रज मित्र शामिल थे--मुझसे कहा करते थे कि अब तो तुम्हें पार्टी की सदस्यता ले ही लेनी चाहिए। लेकिन यह जानते हुए भी कि बहुत-से लोग मुझे सी.पी.एम. का कट्टर कार्ड होल्डर कार्यकर्ता समझते हैं--बहुधा मेरे बारे में ऐसा कहा और लिखा भी जाता रहा है--मैंने अपनी प्रतिबद्धता पर किसी पार्टी का ठप्पा लगवाना उचित नहीं समझा। मुझे याद है कि एक बार शिव कुमार मिश्र और अजय तिवारी मुझे पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लेने का सुझाव देने के लिए मेरे घर आये थे। दोनों मेरे आदर और स्नेह के पात्र हैं, लेकिन मैंने उनके सुझाव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए अध्यापक पूर्णसिंह के निबंध ‘आचरण की सभ्यता’ का एक वाक्य उद्धृत किया था कि ‘‘सच्चा साधु धर्म को गौरव देता है, धर्म किसी को गौरवान्वित नहीं करता’’।

बहरहाल, वह दौर गुजर चुका है और ऐसा लगता है कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता की बात करना ‘आउट ऑफ फैशन’ हो गया है। आज के साहित्यकारों के लिए, खास तौर से नयी पीढ़ी के साहित्यकारों के लिए, उसका कोई मतलब नहीं रह गया है। जब उनके लिए समाजवाद ही समाप्त हो गया, मार्क्सवाद ही अप्रासंगिक हो गया, प्रगतिशीलता और जनवाद का ही कोई मतलब नहीं रहा, तो प्रतिबद्धता का क्या मतलब? किसी हद तक उनकी बात ठीक भी है, क्योंकि 1970-80 के दशकों की बहुत-सी बातें अब अपना अर्थ खो चुकी हैं। बर्लिन की दीवार के ढहने के बाद से दुनिया का यथार्थ बहुत बदल गया है। सोवियत संघ तो रहा ही नहीं, रूस और पूर्वी यूरोप के देशों में भी समाजवाद की जगह पूँजीवाद आ गया है। चीन में कहने को अब भी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन है, लेकिन वहाँ ठाठ से पूँजीवाद चल रहा है। वह जमाना ही हवा हो गया है, जब एक दुनिया पूँजीवादी थी, दूसरी समाजवादी, और तीसरी दुनिया के हमारे जैसे देशों के पास यह विकल्प था कि हम पहली और दूसरी दुनिया के बीच जारी शीतयुद्ध में किसके पक्ष में खड़े हों या दोनों गुटों से अलग अपना गुटनिरपेक्ष आंदोलन चलायें।

बदले हुए यथार्थ में कुछ विकल्प तो वास्तव में नहीं बचे हैं, लेकिन कई विकल्प अब भी बचे हुए हैं और कई नये विकल्प पैदा हो गये हैं। उदाहरण के लिए, यह पुराना विकल्प बचा हुआ है कि निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र वाली मिश्रित अर्थव्यवस्था को अब भी जारी रखा जा सकता है और नया विकल्प यह पैदा हुआ है कि अब ‘‘एक देश में समाजवाद’’ की जगह ‘‘पूरी दुनिया में समाजवाद’’ लाया जा सकता है। आज का पूँजीवाद इसी डर से दुनिया को विकल्पहीन बनाने की कोशिश कर रहा है। वह ऐसा करने में समर्थ तो नहीं है, लेकिन अपने विश्वव्यापी प्रचार तंत्र के जरिये बहुत-से लोगों के मन में यह बात भरने में जरूर सफल हो रहा है कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। वह अपने असंख्य मुखों से कह रहा है कि शीतयुद्ध समाप्त हो गया है, उस युद्ध में समाजवाद हार गया है, पूँजीवाद जीत गया है, और इस प्रकार दुनिया दो ध्रुवों वाली न रहकर एकध्रुवीय हो गयी है। भूमंडलीकरण ने पहली, दूसरी और तीसरी दुनिया के भेद मिटा दिये हैं। दुनिया एक ग्लोबल गाँव बन गयी है। अब उस ग्लोबल गाँव के चौधरी जी-7 वाले सात देश हों या जी-20 वाले बीस देश, उन सबका मुखिया एक अमरीका ही है, जो ईश्वर की इच्छा से अखिल भूमंडल का स्वाभाविक शासक है। अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा--निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों वाला नव-उदार पूँजीवाद--जिसका कोई विकल्प नहीं है।

इस पूँजीवादी प्रचार का प्रतिवाद भी हो रहा है। समाजवादी विचारक किशन पटनायक ने एक पुस्तक लिखी है ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’। मुझ जैसे बहुत-से हिंदी लेखक भी यह मानते हैं कि दुनिया विकल्पहीन नहीं है। फिर भी, विकल्पहीनता के इस प्रचार से आज के बहुत-से साहित्यकार प्रभावित हैं। आपको याद होगा कि ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के मुँह से बार-बार ‘‘देयर इज नो ऑल्टरनेटिव’’ सुनकर वहाँ के लोगों ने इस कथन के प्रथमाक्षरों को जोड़कर उनका नाम ‘टीना’ रख दिया था। मैंने जब हिंदी के कई साहित्यकारों को बार-बार ‘‘कोई विकल्प नहीं’’ कहते सुना, तो उसी तर्ज पर इस पद के प्रथमाक्षरों को जोड़कर उनका नाम ‘कोविन’ रख दिया और एक निबंध लिखा ‘हिंदी साहित्य के कोविन’। उसमें मैंने लिखा कि हिंदी के कई लेखक पहले हर चीज के विकल्प की जरूरत बताते थे--वैकल्पिक व्यवस्था, वैकल्पिक सरकार, वैकल्पिक राजनीति, वैकल्पिक मीडिया, वैकल्पिक शिक्षा, वैकल्पिक साहित्य, वैकल्पिक संस्कृति आदि--लेकिन अब उन्हें अपनी ही बातें गलत या झूठी लगती हैं। अब उनका नारा है: कोई विकल्प नहीं है। वे यह मानते हैं, और खुल्लमखुल्ला कहते भी हैं, कि पहले वे नासमझ थे, अब समझदार हो गये हैं। दुनिया बदल गयी है, एक सर्वथा नयी परिस्थिति पैदा हो गयी है, इसलिए साहित्य, साहित्यकारों, साहित्यिक संस्थाओं, साहित्यिक संगठनों, साहित्यिक पत्रिकाओं आदि को भी बदल जाना चाहिए।

मैंने उस निबंध में यह भी लिखा था कि हिंदी साहित्य के कोविन लेखक की पक्षधरता और प्रतिबद्धता तथा साहित्य की सार्थकता और सोद्देश्यता को भुलाकर यह मानने लगे हैं कि साहित्य स्वायत्त है। समाज से उसका कोई लेना-देना नहीं है। उसका कोई प्रयोजन नहीं होता। वह भाषा का खेल या खिलवाड़ है। वह मीडिया के जरिये बाजार में बिकने वाला माल है। उसे बेचकर अधिक से अधिक लाभ कमाना ही लेखक का उद्देश्य है। जो जितना ज्यादा बिके, उतना ही बड़ा लेखक है। समाज वगैरह की चिंता छोड़कर लेखक को अपना बाजार बनाना चाहिए। हिंदी का या भारत का बाजार बहुत छोटा है, इसलिए उसे विश्व बाजार में अपनी जगह बनानी चाहिए!

आज के नये लेखकों पर कोविनों का काफी असर है। बात यह है कि साहित्य के शिक्षक, आलोचक, साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक, साहित्यिक संस्थाओं के नियामक, पुरस्कारों के निर्णायक आदि यथार्थ को जिस रूप में देखते-दिखाते हैं, नयी पीढ़ी के लेखक अक्सर उसी को यथार्थ मानने लगते हैं। आज के वे नये लेखक, जो विकल्पहीनता को ही यथार्थ मानते हुए साहित्य की दुनिया में आये हैं, बाजार और बाजारवाद में फर्क नहीं कर पाते हैं। उन्हें शायद किसी ने बताया ही नहीं कि बाजार तो पूँजीवाद के आने के पहले भी था और शायद पूँजीवाद के जाने के बाद भी रहेगा, लेकिन बाजारवाद एक विशेष प्रकार का पूँजीवाद है, जिसे नव-उदार पूँजीवाद कहते हैं और जिसमें यह माना जाता है कि अर्थव्यवस्था में राज्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, क्योंकि बाजार की ताकतें अर्थव्यवस्था को ज्यादा अच्छी तरह चला सकती हैं। बाजारवाद पूँजीवाद का एक प्रकार है और वह शाश्वत या निर्विकल्प नहीं है। इसका विकल्प है समाजवाद। और आज का भूमंडलीय यथार्थ यह है कि दुनिया पूँजीवाद से तंग आ चुकी है और इसके विकल्प समाजवाद की ओर जा रही है। भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह भूमंडलीय समाजवाद का विचार आज की दुनिया का सबसे नया और प्रेरक विचार है।

आज का पूँजीवाद अपनी कब्र खोदने वाले इस विचार से आतंकित है। वह इसे दबाने, गलत ठहराने और खत्म करने के तमाम हथकंडे अपना रहा है, लेकिन इसमें सफल नहीं हो पा रहा है। यह आज का भूमंडलीय यथार्थ है। नयी पीढ़ी को इस यथार्थ से परिचित कराने का काम प्रगतिशील और जनवादी साहित्यकारों को, उनके लेखक संगठनों को, वामपंथी दलों को और उनसे संबद्ध सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। लेकिन जब उनमें से अधिकांश कोविन बन गये हों, विकल्पहीनता को ही यथार्थ मानने लगे हों, सोवियत संघ के विघटन से हताश और लस्त-पस्त होकर बैठ गये हों, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को अपना आदर्श मानकर समाजवाद की जगह पूँजीवाद को ही भूमंडलीय यथार्थ मानने लगे हों, उसी के अनुसार अपनी रीति-नीति निर्धारित करने लगे हों, तो नये साहित्यकारों को भूमंडलीय समाजवाद के विचार से प्रतिबद्ध होने के लिए कौन प्रेरित करेगा?

कोविनों द्वारा इस प्रश्न का जो उत्तर आम तौर पर दिया जाता है, वह विकल्पहीनता के निराशाजनक विचार में से निकलता है और निराशा ही फैलाता है। यह उत्तर कुछ इस प्रकार का होता है: क्या किया जाये, प्रगतिशील और जनवादी साहित्य का वह आंदोलन ही समाप्त हो गया है, जो लेखकों को प्रतिबद्ध होने के लिए प्रेरित करता था। वामपंथी दल और उनके लेखक संगठन ऐसा कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर पा रहे, जो नये लेखकों को वामपंथ की ओर आकर्षित करे। वामपंथी राजनीतिक नेताओं को तो साहित्य-वाहित्य की तरफ ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं है, लेखक संगठनों के नेता भी नये लेखकों से कोई जीवंत संबंध, संपर्क और संवाद नहीं बना पा रहे हैं। नतीजा यह है कि नये लेखक प्रगतिशीलता, जनवाद, समाजवाद और मार्क्सवाद की ओर आकर्षित होने के बजाय बाजारवादी और अवसरवादी बन रहे हैं। समाज, देश, दुनिया और मानवता की बेहतरी के लिए प्रतिबद्ध लेखन करने के बजाय व्यक्तिगत सफलता और निजी उपलब्धियों के लिए अप्रतिबद्ध लेखन करते हैं। फिर, नये लेखक यह भी देखते हैं कि प्रगतिशील और जनवादी लेखक भी तो प्रतिबद्धता का कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं--वे या तो अपने दल या संगठन के कार्यकर्ता बनकर रह गये हैं और लिखना बंद कर बैठे हैं, या ऐसा खराब लेखन करते हैं, जिससे नये लेखक प्रेरित होना तो दूर, प्रभावित भी नहीं होते। ऐसे में नये लेखक किससे प्रभावित और प्रेरित होकर प्रतिबद्ध लेखन करें?

जाहिर है कि यह प्रश्न का उत्तर या समस्या का समाधान नहीं, बल्कि विकल्पहीनता से चलकर विकल्पहीनता तक ही पहुँचने वाली निराशाजनक बातें या शिकायतें हैं। ये बातें या शिकायतें निराधार तो नहीं हैं, लेकिन एक बंद दायरे की सोच को सामने लाती हैं। होना यह चाहिए कि हम ‘कला के लिए कला’ वालों की तरह प्रश्न उठाने के लिए प्रश्न न उठायें, बल्कि उनके उत्तर खोजें। समस्याओं की ही बात न करें, उनके समाधान भी सोचें। माना कि आज का साहित्यिक वातावरण निराशाजनक है, लेकिन सवाल यह है कि इसे बदलने और बेहतर बनाने का काम कौन करेगा? क्या इस काम को करने के लिए वामपंथी दलों के नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता आयेंगे? क्या इस काम को लेखक संगठनों के नेता करेंगे? उन्हें यह काम करना होता, या वे कर सकते, तो क्या वे इस काम को कर न रहे होते? तो फिर, क्या इस काम को करने के लिए आसमान से कोई फरिश्ते आयेंगे?

मेरा कहना यह है कि यह काम प्रतिबद्ध लेखकों का है और उन्हीं को करना है। यहाँ मुझे अपना ही उदाहरण देने के लिए क्षमा किया जाये, लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूँ कि मैं किस तरह सोचता हूँ। मैं अपने-आप से कहता हूँ--क्या तुमसे किसी डॉक्टर ने कहा था कि तुम्हें लेखक बनना है और प्रतिबद्ध लेखक ही बनना है? तुम स्वेच्छा से लेखक बने थे और प्रतिबद्ध लेखन करने का निर्णय तुम्हारा अपना निर्णय था। तुम जब चाहो, अपने इस निर्णय को बदल भी सकते हो। अगर तुम लिखना बंद कर दो, अथवा यह घोषणा कर दो कि अब तुम प्रतिबद्ध लेखक नहीं हो, तो तुम पर, समाज पर और साहित्य पर कोई कहर नहीं टूट पड़ेगा। उलटे, हो सकता है, तुम्हें इससे कुछ फायदा ही हो जाये। लेकिन जब तक तुम अपने निर्णय पर कायम हो, अपनी प्रतिबद्धता में कमी या शिथिलता आ जाने के लिए दूसरों को दोषी नहीं ठहरा सकते। प्रतिबद्ध लेखक बने रहने के लिए जो भी करना जरूरी है, तुमको ही करना है। परिस्थितियाँ प्रतिकूल हैं, तो उनको अनुकूल बनाने का काम किसी और का नहीं, तुम्हारा ही है। माना कि तुम्हारी सीमाएँ हैं, तुम अकेले सब कुछ नहीं कर सकते, लेकिन उस काम को तो ढंग से करो, जिसे करने का निर्णय तुमने लिया है। तुम वही करो, जो कर सकते हो; मगर उसे बेहतरीन ढंग से करना तुम्हारी जिम्मेदारी है। उसको न कर पाने के लिए वातावरण और परिस्थितियों को दोष देकर तुम अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। तुम लेखक हो और नहीं लिख पा रहे हो, या अच्छा नहीं लिख पा रहे हो, तो लिखना बंद कर देने का विकल्प तुम्हारे सामने हमेशा खुला है। यदि तुम प्रतिबद्ध लेखक नहीं बने रहना चाहते, तो अप्रतिबद्ध लेखक बन जाने का विकल्प भी तुम्हारे सामने हमेशा खुला है। मगर जब तक तुम लेखक हो, बेहतरीन ढंग से लिखने की कोशिश करना तुम्हारा काम है। जब तक तुम प्रतिबद्ध लेखक हो, प्रतिबद्ध लेखन के लिए अनुकूल वातावरण बनाना भी तुम्हारा काम है। प्रतिबद्ध लेखक का काम यथार्थ को केवल देखना-दिखाना ही नहीं, उसे बदलना भी है। मौजूदा परिस्थितियाँ वास्तव में प्रतिकूल हैं और उनसे जो निराशा पैदा होती है, वह भी एक यथार्थ है। लेकिन यथार्थ कभी इकहरा नहीं होता। वह द्वंद्वात्मक होता है। कोई भी स्थिति या परिस्थिति सर्वथा और सदा-सर्वदा के लिए निराशाजनक नहीं होती। घना अँधेरा, जिसमें रास्ता नहीं सूझता, एक यथार्थ है। उसमें भटकते हुए लोगों को यदि ऐसा लगता है कि कहीं कोई रास्ता नहीं है, तो उनका यह अनुभव भी यथार्थ है। इस अनुभव से उत्पन्न होने वाली उनकी निराशा भी यथार्थ है। लेकिन यथार्थ यही और इतना ही नहीं है। यथार्थ यह भी है कि प्रत्येक अंधकार में प्रकाश की संभावना मौजूद रहती है। उदाहरण के लिए, घने अँधेरे में माचिस की एक नन्ही-सी तीली या एक छोटी-सी टॉर्च भी प्रकाश पैदा कर सकती है। यह संभावना भी यथार्थ है। इसलिए केवल अंधकार को देखना और उसमें प्रकाश की संभावना को न देखना यथार्थवाद नहीं है। यथार्थ को उसके द्वंद्वात्मक रूप में देखना ही यथार्थवाद है।

अपने-आप से इस तरह का संवाद करते रहने के कारण ही मैं यह समझ पाया हूँ कि आज के लेखक के लिए यथार्थवादी होना पहले के किसी भी समय से ज्यादा जरूरी है। मैं देख रहा हूँ कि आज के यथार्थ को केवल अपने देश के अथवा स्थानीय यथार्थ के रूप में नहीं समझा जा सकता। उसे भूमंडलीय यथार्थ के रूप में ही समझा जा सकता है। इसलिए आज का यथार्थवाद पहले के सभी यथार्थवादों से भिन्न एक नया यथार्थवाद है। मैं इसे भूमंडलीय यथार्थवाद कहता हूँ। और मुझे लगता है कि आज का लेखक इसी यथार्थवाद को अपनाकर विकल्पहीनता के निराशावादी विचार से बच सकता है और आशावादी होकर आगे बढ़ सकता है।

सच कहूँ, तो मैं भी निराशा के एक दौर से गुजरा हूँ। सोवियत संघ का विघटन मेरे लिए निजी तौर पर एक बहुत बड़ा धक्का था। हालाँकि मैं सोवियत संघ कभी नहीं गया, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार का उम्मीदवार भी कभी नहीं रहा, सोवियत संघ की समर्थक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी कभी नहीं रहा; फिर भी, सोवियत संघ के विघटन से मुझे धक्का लगा। विश्वास ही नहीं हुआ कि समाजवाद का इतना बड़ा और मजबूत किला अपने ही आप कैसे ढह गया। दुनिया की दूसरी महाशक्ति माना जाने वाला देश इतना शक्तिहीन क्यों साबित हुआ? वहाँ की समाजवादी व्यवस्था ने पूँजीवादी व्यवस्था के आगे क्यों और कैसे घुटने टेक दिये? मेरे कुछ दिन गहरी निराशा में बीते। लेकिन मेरे यथार्थवाद ने मुझे उस निराशा से उबार लिया।

उस समय उत्तर-आधुनिकतावाद का बोलबाला था, जिसे हिंदी में प्रचारित-प्रसारित करने वाले लोग हर चीज के अंत की बातें कर रहे थे--इतिहास का अंत, विचारधारा का अंत, मार्क्सवाद का अंत, राष्ट्रवाद और समाजवाद जैसे महाआख्यानों का अंत, यहाँ तक कि कविता का अंत, कहानी का अंत, साहित्य का अंत और साहित्यकार का भी अंत! इससे जो निराशा फैल रही थी, उससे अपने-आप को उबारने के लिए मैंने भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाने वाली एक किताब लिखी। मैं उसका शीर्षक रखना चाहता था ‘यह सब कुछ का अंत नहीं है’। लेकिन ग्रंथशिल्पी प्रकाशन वाले मेरे मित्र श्याम बिहारी राय ने कहा कि यह तो किसी कविता की किताब का नाम लगता है, इस किताब का नाम कुछ और होना चाहिए। मुझे उनकी बात ठीक लगी और मैंने उस किताब का नाम रखा ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर-आधुनिकतावाद’। इस किताब का पहला अध्याय था ‘भविष्य-स्वप्न का लोप और उसकी पुनर्प्राप्ति’। (पहले यह अध्याय ज्ञानरंजन ने एक लेख के रूप में ‘पहल’ में छापा था। मराठी लेखक सूर्यनारायण रणसुभे को यह लेख इतना अच्छा और जरूरी लगा कि उन्होंने इसका अनुवाद मराठी में किया और ‘मार्क्सवाद्यांचे स्वप्न आणि नवी फेरमांडणी’ के नाम से स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराया।) उसमें मैंने स्वयं को ही संबोधित करते हुए लिखा था :

‘‘तुम कैसे मार्क्सवादी हो कि द्वंद्ववाद को भूलकर तस्वीर का एक ही पहलू देखते हो और निराश हो जाते हो? कल तक तुम्हें भविष्य उज्ज्वल ही उज्ज्वल क्यों नजर आता था? आज वही भविष्य अँधेरा ही अँधेरा क्यों दिखायी देता है? ऐसा कौन-सा प्रकाश होता है, जिसमें अंधकार की आशंका न हो? और, ऐसा कौन-सा अंधकार होता है, जिसमें प्रकाश की संभावना न हो? कल तक पूर्ण आशावादी बनकर तुम एक प्रकार की गलती कर रहे थे, आज पूर्ण निराशावादी बनकर दूसरे प्रकार की गलती कर रहे हो। बेहतर हो कि पहले प्रकार की गलती के लिए आत्मालोचना करो और दूसरे प्रकार की गलती न करने का निश्चय करो।’’

आत्मालोचना करते हुए मैंने पाया कि प्रगतिशील-जनवादी साहित्यकारों में फैली निराशा का कारण सोवियत संघ का बिखर जाना नहीं, बल्कि दुनिया में हो रहे परिवर्तनों को समझकर अपनी दशा और दिशा का सही आकलन न कर पाना है। दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है और हम पुराने ढंग से ही सोच रहे हैं, पुराने ढंग से ही काम कर रहे हैं। नयी परिस्थितियों में नये ढंग से काम करने की कोई परिकल्पना ही हमारे पास नहीं है--न प्रगतिशील-जनवादी साहित्यकारों के पास, न वामपंथी दलों और उनसे संबद्ध लेखक संगठनों के पास। मैं उन्हें तो बदल नहीं सकता था, लेकिन मैंने सोचा, मैं स्वयं को तो बदल सकता हूँ; अपने काम करने के पुराने तौर-तरीकों को तो बदल सकता हूँ। सबसे पहले तो मुझे अपने तईं इस नयी वैश्विक परिस्थिति को समझना है और फिर हो सके, तो अपने पाठकों को समझाना है। और इस प्रयास में भूमंडलीकरण का अध्ययन करते हुए यह यथार्थ मेरी समझ में आया कि पूँजीवाद एक वैश्विक व्यवस्था है, तो समाजवाद भी एक वैश्विक व्यवस्था ही है। जब पूँजी का भूमंडलीकरण हो सकता है, तो श्रम का क्यों नहीं? जब पूँजीवाद का भूमंडलीकरण हो सकता है, तो समाजवाद का क्यों नहीं? और मुझे लगा कि इस बदली हुई परिस्थिति में पूँजीवाद और समाजवाद के बारे में ही नहीं, यथार्थ और यथार्थवाद के बारे में भी नये सिरे से सोचना होगा; नये यथार्थवादी लेखक के रूप में सक्रिय होना होगा। मैंने सोचा, राजनीतिक दल और उनके लेखक संगठन कब इस तरह सोचेंगे और कब इस तरह सक्रिय होंगे, पता नहीं, लेकिन मैं स्वयं तो एक लेखक के रूप में नये ढंग से सक्रिय हो ही सकता हूँ।

लेकिन आसपास के लेखकों और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों से मैंने इस बारे में बात की, तो पता चला कि वे अभी ऐसा कुछ सोचने और करने की स्थिति या मनःस्थिति में नहीं हैं। हिंदी साहित्य पर उस समय एक तरफ उत्तर-आधुनिकतावाद और जादुई यथार्थवाद के नये फैशन छाये हुए थे, तो दूसरी तरफ वे अनुभववादी और कलावादी प्रवृत्तियाँ पुनः हावी हो रही थीं, जिन्हें 1970-80 के दशकों में प्रगतिशील-जनवादी साहित्य ने काफी पीछे धकेल दिया था। कई प्रगतिशील और जनवादी लेखक-संपादक भी भूमंडलीय यथार्थ को समझने और उसके बारे में कुछ करने की सोचने के बजाय बहती गंगा में हाथ धोते हुए उत्तर-उत्तर कर रहे थे--उत्तर-आधुनिकतावाद, उत्तर-समाजवाद, उत्तर-मार्क्सवाद! यथार्थ और यथार्थवाद पर नये सिरे से विचार करने की उन्हें फुर्सत ही नहीं थी। उलटे, मुझे ऐसी बातें करते देख उन्होंने मुझे पुरानी लकीर का फकीर समझा और मुँह फेरकर अपने काम में लग गये।

तब मैंने अपनी बेटी संज्ञा, कुछ पुराने मित्रों तथा कुछ नये उत्साही लेखकों को साथ लेकर अपनी पत्रिका ‘कथन’ को फिर से निकालना शुरू किया, जो पिछले पंद्रह साल से बंद पड़ी थी। और मुझे देखकर अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि बदलते हुए भूमंडलीय यथार्थ की चिंता करने वालों, उसका गंभीर अध्ययन करने वालों, उस पर चिंतन-मनन और लेखन करने वालों की कमी नहीं है। हिंदी में अभी ऐसे लोग कम हैं, लेकिन अंग्रेजी में कई लोग इससे संबंधित विषयों पर खूब लिख-बोल रहे हैं। विभिन्न देशों में पूँजीवादी भूमंडलीकरण के विरुद्ध अनेक प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। उनके बारे में लिखा जा रहा है और भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाने वाली ढेरों पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं।

मुझे आश्चर्य हुआ कि जब हिंदी के लेखकों को लिखने के लिए नये विषय नहीं मिल रहे हैं और वे अपने पुराने अनुभवों को ही नये रूपों में लिखते हुए अथवा अपने लेखन में कुछ नयापन लाने के लिए विदेशी लेखकों की नकल करते हुए एक ही जगह खड़े कदमताल कर रहे हैं, तब आज का भूमंडलीय यथार्थ सोचने-समझने और लिखने के लिए नित्य नये विषय प्रस्तुत कर रहा है। अतः ‘कथन’ में हमने भूमंडलीय यथार्थ के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया और हर अंक में एक नया विषय उठाकर उस पर विशेष सामग्री देने लगे। ‘कथन’ के लेखकों और पाठकों ने इस नयेपन का स्वागत किया और हमने नहीं, उन्हीं ने ‘कथन’ के लिए ‘‘हर बार कुछ नया: हर अंक एक विशेषांक’’ का नारा दिया। इस प्रकार अत्यंत सीमित निजी संसाधनों के बावजूद ‘कथन’ के अंक निरंतर नियत समय पर तथा उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकलने लगे। ‘कथन’ को हिंदी के बड़े से बड़े और नये से नये लेखकों का सहयोग मिलने लगा। नये विषयों पर अंग्रेजी में लिखने वाले लेखकों, विशेषज्ञों तथा चिंतकों-विचारकों को भी हमने ‘कथन’ से जोड़ा। हमने उन्हें यह सुविधा दी कि वे हमारे लिए अंग्रेजी में लिख दें, हम अनुवाद कर लेंगे; या उन्हें लिखने की फुर्सत नहीं है, तो बोल ही दें, हम रिकॉर्ड कर लेंगे और उनके विचारों को हिंदी में लिखकर प्रकाशित कर देंगे। नतीजा यह हुआ कि हमें ऐसे लोगों का भी भरपूर सहयोग मिला। इस प्रकार ‘कथन’ में ऐसे नये से नये विषयों पर केंद्रित अंकों का सिलसिला शुरू हुआ, जो हिंदी में पहली बार उठाये गये थे। उदाहरण के लिए, कुछ विषय हैं--‘यूटोपिया की जरूरत’, ‘आशा के स्रोतों की तलाश’, ‘विकल्प की अवधारणा’, ‘श्रम का भूमंडलीकरण’, ‘नयी विश्व व्यवस्था की परिकल्पना’, ‘नयी संस्थाओं की जरूरत’, ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’, ‘भाषा और भूमंडलीकरण’, ‘शिक्षा और भूमंडलीकरण’, ‘दुनिया की बहुध्रुवीयता’, ‘बाजारवाद और नयी सृजनशीलता’, ‘उत्पादक श्रम और आवारा पूँजी’, ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’, ‘वर्तमान संकट और दुनिया का भविष्य’ इत्यादि। और आज, जब ‘कथन’ के साठ अंक निकालने के बाद मैं उसका संपादन पूरी तरह संज्ञा को सौंप चुका हूँ और वह स्वतंत्र रूप से अपने संपादन में बारह अंक और निकाल चुकी है, तब मुझे लगता है कि इस काम को करते हुए एक लेखक के रूप में मेरा जो विकास हुआ है, अन्यथा कभी न हो पाता। मैं यह काम न करता, तो ‘आज के सवाल’ शृंखला की अब तक प्रकाशित पच्चीस पुस्तकें कैसे संपादित कर पाता? ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ तथा ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ जैसी पुस्तकें कैसे लिख पाता? ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘प्रजा का तंत्र’, ‘ग्लोबल गाँव के अकेले’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’ और ‘प्राइवेट पब्लिक’ जैसी कहानियाँ कैसे लिख पाता? और सबसे बड़ी बात यह कि नितांत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निरंतर उत्साही और आशावादी कैसे बना रह पाता?

इस दौरान मैंने यह भी देखा कि आजकल हिंदी लेखकों पर विकल्पहीनता के विचार और उससे पैदा होने वाली निराशा के हावी हो जाने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि उन्होंने अनुभववाद को ही यथार्थवाद समझते हुए, और उसी से संतुष्ट रहते हुए, अपने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा को आत्मसात करने, उसे आगे बढ़ाने और इसके लिए आज के यथार्थ को समझकर यथार्थवाद का विकास करने का जरूरी काम करना छोड़ दिया है। इसके लिए बहुत हद तक आज का पूँजीवाद जिम्मेदार है, जो अपने विश्वव्यापी प्रचारतंत्र के जरिये लोगों का ध्यान यथार्थ से हटाने का काम करता है, ताकि लोग यथार्थ को देखें ही नहीं, जानें ही नहीं, समझें ही नहीं; क्योंकि यथार्थ को देखने, जानने और समझने से लोग उसे बदलने और बेहतर बनाने की जरूरत महसूस करने लगते हैं तथा इसके लिए संगठित होकर सक्रिय होने लगते हैं। अतः वह अपने मीडिया के जरिये, शिक्षा संस्थानों और प्रकाशन संस्थानों के जरिये, मनोरंजन उद्योग के जरिये और नये-नये वैचारिक तथा साहित्यिक फैशनों के जरिये आम लोगों को ही नहीं, साहित्यकारों को भी यथार्थ से विमुख करता है। इसलिए आज के साहित्यकार के लिए जरूरी हो गया है कि वह केवल उसी को यथार्थ न समझे, जो उसके सामने आ रहा है या लाया जा रहा है; बल्कि स्वयं उसे उसके व्यापक रूप में जानने, समझने, आत्मसात करने और अपनी रचना में रूपायित करने का प्रयास करे।

इसका सबसे अच्छा तरीका तो यही है कि साहित्यकार स्वयं बाहर निकलकर दुनिया के यथार्थ को प्रत्यक्ष देखे और उसमें जीकर उसे जाने। लेकिन यह वांछित होते हुए भी संभव नहीं है। अतः आज के भूमंडलीय यथार्थ को जानने और उसके आधार पर यथार्थवादी रचना करने का एक ही तरीका है कि वह ज्ञान के वैकल्पिक माध्यमों से जुड़े। हालाँकि ऐसे वैकल्पिक माध्यमों में आज इंटरनेट एक मुख्य माध्यम बनकर उभर रहा है, फिर भी इसका सर्वोत्तम माध्यम आज भी किताबें ही हैं। अतः मुझे लगा कि ऐसी किताबें पढ़ना मेरे लिए तो जरूरी है ही, दूसरे लेखकों-पाठकों को उनकी जानकारी देना भी जरूरी है। यह सोचकर मैंने ‘कथन’ में ‘जरूरी किताबें’ नामक एक स्तंभ नियमित रूप से लिखना शुरू किया। उत्पल कुमार के नाम से यह स्तंभ मैं ही लिखता हूँ और ‘कथन’ का संपादन संज्ञा को सौंपने के बाद भी मैं इसे लिखना जारी रखे हुए हूँ। इस स्तंभ में मैं हर बार अंग्रेजी की एक किताब का विस्तार से, लगभग चार पृष्ठों में, परिचय देता हूँ और बताता हूँ कि इस किताब में क्या है और इसे पढ़ना क्यों जरूरी है। ‘कथन’ का प्रत्येक अंक किसी विशेष विषय पर केंद्रित होता है और मैं उसी विषय से संबंधित एक किताब चुनकर उसके बारे में लिखता हूँ। अब तक जिन किताबों का परिचय मैंने दिया है, उनमें से कुछ के नाम हैं--अंर्स्ट ब्लॉख की ‘दि प्रिंसिपल ऑफ होप’, माइकेल लोवी की ‘ऑन चेंजिंग दि वर्ल्ड’, मिशेल बॉड की ‘अ हिस्टरी ऑफ कैपिटलिज्म’, समीर अमीन की ‘कैपिटलिज्म इन दि एज ऑफ ग्लोबलाइजेशन’, फ्रांसिस मुलहेर्न की ‘कल्चर/मेटाकल्चर’, जॉन टॉमलिंसन की ‘कल्चरल इंपीरियलिज्म’, रॉबर्ट फिलिपसन की ‘लिंग्विस्टिक इंपीरियलिज्म’, मार्था नुसबॉम की ‘सेक्स एंड सोशल जस्टिस’, रोमी क्लार्क तथा रॉस इवानिच की ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ राइटिंग’, रोनाल्डो मुंक की ‘ग्लोबलाइजेशन एंड लेबर’ इत्यादि।

ऐसी किताबों से पता चलता है कि आज की दुनिया में ऐसे असंख्य सामाजिक तथा राजनीतिक आंदोलन चल रहे हैं, जिनसे दुनिया भविष्य में तो बदलेगी ही, आज भी बदल रही है। इन आंदोलनों के जरिये आज का भूमंडलीय यथार्थ तो सामने आ ही रहा है, दुनिया के लोगों में व्याप्त आशावादिता, दुनिया को बेहतर बनाने की मजबूत इच्छाशक्ति और समाजवादी प्रतिबद्धता भी सामने आ रही है। पिछले दिनों ऐसी एक किताब मेरे पढ़ने में आयी ‘ग्लोबल रिवोल्ट : अ गाइड टु दि मूवमेंट्स अगेंस्ट ग्लोबलाइजेशन’। अमोरी स्टार द्वारा लिखी गयी यह किताब वर्ल्ड सोशल फोरम के नारे ‘‘एक और दुनिया संभव है’’ को सच साबित करती है। इस किताब में दुनिया भर में चल रहे आंदोलनों के उदाहरण सामने रखकर बताया गया है कि आज भूमंडलीकरण के दो रूप सामने आ रहे हैं--एक वह, जो पूँजीवादी शक्तियों द्वारा ‘‘ऊपर से किया जा रहा भूमंडलीकरण’’ है और दूसरा वह, जो दुनिया के तमाम लोगों द्वारा ‘‘नीचे से किया जा रहा भूमंडलीकरण’’ है। शायद यह नीचे से किया जा रहा भूमंडलीकरण भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह भूमंडलीय समाजवाद के निर्माण की शुरूआत है।

इधर जब से पूँजीवादी व्यवस्था विश्वव्यापी मंदी की चपेट में आकर अपने इतिहास के सबसे बड़े संकट में फँसी है, उसके विरुद्ध दुनिया में जगह-जगह जन-असंतोष भड़क रहा है। उसके विरुद्ध जन-आंदोलनों और जन-विद्रोहों का सिलसिला अमरीका से लेकर यूरोप के उन देशों तक में चल पड़ा है, जो पूँजीवाद के सबसे मजबूत गढ़ रहे हैं। शातिर पूँजीवाद अपनी रक्षा के लिए इस स्थिति का भी लाभ उठा रहा है। वह विभिन्न देशों में ऐसे आंदोलन चलवा रहा है, जो होते तो जन-असंतोष से उत्पन्न तथा स्थानीय शासकों के विरुद्ध ही हैं, लेकिन फायदा भूमंडलीय पूँजीवाद को पहुँचाते हैं। पिछले दिनों अरब-अफ्रीकी देशों में वहाँ के तानाशाहों के विरुद्ध जो आंदोलन चले, कुछ इसी तरह के आंदोलन थे।

लेकिन पूँजीवाद की यह चाल ज्यादा चलने वाली नहीं है। पूँजीवाद द्वारा चलवाये जाने वाले तथाकथित जन-आंदोलनों और असली जन-आंदोलनों का फर्क अब स्पष्ट होने लगा है। खुद अमरीका में, जो दुनिया में जगह-जगह नकली जन-आंदोलन चलवाता है, पिछले दिनों यह फर्क स्पष्ट हो गया है। अमरीकी अर्थव्यवस्था के संकट में आने पर जब वहाँ की जनता की दुर्दशा हद से ज्यादा बढ़ गयी, तो यह माँग होने लगी कि गरीबों को राहत देने के लिए अमीरों पर टैक्स बढ़ाये जायें। यह माँग पूरी हो जाती, तो अमीरों को नुकसान होता। उससे बचने के लिए उन्होंने गरीबों को खरीदने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया और उनसे एक आंदोलन चलवाया--‘टी-पार्टी’ नाम का आंदोलन--जिसमें गरीब लोग खुद अपने हितों के खिलाफ जाकर यह माँग करते थे कि अमीरों पर टैक्स न बढ़ाये जायें। लेकिन कुछ ही समय बाद अमरीकी जनता ने ‘ऑकुपाई वॉल स्ट्रीट’ (वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो) नामक एक असली जन-आंदोलन शुरू कर दिया, जो देखते-देखते दुनिया के कई देशों में फैल गया है।

यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। ऐसे न जाने कितने असली जन-आंदोलन आज दुनिया भर में चल रहे हैं। भारत में मीडिया चूँकि पूँजीवादी मीडिया है, इसलिए वह पूँजीवाद को बनाये रखने के लिए चलवाये जाने वाले नकली जन-आंदोलनों को तो खूब दिखाता है, जैसे पिछले दिनों उसने भारत के अण्णा हजारे के आंदोलन को दिखाया, लेकिन पूँजीवाद को खत्म करके समाजवाद को लाने के लिए चलाये जाने वाले किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों आदि के असली आंदोलनों के बारे में बिलकुल खामोश रहता है। लेकिन मीडिया के न दिखाने से उनका अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। वे चल रहे हैं, चलेंगे और मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन सफल भी जरूर होंगे। यह आज का भूमंडलीय यथार्थ है और आज के प्रतिबद्ध साहित्यकारों का कर्तव्य है कि वे इस यथार्थ को सामने लायें।

--रमेश उपाध्याय

Saturday, October 8, 2011

सभ्यासभ्य संवाद

रामलीला मैदान में एक बहस

असभ्य : हे बाबू साहब, यह क्या तमाशा हो रहा है यहाँ?
सभ्य : तमाशा? यह तमाशा है? तू यहाँ इस ऐतिहासिक रामलीला मैदान में खड़ा है। उधर मंच पर बैठे अण्णा हजारे अनशन कर रहे हैं। उनके समर्थन में बाबा रामदेव भाषण दे रहे हैं। मंच के सामने ‘मैं अण्णा हूँ’ लिखी टोपियाँ पहने और तिरंगे लहराती पूरे देश की जनता अण्णा को देख और बाबा को सुन रही है। इधर मीडिया का अब तक के अपने इतिहास का सबसे बड़ा जत्था सातों दिन गुणा चौबीसों घंटे के हिसाब से इस अनशन का लाइव शो सारी दुनिया को दिखा रहा है। उधर दिल्ली पुलिस आदर्श भूमिका में शांति और अहिंसा की मूर्ति बनकर खड़ी है। और तू इसे तमाशा कह रहा है? तू टी.वी. नहीं देखता? अखबार नहीं पढ़ता? देश में इतनी महान क्रांति हो रही है और तू...

असभ्य : असभ्य हूँ न, बाबू साहब! देखता-सुनता सब हूँ, पर समझता नहीं। क्रांतियों के बारे में मैंने पढ़ा-सुना ही है। अपनी आँखों से कोई क्रांति नहीं देखी। टी।वी. वालों को चीख-चीखकर यह कहते सुना कि देश में क्रांति हो रही है, तो मैं उसे देखने निकल पड़ा। शहर में दूर-दूर तक जाकर देख आया। कहीं नहीं दिखी। तब सोचा कि शायद रामलीला मैदान में ही हो रही होगी, इसलिए यहाँ आने के लिए चल पड़ा। सुना था कि देश की जनता भ्रष्टाचार का विरोध करने सड़कों पर उतर आयी है। पर मैं दिल्ली की कई सड़कें पार करता यहाँ तक पहुँचा हूँ। देश की तो क्या, मुझे तो दिल्ली शहर की जनता भी कहीं भ्रष्टाचार का विरोध करती नजर नहीं आयी।

सभ्य : यहाँ तो नजर आ रही है!

असभ्य : यह जनता है? मुझे तो यहाँ सब शहरी और शिक्षित लोग दिख रहे हैं!

सभ्य : अरे, तू इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर लेता है! तूने तो कहा कि तू असभ्य है!

असभ्य : क्या करूँ, बाबू साहब! लगता है कि देश में एक नयी जात-बिरादरी पैदा हो गयी है, जिसका नाम है सिविल सोसाइटी। एक दिन मैंने आप सरीखे एक बाबू साहब से उनकी जात पूछी, तो कहने लगे, हम सिविल सोसाइटी हैं। मैंने कहा कि सोसाइटी माने समाज, और समाज में तो मैं भी रहता हूँ, तो मैं कौन सोसाइटी हूँ? बाबू साहब बोले कि तू अनसिविल सोसाइटी है। अब सिविल माने सभ्य, तो अनसिविल माने असभ्य ही हुआ न, बाबू साहब? तब से मैं अपने-आप को असभ्य कहने लगा। पर सिविल सोसाइटी क्या है, अभी तक नहीं समझा।

सभ्य : अरे, तू कैसा घामड़ है! इस आंदोलन में शामिल होने आ गया और यह नहीं जानता कि सिविल सोसाइटी क्या है?

असभ्य : आप जानते हैं? मुझे भी बताइए न!

सभ्य : बताना क्या है। तू खुद अपनी आँखों से देख ले। उधर मंच पर जो अण्णा के अगल-बगल बैठी उनके कान में कुछ कह रही है, वही है सिविल सोसाइटी।

असभ्य : अण्णा के अगल-बगल? इन दोनों को तो मैं पहचानता हूँ, बाबू साहब! एक तरफ हैं किरन बेदी और दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल। अण्णा के कान में जो फुसफुसा रहे हैं, वे तो केजरीवाल हैं। सिविल सोसाइटी कहाँ है?

सभ्य : अरे, बेवकूफ! वे ही सिविल सोसाइटी हैं। अच्छा, तू एन.जी।ओ. तो समझता है न?

असभ्य : एन.जी.ओ. कौन नहीं समझता, बाबू साहब! हिंदी में कहते हैं गैर-सरकारी संगठन। आजकल देश पर उनका ही राज है। लेकिन मैं कहता हूँ कि इनको गैर-सरकारी क्यों कहते हो? सरकारी ही कहो न!

सभ्य : क्यों, सरकारी क्यों?

असभ्य : देखिए, पहले जो काम सरकार करती थी, अब ये करते हैं। आउट-सोर्सिंग का जमाना है न! सरकारी काम ठेकेदारों से कराने का जमाना। सरकार इनसे अपने काम कराती है और इसके लिए इनको पैसा देती है, तो ये एक तरह से सरकारी ही हुए न!

सभ्य : तू इतना जानता है, तो यह भी जानता होगा कि कई एन.जी.ओ. सरकार से कोई पैसा नहीं लेते।

असभ्य : लेकिन एन।जी.ओ. चलाने के लिए पैसा तो चाहिए। भारत की सरकार से नहीं, तो अमरीका-यूरोप की सरकारों से लेते होंगे। नहीं तो फिर जो सरकारों के भी सरकार हैं, यानी कारपोरेटिए, उनसे। मैंने सुना है, आजकल कारपोरेटिए, चाहे देशी हों या विदेशी, गैर-सरकारी संगठनों पर बड़े मेहरबान हैं। ‘हिंदू’ अखबार में अरुंधती राय के एक लेख में मैंने पढ़ा था कि ये जो केजरीवाल हैं, ये एक भ्रष्टाचार-विरोधी एन.जी.ओ. चलाते हैं और उसे फोर्ड फाउंडेशन से लाखों डॉलर मिले हैं।

सभ्य : तू यह सब भी जानता है?

असभ्य : आप जैसे सभ्य लोगों की कृपा से हम असभ्यों को भी कुछ ज्ञान मिल जाता है। लेकिन एक बात बताइए, यह जो आंदोलन यहाँ हो रहा है, भारत सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ है न?

सभ्य : हाँ।

असभ्य : तो भारत सरकार इसकी मदद क्यों कर रही है?

सभ्य : मदद? सरकार अपने ही खिलाफ चलाये जा रहे आंदोलन की मदद क्यों करेगी?

असभ्य : आप तो सभ्य हैं, बाबू साहब, यह तो जानते ही होंगे कि सब आंदोलन एक जैसे नहीं होते। आंदोलन आंदोलन में फर्क होता है और सरकार यह फर्क करती है।

सभ्य : वह कैसे?

असभ्य : देखिए, यह जो अण्णा जी का अनशन है, कोई पहला या अनोखा अनशन नहीं है। मैं उन अनशनों की बात नहीं कर रहा हूँ, जो देश के करोड़ों लोग गरीबी और बेरोजगारी की वजह से भुखमरी के रूप में करने को मजबूर होते हैं। मैं अन्याय और अत्याचार के मामलों के खिलाफ आंदोलन करने वालों के अनशनों की बात भी नहीं कर रहा हूँ, जो किसानों, मजदूरों और इसी तरह के और लोगों के नेता भूख हड़तालों के रूप में आये दिन करते रहते हैं और मीडिया में जिनकी खबर तक नहीं आती...

सभ्य : तो फिर तू किस तरह के अनशनों की बात कर रहा है?

असभ्य : भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाने वालों के अनशनों की। अच्छा, यह तो आप मानेंगे कि भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ घूसखोरी या पैसे की हेराफेरी नहीं होता? विद्वान लोग बताते हैं कि नीति-नियम और कायदे-कानून के खिलाफ जो किया जाये, वह भ्रष्ट आचरण या भ्रष्टाचार है। तो, खुद कानून का दुरुपयोग करना और अपराधियों को कानून के खिलाफ काम करने देना भी तो भ्रष्टाचार है न?

सभ्य : हाँ, है, तो?

असभ्य : तो मैं आपको भ्रष्टाचार विरोधी दो आंदोलनों और उनमें किये जाने वाले दो आमरण अनशनों की बात बताता हूँ। शायद आपने पढ़ा या सुना होगा कि मणिपुर की एक लड़की है इरोम शर्मिला। उसने जब देखा कि सरकार ने मणिपुर और पूर्वोत्तर के ज्यादातर इलाकों पर सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम थोप दिया है और उसकी आड़ में सुरक्षा बलों ने वहाँ के हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया है, तो वह इसके विरोध में आमरण अनशन पर बैठ गयी...

सभ्य : हाँ-हाँ, सुना है उसके बारे में। वह कुछ दिन यहाँ दिल्ली में भी जंतर-मंतर पर पड़ी रही थी।

असभ्य : हाँ, लेकिन जानते हैं, उसे दिल्ली क्यों आना पड़ा? उसने अनशन शुरू किया था मणिपुर में ही। लेकिन जब देखा कि सरकार तक उसकी खबर पहुँचाने वाला मीडिया उसके पास आ ही नहीं रहा है, तो वह दिल्ली चली आयी कि शायद यहाँ आमरण अनशन करने पर उसकी बात सुनी जाये। मगर यहाँ भी नहीं सुनी गयी। उसे आत्महत्या का प्रयास करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और अस्पताल में डाल दिया गया। दस साल से ऊपर हो गये हैं। वह इंफाल के अस्पताल के एक गंदे कमरे में अपराधी की तरह बंद है। सरकार उसकी नाक में नली डालकर जबर्दस्ती खाना उसके अंदर पहुँचाती है और चाहती है कि इससे तंग आकर वह अपना अनशन तोड़ दे। लेकिन वह अपने अनशन पर डटी है और सरकार उसकी उपेक्षा करते रहने पर तुली है।

सभ्य : वह भी कोई अनशन है! मुँह से न खाया, नाक से खाया! खाना तो मिल रहा है न! भूखी तो नहीं मर रही है न!

असभ्य : लेकिन स्वामी निगमानंद के अनशन को तो अनशन मानेंगे आप, जिनको सरकार ने भूखा मार दिया?

सभ्य : निगमानंद? कौन निगमानंद?

असभ्य : मुझे पता था कि आप उन्हें नहीं जानते होंगे, क्योंकि मीडिया ने उनकी उतनी भी सुध नहीं ली, जितनी इरोम शर्मिला की। आप सभ्य हैं, इतना तो जानते ही होंगे कि गंगा नदी प्रदूषित हो गयी है और इससे भारत सरकार ही नहीं, विश्व बैंक भी चिंतित है। सरकार ने कोई बीस साल पहले एक गंगा एक्शन प्लान बनाकर गंगा को साफ करने और रखने की सोची थी। उस प्लान पर नौ सौ साठ करोड़ रुपये खर्च किये गये। पर गंगा साफ न हुई। अब उसकी सफाई की जिम्मेदारी नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी को सौंपी गयी है और विश्व बैंक ने नये क्लीन गंगा प्रोजेक्ट के लिए एक बिलियन डॉलर...

सभ्य : अबे, तू यह सब क्या बता रहा है? निगमानंद के बारे में बता।

असभ्य : स्वामी निगमानंद उसी उत्तराखंड के थे, जिसके बाबा रामदेव हैं। लेकिन वे रामदेव की तरह कॉरपोरेट संत नहीं थे, जिनका हजारों करोड़ का व्यापार देश और विदेशों में फैला हुआ है। निगमानंद सचमुच संत थे। उन्होंने सरकारी भ्रष्टाचार के कारण माफियाओं द्वारा अवैध तरीके से चलाये जाने वाले और गंगा को प्रदूषित करने वाले स्टोन क्रशरों को बंद कराने का अभियान चलाया। लेकिन उनकी बात न तो उत्तराखंड की राज्य सरकार ने सुनी और न ही दिल्ली की केंद्रीय सरकार ने। तब स्वामी निगमानंद आमरण अनशन पर बैठ गये। दो बार बैठे। पिछली बार पिचहत्तर दिनों का अनशन किया था। इस बार उनके अड़सठ दिन के अनशन के बाद सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और अस्पताल में डाल दिया, जहाँ वे मर गये। यह उन्हीं दिनों की बात है, जब देहरादून के जौली ग्रांट अस्पताल में बाबा रामदेव का अनशन तुड़वाने के लिए मुख्यमंत्री निशंक और बड़े-बड़े संत जूस के गिलास लेकर हाजिर हो गये थे। लेकिन उसी अस्पताल में भरती रहे स्वामी निगमानंद को देखने न कोई नेता गया और न कोई संत। और तो और, मीडिया को भी जीते जी निगमानंद खबर बनने लायक नहीं लगे!

सभ्य : सबकी अपनी-अपनी हस्ती और हैसियत होती है। कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली!

असभ्य : मैं भी तो यही कह रहा था, बाबू साहब, कि सब आंदोलन एक जैसे नहीं होते और सरकार उनमें फर्क करती है। जो आंदोलन उसे वाकई अपने खिलाफ लगता है, उसको वह या तो उपेक्षा से मार डालती है या दमन का बुलडोजर चलाकर। लेकिन जो आंदोलन उसे अपने फायदे का लगता है, उसे वह खुद चलवाती है और उसकी खूब मदद करती है।

सभ्य : कैसे? मैंने यही तो पूछा था तुझसे! तू इधर-उधर की हाँकने लगा। अब बता, सरकार खुद अपने खिलाफ आंदोलन क्यों चलवायेगी? या अपने खिलाफ हो रहे किसी आंदोलन की मदद क्यों करेगी? और हवाई बात मत कर। ठोस उदाहरण देकर बात कर।

असभ्य : नाराज क्यों होते हैं, बाबू साहब, बता रहा हूँ। एक उदाहरण है बाबा रामदेव का आंदोलन और दूसरा है यह जो हो रहा है--सिविल सोसाइटी का आंदोलन!

सभ्य : तेरा दिमाग तो ठीक है? बाबा रामदेव का आंदोलन भी सरकार के खिलाफ था और यह सिविल सोसाइटी का आंदोलन भी सरकार के खिलाफ है। ऐसे आंदोलन सरकार खुद अपने खिलाफ क्यों चलवायेगी? या खुद उनकी मदद क्यों करेगी? क्या तुझे याद नहीं कि सरकार ने बाबा रामदेव का आंदोलन खत्म करने के लिए इसी रामलीला मैदान में कैसा दमनचक्र चलाया था? क्या तुझे यह भी याद नहीं कि इस समय यहाँ जो आंदोलन चल रहा है, इसे न चलने देने के लिए सरकार ने सिविल सोसाइटी को कितना परेशान किया था?

असभ्य : याद है, बाबू साहब, खूब याद है! भला कोई भूल सकता है कि जो बाबा रामदेव सरकार को उखाड़ फेंक सकने की ताकत अपने अंदर होने की बात कर रहे थे, वे किस तरह जनाने कपड़े पहनकर यहाँ से भागे थे! टी.वी। पर उनको वह जनाना सूट पहने देख मेरा तो हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया था।

सभ्य : तो क्या इससे यह साबित नहीं होता कि बाबा रामदेव का आंदोलन सरकार के खिलाफ था और इसीलिए सरकार ने उसका दमन किया?

असभ्य : तनिक अपनी याददाश्त पर जोर डालिए, बाबू साहब! बाबा रामदेव जब इस रामलीला मैदान पर अनशन करने आये थे, तब क्या हुआ था? सरकार के चार-चार मंत्री हवाई अड्डे पर उनका स्वागत करने गये थे। सरकार और बाबा रामदेव के बीच बाकायदा लिखित समझौता हुआ था कि बाबा को किस तरह अनशन करना है और कब खत्म कर देना है। लेकिन मंच पर बैठे बाबा ने जब देखा कि उनका समर्थन करने उनके भक्त ही नहीं आ रहे, बल्कि प्रमुख विपक्षी दल के लोग भी आ रहे हैं, तो शायद उनको लगा कि वे सरकार से किये गये समझौते को तोड़ सकते हैं और प्रमुख विपक्षी दल की राजनीति को आगे बढ़ाकर खुद आगे बढ़ सकते हैं...

सभ्य : तो इसमें क्या है! राजनीति में तो ऐसे दाँव-पेंच चलते ही हैं। शास्त्रों में भी लिखा है--शठे शाठ्यं समाचरेत्!

असभ्य : ठीक! सरकार ने भी रामदेव के साथ यही किया--शठे शाठ्यं समाचरेत्! जब रामदेव तयशुदा हद से बाहर जाकर समझौता तोड़ने लगे, तो सरकार के एक मंत्री ने मीडिया के सामने आकर वह लिखित समझौता जग-जाहिर कर दिया। आखिर कोई सत्ताधारी दल अपने फायदे के लिए चलवाये गये आंदोलन को अपने खिलाफ चलने देकर अपना नुकसान कैसे होने दे सकता है? इसीलिए सरकार ने बाबा और उनके भक्तों को मार भगाया।

सभ्य : अच्छा, रामदेव को छोड़, यह बता कि यह जो सिविल सोसाइटी का आंदोलन है, यह तो सचमुच सरकार के खिलाफ है न! अगर है, तो तूने यह कैसे कहा कि सरकार इसकी मदद कर रही है? सरकार ने तो पूरी कोशिश की थी कि यह अनशन दिल्ली में होने ही न पाये!

असभ्य : आप तो विद्वान हैं, बाबू साहब, जानते ही होंगे कि नूरा कुश्ती क्या होती है। तो यहाँ रामलीला मैदान में इस आंदोलन के शुरू होने के पहले सिविल सोसाइटी और सरकार के बीच जो हुआ, नूरा कुश्ती का नायाब नमूना था। जो इस बात को नहीं समझे, वे यही समझते रहे कि सरकार सिविल सोसाइटी से डर गयी है। शायद उसे डर है कि अण्णा जी ने दिल्ली में अनशन किया, तो उसका तख्ता पलट जायेगा। शायद इसी डर के मारे वह एक पर एक बेवकूफी किये जा रही है। पहले दिल्ली में अनशन करने की इजाजत न देना। फिर अण्णा जी की मनचाही जगह पर अनशन करने की इजाजत न देना। फिर दुनिया भर की ऐसी शर्तें लगाकर, जिनका पालन कोई कर ही न सके, एक जगह अनशन करने की इजाजत देना। और फिर उस जगह पर धारा एक सौ चवालीस लगाना और अण्णा के वहाँ पहुँचने के पहले ही उनको गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल भेज देना। यह सरकार की कमजोरी और बेवकूफी थी या इन दोनों की मिली-भगत?

सभ्य : मिलीभगत? क्या बकवास करता है! दोनों पक्षों के बीच का तनाव और टकराव मीडिया में साफ दिख रहा था। मीडिया पल-पल की खबर दे रहा था कि सरकार और सिविल सोसाइटी के बीच कैसा घमासान युद्ध चल रहा है!

असभ्य : यही तो मीडिया का कमाल है, बाबू साहब! नूरा कुश्ती को असली कुश्ती की तरह दिखाओ और जैसा कि हिंदी फिल्मों में होता है, दोनों पहलवानों में से एक को नायक और दूसरे को खलनायक बनाकर लड़ाओ। पहले खलनायक को नायक पर भारी पड़ता दिखाओ, और फिर नायक को उसके हाथों पिटवाकर दर्शकों की सहानुभूति नायक के पक्ष में करके खलनायक को बेवकूफियाँ करते दिखाओ, ताकि दर्शक सस्पेंस में रहते हुए भी समझ जायें कि अंत में जीत नायक की ही होगी और वे खलनायक पर हँसते हुए इंतजार करने लगें कि वह कब और कैसे हारता है! इस तरह मीडिया ने सिविल सोसाइटी को नायक और सरकार को खलनायक बनाया।

सभ्य : अबे, मीडिया को यह सब करने की क्या पड़ी थी? और वह कब से इतना ताकतवर हो गया कि सरकार और सिविल सोसाइटी जैसे दो बड़े पहलवानों में नूरा कुश्ती करा सके? मीडिया तो, जैसा कि सब कह रहे हैं, इस आंदोलन को माल की तरह बेचकर मुनाफा कमा रहा है; अपनी टी.आर।पी. बढ़ा रहा है।

असभ्य : आप उन ताकतों को भूल रहे हैं, बाबू साहब, जो मीडिया और सरकार दोनों की मालिक हैं। यह सारा तमाशा उनका ही कराया हुआ है।

सभ्य : तूने फिर इस आंदोलन को तमाशा कहा! यह अगस्त क्रांति, यह आजादी की दूसरी लड़ाई, यह आजादी के बाद का सबसे बड़ा जन-आंदोलन तमाशा है?

असभ्य : जन-आंदोलन? यह एक नकली, गढ़ा हुआ और प्रायोजित आंदोलन है, बाबू साहब!

सभ्य : नकली?

असभ्य : हाँ, नकली। नकल परीक्षाओं में या फैशन, फिल्म और साहित्य में ही नहीं होती। यहाँ भी हो रही है। गांधीजी की नकल। ‘गांधीगीरी’ की नकल। पुराने जन-आंदोलनों के नारों की नकल। यहाँ तक कि इमरजेंसी के समय के नारे ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ तक की नकल!

सभ्य : और तूने इसे प्रायोजित भी कहा। वह कैसे?

असभ्य : वह ऐसे कि उधर तिहाड़ जेल में अण्णा जी हीरो बनाये जा रहे थे और इधर भीड़ के भव्य दृश्य दिखाने की पूरी तैयारियाँ कर ली गयी थीं। ‘मैं अण्णा हूँ’ लिखी हजारों-लाखों टोपियाँ, महँगी-महँगी डिजायनर मोमबत्तियाँ और छोटी-बड़ी असंख्य तिरंगी झंडियाँ न जाने कब और कैसे तैयार करा ली गयीं कि ज्यों ही टी.वी. के हाइप के मारे लोग अण्णा जी के समर्थन में अपने घरों से निकलकर आये, फौरन से पेश्तर उनको उपलब्ध करा दी गयीं। और प्रायोजित नाटक के अंत में सरकार ने अपनी हार मानकर यह रामलीला मैदान सिविल सोसाइटी को अपने खिलाफ आंदोलन करने के लिए सौंप दिया।

सभ्य : अबे, तू यह कैसी कहानी गढ़ रहा है? जिस वास्तविकता को सारी दुनिया ने देखा है, उसे तू एक फिल्मी सस्पेंस वाली झूठी स्टोरी बनाकर पेश कर रहा है? अच्छा, अगर तेरी इस मनगढ़ंत कहानी पर मैं यकीन कर भी लूँ, तो यह बता कि सरकार को सिविल सोसाइटी से यह नूरा कुश्ती लड़ने की क्या पड़ी थी?

असभ्य : सरकार बड़े संकट में फँसी हुई थी, बाबू साहब! उसके घोटाले-दर-घोटाले सामने आते जा रहे थे और घोटाले भी इतनी बड़ी-बड़ी रकमों के थे कि सरकारों और घोटालों का चोली-दामन का साथ मानकर चलने वालों का भी ध्यान उन पर जा रहा था। सरकार के मंत्री-वंत्री तो फँस ही रहे थे, आँच कारपोरेटियों तक भी पहुँच रही थी। सरकार किसकी है, कैसे बनती है और किसके लिए काम करती है, ऐसी बातें भी खुलकर सामने आने लगी थीं...

सभ्य : जैसे?

असभ्य : जैसे नीरा राडिया वाला कांड ही लीजिए। उससे सारी दुनिया को पता चल गया कि सरकार में अपने लोगों को घुसाने या अपने मन की सरकार बनवाने के लिए कारपोरेटिए किस तरह की लॉबीइंग कराते हैं और उसके लिए किस तरह मीडिया के दिग्गज बिकते और खरीदे जाते हैं! फिर, जो घोटाले हुए, उनसे यह सवाल उठने ही वाला था कि घोटाला करने वाले मंत्रियों और अफसरों की ही क्यों, उनकी भी गर्दन पकड़ी जाये, जिनको उन घोटालों से फायदा पहुँचा है। मामला आगे बढ़ता, तो कारपोरेटिए फँसते, जैसे कि दो-चार के नाम सामने आ भी गये। अब जमाना है भूमंडलीकरण का, सो कंपनियाँ फँसतीं, तो देशी ही नहीं, विदेशी कंपनियाँ भी फँसतीं और निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का भी परदाफाश होता। इसलिए सरकार और उसके देशी-विदेशी आकाओं ने सोचा कि इस मामले को कुछ इस तरह घुमा देना चाहिए कि लोगों का ध्यान बँट जाये, घोटालों पर से हटकर कहीं और लग जाये।

सभ्य : लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से लोगों का ध्यान भ्रष्टाचार पर से कैसे हटेगा?

असभ्य : यही तो है लोहे को लोहे से काटने का कमाल!

सभ्य : मतलब?

असभ्य : मान लीजिए, चार चोर पकड़े गये हैं और बाकी डरे हुए हैं कि कहीं वे भी न पकड़े जायें। सो वे सब मिलकर चोर-चोर का शोर मचाते हैं और कहने लगते हैं कि दुनिया में सब चोर हैं। फिर सवाल उठाते हैं कि दुनिया भर के सब चोरों को कैसे पकड़ा जाये? और जवाब देते हैं कि कोई ईश्वर, देवता, साधु, महात्मा ही किसी चमत्कार से इस समस्या को हल कर सकता है। और अपने देश में ऐसे चमत्कारी महापुरुषों की क्या कमी! सो झटपट एक मिनी महात्मा गांधी खोज निकाले गये, जो एक गाँव के नेता थे। उनको मीडिया की मदद से राष्ट्रीय नेता बनाया गया, जन-लोकपाल की माँग करने का आंदोलन चलाया गया और उसमें पैसा तो पानी की तरह बहाया ही गया, मीडिया को भी दिन-रात प्रचार के काम पर लगाया गया। और मीडिया ने ऐसा माहौल बना दिया कि जो इस आंदोलन का समर्थन करे, वह मानो दूध का धुला और जो विरोध या आलोचना करे, वह भ्रष्टाचारी और भ्रष्ट सरकार का हिमायती ही नहीं, देशद्रोही भी! तर्क और विवेक की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गयी। आप नायक के साथ नहीं हैं, तो जरूर खलनायक के साथ हैं!

सभ्य : यह तू अण्णा जैसे संत महात्मा पर ही नहीं, सिविल सोसाइटी के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर ही नहीं, इस आंदोलन में शामिल सारे देश की जनता पर भी कीचड़ उछाल रहा है। मैं तेरी इस मनगढ़ंत कहानी पर कभी यकीन नहीं करूँगा। जा, भाग यहाँ से!

असभ्य : असभ्य हूँ न, बाबू साहब, सभ्य समाज से भगाया ही जाऊँगा! खैर, चलिए, इसको मेरी मनगढ़ंत कहानी ही मान लीजिए। लेकिन यह बताइए कि अब जबकि सरकार ने सिविल सोसाइटी की शर्तें मान ली हैं और अण्णा जी कल जब अपना अनशन समाप्त कर देंगे, तब क्या होगा?

सभ्य : जन-लोकपाल बनेगा, और क्या!

असभ्य : उससे क्या होगा?

सभ्य : भ्रष्टाचार खत्म होगा।

असभ्य : लेकिन यह बताइए कि जब सारे नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, तमाम छोटे-बड़े अफसर और तमाम छोटे-बड़े न्यायाधीश भ्रष्ट हो सकते हैं, तो क्या इन सबके भ्रष्टाचार का फैसला करने वाला लोकपाल भ्रष्ट नहीं हो सकता? जनता अपने प्रतिनिधि चुनने में गलती कर सकती है, सरकार अपने अधिकारी और न्यायाधीश नियुक्त करने में गलती कर सकती है, तो क्या सिविल सोसाइटी लोकपाल नियुक्त करने में गलती नहीं कर सकती? और वे देशी-विदेशी कारपोरेटिए, जो पूरी की पूरी सरकारें खरीद सकते हैं, क्या एक लोकपाल को नहीं खरीद सकते?

सभ्य : तू तो बड़ी डरावनी बातें करता है, रे!

असभ्य : क्या, बाबू साहब, आप भी! मैं और डरावनी बातें! मैं तो खुद ही डरा हुआ हूँ। मैं तो यह सोचकर ही काँप जाता हूँ कि लोकपाल भी भ्रष्ट निकला या भ्रष्ट बना दिया गया, तब क्या होगा?

सभ्य : तो क्या यह इतना बड़ा भ्रष्टाचार विरोधी जन-आंदोलन बेकार चला जायेगा?

असभ्य : नहीं, मैं इस आंदोलन के दो हिस्से मानता हूँ। एक हिस्सा वह, जो एक प्रायोजित कार्यक्रम है और दूसरा वह, जो भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता के इसमें शामिल हो जाने से कुछ हद तक सच्चा जन-आंदोलन बन गया है। यह दूसरा हिस्सा बेकार नहीं जायेगा। इससे लोगों में एक नयी समझ और चेतना पैदा हो सकती है। लेकिन प्रायोजित कार्यक्रम जन-आंदोलन नहीं होते, बाबू साहब! कल जब अण्णा जी अपना अनशन खत्म कर देंगे और यहाँ हो रहा यह तमाशा बंद हो जायेगा, तो सब लोग फिल्म देखकर हॉल से निकले दर्शकों की तरह अपने-अपने घर चले जायेंगे और फिर उन्हीं काम-धंधों में लग जायेंगे, जिनमें दूसरों का काम करने पर चाहे वे पूरी ईमानदारी से एक पैसा भी न लें, पर अपना जायज काम कराने के लिए भी उन्हें बेईमानों को पैसा देना पड़ेगा।

सभ्य : यानी भ्रष्टाचार बना रहेगा?

असभ्य : बना ही रहेगा।

सभ्य : कभी दूर नहीं होगा?

असभ्य : दूर हो सकता है, लेकिन एक शर्त पर।

सभ्य : वह क्या?

असभ्य : सिविल-अनसिविल का चक्कर छोड़ एक ऐसी सोसाइटी बनायी जाये, जिसमें जीने के लिए भ्रष्ट होना जरूरी न हो और भ्रष्टाचार गैर-जरूरी होकर खुद-ब-खुद खत्म हो जाये।

--रमेश उपाध्याय

Wednesday, July 13, 2011

याद रहेगी वह लाल मुस्कान


चंद्रबली जी के साथ बातचीत करने, घूमने-फिरने, यात्रा करने और काम करने का अपना एक अलग ही सुख होता था। पान खाते हुए अपनी लाल मुस्कान के साथ बातचीत करने और गंभीर से गंभीर विषय पर चर्चा करते समय भी उन्मुक्त भाव से हँसने का उनका एक खास आत्मीय अंदाज था, जिसके कारण वे मुझे अपने बुजुर्ग साथी कम और हमदम दोस्त ज्यादा लगते थे। किसी भी विषय पर और किसी भी अवसर पर उनके साथ दिल खोलकर बातें की जा सकती थीं। आज वे नहीं हैं, लेकिन मुझे हमेशा याद रहेगी वह लाल मुस्कान।

उनसे मेरा परिचय 1980 में ‘कथन’ का प्रकाशन प्रारंभ होने के समय हुआ था, जो जनवादी लेखक संघ (जलेस) की निर्माण प्रक्रिया के दौरान उनके साथ की गयी साहित्यिक यात्राओं में गाढ़ा हुआ और जल्दी ही एक आत्मीय पारिवारिक संबंध में बदल गया। शिमला में हुए जलेस के एक सम्मेलन में मेरी दोनों बेटियाँ प्रज्ञा और संज्ञा भी मेरे साथ गयी थीं, जो तब बच्चियाँ ही थीं। उन्हें सबसे अधिक प्यार चंद्रबली जी से ही मिला। वे कई बार दिल्ली में मेरे घर आये--एक बार तो कई दिन हमारे साथ रहे--और मैं जब भी बनारस गया, उन्हीं के यहाँ ठहरा। वे ‘कथन’ के सलाहकार मंडल में भी थे। हम जलेस के संस्थापक सदस्य थे तथा बाद में उसकी केंद्रीय कार्यकारिणी में भी साथ-साथ सक्रिय रहे।

चंद्रबली जी को लोग प्रायः आलोचक तथा अनुवादक के रूप में जानते हैं। वे कैसे आलोचक थे, इसका कुछ अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उन्होंने आलोचना लिखना बंद कर दिया, तो उनसे पुनः लिखना शुरू करने का आग्रह करने वालों में अन्य अनेक साहित्यकारों के अलावा उनके घनिष्ठ मित्र रामविलास शर्मा भी थे। एक बार रामविलास जी ने अपनी एक पुस्तक उन्हें भेंट करते हुए उन्हें उत्तेजित-उत्प्रेरित करने के लिए उस पर लिखा, ‘‘भूतपूर्व आलोचक चंद्रबली सिंह के लिए’’ और पुस्तक उन्हें देते हुए कहा, ‘‘जब तुम फिर से लिखना शुरू कर दोगे, तो लिखूँगा--अभूतपूर्व आलोचक चंद्रबली सिंह के लिए।’’

लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि चंद्रबली जी मूलतः कवि थे। एक बार उन्होंने मुझे बताया था कि उन्होंने 1947 के आसपास कविताएँ लिखना शुरू किया था। वैसे साहित्य में उनकी रुचि विद्यार्थी जीवन से ही थी और यशपाल, राहुल सांकृत्यायन आदि की किताबें पढ़कर समाजवादी विचारों की तरफ उनका झुकाव भी हो गया था, लेकिन सर्वप्रथम वे कवि थे, कवि के नाते ही प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) से जुड़े और फिर कम्युनिस्ट पार्टी से। उन्होंने मुझे बताया, ‘‘वह बड़ा भयानक दौर था। खास तौर से 1948 के बाद। भारत का विभाजन, कश्मीर पर हमला, कम्युनिस्टों का दमन--इन सब घटनाओं का असर आदमी के दिल और दिमाग पर उस वक्त बहुत पड़ता था। उस जमाने में मैंने इन्हीं विषयों पर कविताएँ लिखीं।’’

मैंने पूछा, ‘‘उस समय आपकी उम्र क्या थी?’’ तो हँसकर बोले, ‘‘अपने बाप की लिखायी हुई उम्र बताऊँ या असली उम्र बताऊँ? असली उम्र का पता नहीं, पिता के द्वारा लिखायी गयी उम्र के अनुसार मैं उस समय तेईस बरस का था। तो उस समय की परिस्थितियाँ मुझे बहुत उद्वेलित करती थीं और मैं हर सप्ताह कई कविताएँ लिख लेता था। रतलाम से ‘जनमत’ नाम की साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी। शायद ही कोई सप्ताह जाता हो कि उसके कवर पर मेरी कविता न जाती हो।’’

लेकिन अपने लेखन को पुस्तकाकार प्रकाशित कराने में उनकी बहुत रुचि नहीं थी। मैंने पूछा, ‘‘कोई संकलन निकला आपका?’’ तो बोले, ‘‘कोई संकलन नहीं। अब तो शायद लोग मेरी कविताओं को भूल भी गये होंगे। जो मेरे उस जमाने के दोस्त हैं, वे ही जानते हैं। डॉक्टर रामविलास शर्मा मजाक करते हैं कि एक बार वे भोपाल या कहीं गये, तो वहाँ एक मजदूर उनसे पूछता है कि चंद्रबली सिंह की कविताएँ आजकल देखने को नहीं मिल रही हैं। बाद में प्रगतिशील आंदोलन में जो बिखराव आया, उसमें मेरा कविता लिखना छूटा और अपनी शक्ति का इस्तेमाल मैंने आलोचना लिखने में करना शुरू किया। लेकिन कविता से मेरा प्रेम समाप्त नहीं हुआ। उस जमाने में मैंने वॉल्ट व्हिटमैन की बहुत-सी कविताओं का अनुवाद किया, जो पत्र-पत्रिकाओं में छपीं। बाद में दूसरे कवियों की भी बहुत-सी कविताओं के अनुवाद किये।’’

लेकिन अपने आलोचनात्मक लेखन को संकलित करने के प्रति वे उदासीन रहे। उनसे जब मेरा परिचय हुआ, तब तक उनकी एक ही पुस्तक छपी थी ‘लोक दृष्टि और हिंदी साहित्य’। बाद में एक और छपी ‘साहित्य का जनपक्ष’। उनके अनुवादों के संकलन और भी बाद में छपे।
एक बार देवकीनंदन खत्री के बारे में बात हो रही थी। चंद्रबली जी ने बताया कि देवकीनंदन खत्री पर पहला गंभीर आलोचनात्मक लेख उन्होंने ही लिखा था। उन्होंने कहा, ‘‘उसमें मैंने बताया था कि खत्री के लेखन में सामंतवाद-विरोधी प्रगतिशील दृष्टि है। उसमें सामंती समाज में नारी की स्थिति के प्रति विरोध का भाव है। उद्यम के महत्त्व को बताया गया है। तर्क और युक्ति पर जोर दिया गया है। अंग्रेजों द्वारा पैदा की जा रही हिंदू-मुस्लिम फूट की नीति का विरोध है। इन सब चीजों का उल्लेख पहले किसी ने नहीं किया था। शुक्ल जी ने भी अपने इतिहास में यह काम नहीं किया था।’’

चंद्रबली जी प्रलेस से जुड़ने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे। इसके बारे में उन्होंने मुझे बताया, ‘‘आगरे में रहते समय मैं जिन लोगों के संपर्क में आया, वे मुझे बहुत अच्छे और लगन वाले आदमी मालूम हुए। इसका मुझ पर बड़ा अच्छा असर पड़ा। लेकिन जुलाई, 1950 तक--जब तक मैं आगरे में रहा--मैं कम्युनिस्ट पार्टी का मेंबर नहीं था। मेंबर बना उसके बाद बनारस जाने पर। आगरे से बनारस पहुँचकर मैंने वहाँ प्रलेस की स्थापना की। लेकिन उस समय तक पार्टी की नीति को लेकर उसके अंदर मतभेद शुरू हो गये थे और इस चीज का असर प्रलेस पर भी पड़ रहा था। नामवर सिंह उस समय बनारस में ही थे और पंत को लेकर मुझसे बहुत बहस किया करते थे। उन्होंने उसी समय लिखना शुरू किया था। प्रकाशचंद्र गुप्त वगैरह मुझसे और डॉक्टर शर्मा से उस समय बहुत कुपित थे और हम लोगों को संकीर्णतावादी कहा करते थे।’’

चंद्रबली जी मानते थे कि प्रलेस में एक विसर्जनवादी प्रवृत्ति मौजूद थी--कि आजादी के बाद उसकी कोई जरूरत नहीं रह गयी है, उसे विसर्जित कर देना चाहिए। इस प्रवृत्ति के बारे में उनका कहना था, ‘‘उसमें विसर्जनवादी प्रवृत्ति पहले से मौजूद थी, लेकिन बड़े पैमाने पर वह सामने आयी 1953 में, जब दिल्ली में प्रलेस का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। कुछ लोगों को ऐसा महसूस हुआ था कि इस संगठन को खत्म करके एक नया संगठन बनाया जाये। यानी लेखकों के कार्यभार नये दौर में क्या हो सकते हैं, इसको फिर से डिफाइन किया जाये और पिछली गलतियों की आलोचना करते हुए एक नये घोषणापत्र के साथ एक नया संगठन बनाया जाये। लेकिन पुरानी चीज के साथ लोगों का एक भावनात्मक रिश्ता भी होता है। फिर, उस जमाने में प्रगतिशील लेखकों का काफी दमन हुआ था। इसलिए यह तय हुआ कि प्रलेस चलेगा। लेकिन जो नया नेतृत्व आया, वह अति-उदारतावादी था। डॉक्टर रामविलास शर्मा की जगह पर कृश्नचंदर महासचिव चुने गये और इन लोगों की समझ यह थी कि बहुत ज्यादा मिर्चा खा लिया है, अब चीनी फाँक लो!’’

यह कहते हुए चंद्रबली जी जोर से हँसे। लेकिन तुरंत ही गंभीर होकर बोले, ‘‘अफसोस की बात यह है कि पुरानी गलतियों को सुधारने के नाम पर यह जो अति-उदारतावाद अपनाया गया, इसका विश्लेषण कभी नहीं किया गया। आप कह सकते हैं कि यह और भी बड़ी गलती थी। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि इन गलतियों के कारण प्रलेस डूबा। मैं समझता हूँ कि गलतियाँ किसी से भी हो सकती हैं। और यदि कोई संगठन अपनी गलतियों का सही विश्लेषण करके उन्हें सुधारता चलता है, तो वह जिंदा रह सकता है। लेकिन प्रलेस के नये नेतृत्व ने अपनी गलती को सुधारना तो दूर, उसको समझने तक की कोशिश नहीं की।’’

मैंने पूछा, ‘‘आप लोगों ने इस चीज के खिलाफ संघर्ष नहीं चलाया?’’

उत्तर में चंद्रबली जी ने कहा, ‘‘संघर्ष तो हमने चलाया। ‘स्वाधीनता’ वगैरह में उस समय हमारे जो लेख निकले, वे उन लोगों की समझ के खिलाफ थे। और उनमें उस समझ के कुछ संकेत आपको मिल सकते हैं, जो अब आकर हमारे जनवादी लेखक संघ के घोषणापत्र में व्यक्त हुई है। लेकिन वह संघर्ष संगठित रूप से नहीं चल पाया। आजादी के बाद जो परिवर्तन हुआ था, शासक वर्ग ने जो भ्रम फैलाये थे, साम्राज्यवादी संस्कृति का जो आक्रमण हमारी संस्कृति पर हो रहा था, साहित्य में ‘नयी कविता’ और प्रयोगवाद के नाम पर जो घातक प्रवृत्तियाँ आ रही थीं, उनके खिलाफ प्रगतिशील लेखकों को वैचारिक संघर्ष करना चाहिए था। कुछ लोगों ने किया भी। जैसे मैंने ‘नयी कविता’ के वैचारिक आधार अस्तित्ववाद पर आक्रमण किया। ‘नयी कविता’ और अस्तित्ववाद का यह संबंध मैंने ही पहली बार दिखाया था। लेकिन यह संघर्ष संगठित नहीं था।’’

1982 में जब जलेस की स्थापना हुई, लेखक और संगठन तथा साहित्य और विचारधारा से संबंधित प्रश्नों पर तीखी बहसें हुईं, जिनमें विभिन्न लेखक संगठनों में शामिल तथा उनसे बाहर के लेखकों ने भी भाग लिया। उस समय मैंने चंद्रबली जी का एक लंबा इंटरव्यू लिया और ‘कथन’ के मार्च-अप्रैल, 1983 के अंक में ‘साहित्य और जनवाद’ शीर्षक से प्रकाशित किया। उसमें मेरा एक प्रश्न था, ‘‘कुछ लेखक, चंद्रबली जी, ऐसे भी हैं, जो संगठन की आवश्यकता को ही नकारते हैं। वे मानते हैं कि लेखन एक व्यक्तिगत कर्म है, संगठन उसमें कोई मदद नहीं कर सकता। ऐसे लेखकों के बारे में आप क्या कहते हैं?’’

चंद्रबली जी ने उत्तर दिया, ‘‘वही कहता हूँ, जो मैंने जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में श्रीमती मन्नू भंडारी का वक्तव्य सुनने के बाद कहा था। ऐसे लेखकों से यह पूछना चाहिए कि क्या आज प्रतिक्रियावादी ताकतें बड़े ही योजनाबद्ध और संगठित तरीके से हमारे ऊपर तरह-तरह के आक्रमण नहीं कर रही हैं? क्या आज कलम की आजादी पर शासक वर्ग की ओर से संगठित आक्रमण नहीं हो रहा है? क्या इस आक्रमण का मुकाबला लेखक अलग-थलग और अकेला रहकर कर सकता है? हम इस सचाई से इनकार नहीं करते कि रचना-कर्म एक वैयक्तिक कर्म है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह एक सामाजिक कार्य भी है। रचना को दूसरों तक पहुँचना है और समाज की संपूर्ण व्यवस्था में से गुजरकर पहुँचना है। और मौजूदा व्यवस्था में लेखक के आर्थिक हित ही खतरे में नहीं पड़ते, उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी खतरे में है। फिर, जनवादी लेखक एक खास तरह के लेखक हैं। वे सामाजिक परिवर्तन के लिए लड़ने वाले लेखक हैं और वे संगठित होकर ही सामाजिक परिवर्तन में अपनी भूमिका निभा सकते हैं, ताकि साहित्य के माध्यम से समाज को बदलने की लड़ाई जनता के हित में लड़ सकें।’’

कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘एक बात और: लेखकों को अपनी शक्ति को कम करके नहीं आँकना चाहिए। यह उनकी शक्ति का ही प्रमाण है कि व्यवस्था तरह-तरह के प्रलोभन देकर या भय दिखाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की कोशिश करती है। इसीलिए जो लेखक उसके पक्ष में नहीं हैं, उन्हें वह संगठित होने से रोकने के प्रयास करती है, ताकि उन्हें अलग-अलग पीट सके। इसलिए हमें उन लेखकों को, जो जनवाद की लड़ाई लड़ने के लिए तो तैयार हैं, लेकिन संगठन के महत्त्व को नहीं समझते, बड़ी सहिष्णुता के साथ यह समझाने की कोशिश करनी चाहिए कि अलग-थलग रहने और संगठन का विरोध करने के लिए प्रेरित करने वाली उनकी व्यक्तिवादी विचारधारा दरअसल शासक वर्ग की विचारधारा है, जिसके विरुद्ध उन्हें संघर्ष करना है। इसके लिए हमें ऐसे लेखकों से वैचारिक संघर्ष चलाना चाहिए और उनके मन में बैठे हुए या बिठाये गये ऐसे भ्रमों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए कि संगठन सब लेखकों से एक तरह का लिखने की माँग करता है या उन्हें निर्देशों पर लिखने के लिए मजबूर करता है। हमने तो अपने घोषणापत्र में लेखकों के लिए विषय, वस्तु, रूप और शिल्प संबंधी तमाम विविधताओं को स्वीकार किया है और लेखकों को कलात्मक अभिव्यक्ति के मामले में पूरी स्वतंत्रता देने की बात कही है।’’

लेखक संगठनों के संदर्भ में विचारधारा का प्रश्न हमेशा एक मुख्य प्रश्न रहा है। इस पर चली बहसों, उनके दौरान सामने आये वैचारिक मतभेदों और उन्हें दूर करने के लिए किये गये प्रयासों के बावजूद इस प्रश्न पर अस्पष्टता बनी रही है। चंद्रबली जी मार्क्सवादी थे, लेकिन व्यक्तिगत रूप से तो क्या, जनवादी लेखक संघ का नेतृत्व करते हुए भी किसी पर अपनी विचारधारा थोपने की कोशिश नहीं करते थे। उनका मानना था कि लेखक संगठन एक संयुक्त मोर्चा होता है और संयुक्त मोर्चे में नेतृत्व कौन-सी विचारधारा करे, इस सवाल पर यांत्रिक तरीके से विचार नहीं करना चाहिए।

उनका कहना था, ‘‘हम न तो किसी लेखक पर अपनी विचारधारा थोप सकते हैं, न उसको मानने की शर्त लगा सकते हैं। शर्त तो केवल जनवाद की रक्षा और विस्तार की लड़ाई में साथ आने की है। इसके बाद किस विचारधारा का नेतृत्व लोग मानेंगे, यह इस पर निर्भर करेगा कि कौन-सी विचारधारा उन्हें सबसे ज्यादा सही और अच्छी लगती है। मार्क्सवादी विचारधारा का नेतृत्व लेखक कब मानेंगे? जब मार्क्सवादी लेखक हमारी जनता के जीवन के यथार्थ-चित्रण के सर्वोत्कृष्ट नमूने प्रस्तुत करेंगे। यानी सबसे ज्यादा सुंदर, कलात्मक, उत्कृष्ट रचनाएँ मार्क्सवादी लेखकों की होंगी, और जनता के संघर्षों को आगे बढ़ाने में मार्क्सवादी लेखक सबसे ज्यादा आगे बढ़कर काम करेंगे, सबसे ज्यादा त्याग करेंगे। तब दूसरे लोग अपने-आप यह महसूस करेंगे कि नेतृत्व मार्क्सवादी विचारधारा कर रही है।’’

काश, निरे नेतृत्वकामी ‘मार्क्सवादियों’ ने इस सच्चे मार्क्सवादी को सुना और गुना होता!

--रमेश उपाध्याय

Friday, June 17, 2011

भविष्योन्मुखी कहानी का मतलब

‘परिकथा’ के तीन ‘युवा कहानी अंक’ मेरे सामने हैं। यद्यपि मैं ‘युवा कहानी’ को एक ‘मिसनोमर’ मानता हूँ और चाहता हूँ कि आज की कहानी को रचनाकारों की उम्र से जोड़कर देखने के बजाय उनकी रचनाशीलता को आज के यथार्थ से जोड़कर कोई सार्थक नाम दिया जाये, तथापि मैं ‘परिकथा’ के संपादक शंकर को इस विशाल एवं भव्य आयोजन के लिए और इसे संभव बनाने के लिए इसमें शामिल रचनाकारों को बधाई देता हूँ।

मैं इसे एक विशाल एवं भव्य आयोजन केवल इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि इन तीनों बृहदाकार अंकों की कुल पृष्ठ संख्या लगभग साढे़ चार सौ है, इनमें नये कहानीकारों की इक्यावन कहानियाँ हैं, अठारह नये कहानीकारों के आज की कहानी से संबंधित प्रश्नों पर व्यक्त किये गये विचार हैं और पाँच वरिष्ठ कथाकारों के नये कथाकारों द्वारा लिये गये साक्षात्कार हैं; यह आयोजन इस दृष्टि से भी विशाल एवं भव्य है कि इसके जरिये आज की हिंदी कहानी को रचनात्मक एवं वैचारिक दोनों धरातलों पर समझने में सहायक विपुल सामग्री पाठकों को उपलब्ध करायी गयी है।

‘युवा कहानी’ और ‘युवा कहानीकारों’ का जिक्र होने पर पहले ‘वागर्थ’ और फिर ‘नया ज्ञानोदय’ के जरिये कहानीकारों की एक नयी पीढ़ी को सामने ले आने का श्रेय स्वयं ही लेने को आतुर रहने वाले रवींद्र कालिया का ध्यान आता है। लेकिन वे नयी पीढ़ी को एक नये उत्पाद की तरह बाजार में ले आने का उत्सव-सा मनाते और उसका विज्ञापन तथा प्रचार करते हुए उसकी मार्केटिंग-सी करते नजर आते हैं, जबकि शंकर पहले ‘अब’ के और अब ‘परिकथा’ के संपादक के रूप में अपने ‘नवलेखन’ तथा ‘युवा कहानी’ विशेषांकों के जरिये रवींद्र कालिया की तुलना में कहीं ज्यादा बड़ी संख्या में नये रचनाकारों को सामने लाने के बावजूद इसका श्रेय लेने या इसका डंका पीटने की कोशिश नहीं करते। उनकी कोशिश नये रचनाकारों को बाजारोन्मुख बनाने के बजाय समाजोन्मुख बनाने की रहती है। इसके लिए वे नये रचनाकारों के प्रति परम आत्मीयता रखते हुए भी उनकी सख्त आलोचना करने से नहीं चूकते। उदाहरण के लिए, युवा कहानी अंक-1 के संपादकीय में उन्होंने उल्लेख किया है कि 1974 में जब उन्होंने ‘अब’ का तीसरा अंक बिलकुल नये लेखकों पर केंद्रित किया था, तब अपने समय के महत्त्वपूर्ण कथा-समीक्षक सुरेंद्र चौधरी ने उन्हें एक पत्र में लिखा था कि नये लेखकों की कहानियाँ आसपास मौजूद स्थितियों के रोजमर्रापन को रेखांकित करें, यह तो ठीक है, किंतु यदि वे उसी में बँधी रहें और स्थितियों के पार न जायें, तो यह उनकी नाकामी है। शंकर ने इसी के आधार पर अपने संपादकीय को शीर्षक दिया है ‘स्थितियों के पार’ और उसमें लिखा है :

‘‘युवा कथाकार से हमेशा यह अपेक्षा रहती है कि वह आसपास मौजूद स्थितियों में चाहे जितनी भी तन्मयता और तल्लीनता से डूबे और उनमें रमे, लेकिन उसकी सोच का एक हिस्सा उन स्थितियों के पार भी जाये। जब कोई कहानी स्थितियों के पार की तरफ भी कुछ सूत्रों के सहारे, कुछ कल्पना-परिकल्पना के सहारे, कुछ संवादों के सहारे, पात्रों की मानसिक हलचलों के सहारे या किसी पात्र की सोच के सहारे जाती है, तभी मौजूद परिस्थितियों के समानांतर कोई विकल्प भी झिलमिलाता है, कोई स्वप्न आहिस्ता से उठ खड़ा होता है, कोई रोशनी की लकीर अनायास फूट पड़ती है। इधर की अधिकांश चर्चित युवा कहानियाँ आसपास मौजूद स्थितियों की गहराई में बहुत तन्मयता के साथ डूबकर लिखी गयी कहानियाँ हैं, लेकिन उनमें स्थितियों के पार देख पाने की स्थितियाँ शायद ही कहीं दिखायी पड़ती हैं। ये चेतना और बोध के स्तर पर सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त रहकर किये गये लेखन कार्य के दृष्टांत हैं, यह विलक्षण रचनाशीलता के दौर के शोक-कथाओं के दौर में बदल जाने का सिलसिला भी है।’’

नये कहानीकारों को बाजार से परहेज नहीं है, बल्कि बाजार में प्रतिष्ठित और सफल होने के लिए जो भी साधन उपलब्ध हों, उनका इस्तेमाल कर लेना वे उचित और आवश्यक समझते हैं, लेकिन रचनाकार होने के नाते वे अपने और अपनी रचना के, साहित्य और समाज के तथा समूची दुनिया के भविष्य के बारे में भी सजग हैं। दो शब्दों में कहूँ, तो कहानीकारों की यह नयी पीढ़ी निरी बाजारोन्मुखी नहीं, भविष्योन्मुखी भी है। शायद इसीलिए वह ‘नया ज्ञानोदय’ में छपने के साथ-साथ ‘परिकथा’ में भी छपना चाहती है, जिसके संपादक उन्हें पूरा महत्त्व देकर प्रकाशित करने के साथ-साथ उनकी सख्त आलोचना करके उन्हें सही दिशा दिखाने से नहीं चूकते। युवा कहानी अंक-3 के संपादकीय में शंकर ने लिखा है :

‘‘जिस तरह कोई भी सभ्यता अपनी अधिरचना भी पैदा करती है, उसी तरह बाजार भी अपनी अधिरचना खड़ी करने में लगा हुआ है। इसी अधिरचना से (साहित्य, संस्कृति, कला जिसके अनिवार्य हिस्से हैं), वे जो साहित्य की लोकोन्मुखता की परंपरा से जुड़े हैं, सीधे रू-ब-रू हैं। दृष्टियों और मूल्यों की टकराहट साहित्य, संस्कृति, कला की दुनिया में बहुत स्वाभाविक रूप से शुरू हो गयी है। विचारधारा का अंत, इतिहास का अंत, यथार्थ से निरपेक्षता और उसका इनकार, अंतर्वस्तु से परहेज, अंतर्वस्तु की जगह भाषा-शिल्प या कला विन्यास की सर्वोच्चता, समाज के मुद्दों की जगह हल्के-फुल्के विषयों की स्थापना, वैचारिक रुझानों की जगह मनोरंजन के पक्ष, चुटकुलों और लतीफों का साहित्यिक रूपांतरण, गहरी और समझदारी भरी पाठकीयता की जगह रोचकता का पक्ष, वैयक्तिकता का ग्लैमराइजेशन, दूसरों की चिंता से परहेज, मनुष्य-समुदाय और समाज से निरपेक्षता--ये स्थापनाएँ, प्रवृत्तियाँ और अपेक्षाएँ साहित्य में बाजार की संस्कृति और उसके मूल्यों के ही प्रतिबिंबन हैं। कहना न होगा कि साहित्य जिस हद तक मनुष्यता और समाज का पक्षधर है, उस हद तक वह बाजार का प्रतिपक्ष है। ये टकराहटें अलग-अलग रूपों में युवा कहानी में भी मौजूद हैं। हमें यह विश्वास है कि युवा कहानी अंततः लोकोन्मुखता की धारा से ही जुड़ेगी और समाज के पक्ष में ही खड़ी होगी।’’

नये कहानीकारों से ऐसी बातें इतनी बेबाकी से वही संपादक कह सकता है, जो स्वयं तो विवेकवान है ही, अपने रचनाकारों को भी विवेकवान बनाने का इच्छुक है। इन तीन विशेषांकों के जरिये जितना बड़ा काम शंकर ने किया है, उसका अहसास उन्हें है, लेकिन उसका श्रेय लेने तथा रचनाकारों पर अहसान जताने के बजाय वे कहानी के पाठकों तथा समीक्षकों से कहते हैं कि ‘‘तीन अंकों में प्रकाशित ये पचास-इक्यावन कहानियाँ एक नया कारवाँ रचती हैं। ये नये बोध, नये संज्ञान की कहानियाँ हैं। इनसे युवा कहानी की एक नयी पहचान अन्वेषित होती है और एक नया चेहरा उभरकर सामने आता है। इनमें कम से कम पचीस कहानियाँ जरूर ऐसी हैं, जिनकी चर्चा के बगैर युवा कहानी की चर्चा अधूरी रहेगी। इनकी चर्चा न हो, तो यह इनके साथ नाइंसाफी भी होगी।’’

मैंने इन तीनों अंकों की सभी कहानियाँ पढ़ी हैं और मुझे शंकर का यह दावा गलत नहीं लगता। मैं इन कहानियों में से अपनी पसंद की कहानियों की एक सूची बनाऊँ, तो वह कुछ इस प्रकार की होगी--प्रियदर्शन की ‘शेफाली चली गयी’, संजय कुंदन की ‘डार्क रूम’, हरिओम की ‘जिंदगी मेल’, अरुण कुमार ‘असफल’ की ‘तरबूज का बीज’, रवींद्र स्वप्निल प्रजापति की ‘टीन टप्पर’, आनंद वर्धन की ‘सिवइयाँ’, प्रेम रंजन अनिमेष की ‘सात सहेलियाँ खड़ी-खड़ी...’, राकेश बिहारी की ‘बिसात’, सत्यनारायण पटेल की ‘गम्मत’, वसंत त्रिपाठी की ‘घुन’, अशोक कुमार पांडेय की ‘पागल है साला’, चरण सिंह पथिक की ‘परछाइयों में गुलाब’, घनश्याम कुमार ‘देवांश’ की ‘दुनिया खतरे में है’, पंकज मित्र की ‘बिजुरी महतो की अजब दास्तान’, अजय नावरिया की ‘गंगासागर’, विमल चंद्र पांडेय की ‘हाइवे पर कुत्ते’, प्रत्यक्षा की ‘दिल, दो लड़कियाँ और एक इतना-सा नश्तर’, सुभाष चंद्र कुशवाहा की ‘रात के अँधियारे में’, एम. हनीफ मदार की ‘सपने जैसा सपना’, विवेक मिश्र की ‘घड़ा’, मजकूर आलम की ‘पानीदार...’, इंदिरा दांगी की ‘हमें मुस्कराना आता है’, प्रमोद कुमार बर्णवाल की ‘थूक से सना हुआ चेहरा’ और विपिन चौधरी की ‘हुक्का-पानी’।

ये कहानियाँ (और बाकी जो छूट गयी हैं, शायद वे भी) अपने-अपने ढंग की ‘अच्छी’ कहानियाँ हैं। मगर इनको पढ़ते हुए मुझे एक अजीब-सी बेचैनी महसूस होती रही और मैं सोचता रहा: क्या इन कहानियों में आज का यथार्थ आ रहा है? नहीं आ रहा है, तो क्यों नहीं आ रहा है? ये कहानियाँ निरे वर्तमान और उसके रोजमर्रापन तक ही सीमित क्यों रहती हैं? उसके पार क्यों नहीं जातीं? इनमें से ज्यादातर शहरी और शिक्षित मध्यवर्ग तक ही और उसमें भी प्रायः लेखकों के अपने आसपास के ‘‘जिये-भोगे यथार्थ’’ तक ही सीमित अनुभववादी या प्रकृतवादी कहानियाँ ही क्यों हैं? इनमें गरीब, अशिक्षित, ग्रामीण, दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर और उनके संगठनों, आंदोलनों तथा संघर्षों का यथार्थ, जो वर्तमान परिस्थितियों में एक देश का स्थानीय यथार्थ न रहकर भूमंडलीय यथार्थ बन चुका है, क्यों नजर नहीं आता? इनमें से ज्यादातर कहानियाँ (पुरुषों द्वारा लिखी गयी कहानियाँ भी) स्त्रियों पर और उनके माध्यम से व्यक्त सेक्स और हिंसा पर केंद्रित क्यों हैं? इक्यावन में से बमुश्किल चार कहानियाँ ही जन-संगठन तथा जन-आंदोलन से संबंधित हैं। पंकज मित्र की ‘बिजुरी महतो की अजब दास्तान’, विमल चंद्र पांडेय की ‘हाइवे पर कुत्ते’, सुभाष चंद्र कुशवाहा की ‘रात के अँधियारे में’ और अशोक कुमार पांडेय की ‘पागल है साला’। मगर इनमें भी जन-संगठन तथा जन-आंदोलन नेपथ्य में सांकेतिक रूप में और प्रायः पस्त या पराजित रूप में ही दिखते हैं। आखिर क्यों?

उत्तर पाने के लिए मैंने तीनों अंकों में आयोजित परिचर्चा ‘युवा कहानी और उसका समय’ में कहानीकारों द्वारा व्यक्त विचार पढ़े। पत्रिका की ओर से पूछा गया एक प्रश्न है--‘‘हिंदी कहानी की लगभग सौ वर्षों की जो परंपरा है, आपके अपने रचनाकर्म के लिए उसकी क्या प्रासंगिकता है?’’ मैं इस प्रश्न के उत्तर में कहानीकारों द्वारा गिनाये गये नामों को देखकर चकित रह गया। उनमें प्रेमचंद, यशपाल, भैरव प्रसाद गुप्त, अमरकांत, मार्कंडेय, शेखर जोशी, नागार्जुन, मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई, भीष्म साहनी, रमाकांत, रमेश उपाध्याय, विजयकांत, इसराइल, नमिता सिंह, विजेंद्र अनिल, असगर वजाहत, अरुण प्रकाश, सतीश जमाली, सुरेश कांटक, शंकर, अभय, नर्मदेश्वर आदि प्रगतिशील-जनवादी कथाकारों का नामोल्लेख तक नहीं है! इतना ही नहीं, हिंदी कहानी के विभिन्न आंदोलनों का भी, विशेष रूप से प्रगतिशील-जनवादी कहानी के आंदोलन का भी कोई जिक्र नहीं है। अथवा जिक्र है, तो नकारात्मक रूप में, जैसे अंक-2 में प्रेम भारद्वाज का वक्तव्य है कि ‘‘एक दौर में जब विचारधारा के फ्रेम में रचने का प्रचलन जोरों पर था, कई सतही और उपदेशात्मक रचनाएँ सामने आयीं, खासकर कथा आंदोलन के दौर में। आज उन कहानियों और कहानीकारों का नामलेवा भी नहीं बचा है।’’

हिंदी साहित्य में ‘विचारधारा’ का मतलब मार्क्सवादी या प्रगतिशील-जनवादी विचारधारा होता है (जैसे और कोई विचारधारा तो विचारधारा होती ही नहीं) और ‘युवा कहानीकार’ लगभग सर्वसम्मति से यह मानते प्रतीत होते हैं कि इस विचारधारा और इस कथा-परंपरा से उनका कोई लेना-देना नहीं है! शायद इन ‘युवा कहानीकारों’ ने सोवियत संघ के विघटन के बाद पूँजीवाद की ओर से किये गये इस धुआँधार प्रचार को सच मानकर आत्मसात कर लिया है कि समाजवाद समाप्त हो गया, मार्क्सवाद अप्रासंगिक हो गया, प्रगतिशील-जनवादी साहित्य बेकार हो गया, साहित्यिक आंदोलन गैर-जरूरी हो गये...इत्यादि। कहना न होगा कि यह भी एक विचारधारा है। आज के पूँजीवाद और साम्राज्यवाद को बहुत रास आने वाली विचारधारा। जन-विरोधी और जनतंत्र-विरोधी विचारधारा। समाज-विरोधी और समाजवाद-विरोधी विचारधारा। यह विचारधारा रचनाकार को वर्तमान स्थितियों के पार नहीं देखने देती, अतः उसे भविष्योन्मुखी नहीं बनने देती, बल्कि बाजारोन्मुखी बना देती है।

इस विचारधारा से प्रेरित रचनाकार न तो आज के यथार्थ को उसकी पूरी व्यापकता में देख पाता है और न अपने रचनाकर्म से आज की परिस्थितियों के अनुरूप यथार्थवाद का विकास करते हुए अपने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा से जुड़कर उसे आगे बढ़ा पाता है। वह यथार्थवादी बनने की जगह यथास्थितिवादी बन जाता है। इसीलिए वह दुनिया को सुधारने, सँवारने, बदलने और बेहतर बनाने में सक्षम शक्तियों तथा उनके संगठनों और आंदोलनों से जुड़ने की जगह उनका विरोधी बन जाता है। सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों से ही नहीं, वह साहित्यिक आंदोलनों से भी नफरत करता है और उनसे दूर रहना ही उचित समझता है।

मैं शिद्दत से एक साहित्यिक आंदोलन की जरूरत महसूस करता हूँ, क्योंकि आज का समय आंदोलनों का समय है। आज दुनिया भर में तरह-तरह के आंदोलन चल रहे हैं। अमोरी स्टार अपनी किताब ‘ग्लोबल रिवोल्ट’ में ठीक ही कहती हैं कि आज की दुनिया में एक महासंघर्ष चल रहा है। पूँजीवादी भूमंडलीकरण के विरुद्ध एक गैर-पूँजीवादी भूमंडलीकरण के लिए किया जाने वाला संघर्ष। ‘‘ऊपर से किये जा रहे भूमंडलीकरण’’ के विरुद्ध ‘‘नीचे से हो रहे भूमंडलीकरण’’ का संघर्ष। यह संघर्ष विभिन्न प्रकार के आंदोलनों के रूप में चल रहा है और दुनिया भर के ये आंदोलन ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ जैसे मंचों पर एकत्र भी हो रहे हैं। इनमें से कई आंदोलन सफल भी हो रहे हैं। जैसे अरब देशों के तानाशाहों के विरुद्ध जारी आंदोलन। या हमारे यहाँ भ्रष्टाचार के विरुद्ध चला अण्णा हजारे का आंदोलन। इन आंदोलनों की सफलता पूरी है या अधूरी, वास्तविक है या अवास्तविक, स्थायी है या क्षणिक, यह बात अलग है।

ऐसे समय में किसी भी आंदोलन की बात से जनगण उत्साहित हो जाते हैं और स्थापित सत्ताएँ, चाहे वे साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र की सत्ताएँ ही क्यों न हों, चिंतित और भयभीत हो जाती हैं। अतः वे एक तरफ तो यह प्रयत्न करती हैं कि कोई आंदोलन शुरू ही न हो पाये और दूसरी तरफ यह कि भ्रामक प्रचार के जरिये समस्त आंदोलनों को गलत, गैर-जरूरी, अवांछित और खतरनाक बताकर बदनाम किया जाये, ताकि लोग उनसे दूर ही रहें और जब स्थापित सत्ताएँ नितांत अमानवीय, गैर-जनतांत्रिक या तानाशाही तरीकों से उनका दमन करें, तो लोग खामोश रहें। आज साहित्य के क्षेत्र में भी यही स्थिति दिखायी दे रही है। साहित्यिक आंदोलनों को बदनाम किया जाता है, उनका दमन किया जाता है और बहुत-से नये रचनाकार इसका विरोध करने के बजाय आंदोलनों के ही विरोधी बन जाते हैं।

इसीलिए ‘परिकथा’ के युवा कहानी अंक-1 में प्रकाशित अशोक कुमार पांडेय से हुई अपनी बातचीत में मैंने कहा था कि नये कहानीकारों को एक नया आंदोलन चलाना चाहिए। बहुत-से नये कहानीकारों ने इस विचार का स्वागत और समर्थन किया। ‘परिकथा’ के अगले अंकों में इस आशय के कई पत्र प्रकाशित हुए। व्यक्तिगत रूप से मुझे जो प्रतिक्रियाएँ मिलीं, उनमें बार-बार एक सुझाव मिला कि इस पर आगे बात होनी चाहिए। अतः ‘कथन’ के जनवरी-मार्च, 2011 के अंक में उस बातचीत को पुनः प्रकाशित करते हुए उस पर एक परिचर्चा आयोजित की गयी, जिसमें छह नये कहानीकारों--योगेंद्र आहूजा, मनीषा कुलश्रेष्ठ, मनोज कुलकर्णी, प्रियदर्शन, प्रभात रंजन और राकेश बिहारी--ने भाग लिया। इस पर भी मुझे बड़ी उत्साहजनक प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं।

लेकिन अप्रैल, 2011 के ‘नया ज्ञानोदय’ में मैंने देखा कि वहाँ एक और ही तरह की प्रतिक्रिया हो रही है। संपादक रवींद्र कालिया ने किसी का नाम लिये बिना कहानी आंदोलनों को गलत और अवांछित बताते हुए नये कहानीकारों से मानो यह कहने की कोशिश की है कि वे किसी नये आंदोलन के चक्कर में न पड़ें। इसके लिए उन्होंने फिर वही दशक और पीढ़ी वाला पुराना राग छेड़ा है, जो कहानी आंदोलनों के विरोधी लंबे समय से गाते आ रहे हैं। मैंने अपने साक्षात्कार में (और अन्यत्र भी) यह कहा है कि ‘‘कहानी को किसी दशक या पीढ़ी की छतरी के नीचे ले आने से कहानी की किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। हिंदी कहानी के दशक उसके विकास के सूचक नहीं हैं। विकास की गति सदा इकसार और काल-क्रमानुसार नहीं होती, क्योंकि विकास हमेशा अंतर्विरोधों के बीच होता है। साहित्य में ये अंतर्विरोध दशकों और पीढ़ियों के बीच न होकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों के बीच और रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों के बीच होते हैं।’’

रवींद्र कालिया इन अंतर्विरोधों की बात कभी नहीं करते। वे पीढ़ियों के आपसी झगड़ों की बात करते हुए लिखते हैं--‘‘जब-जब हिंदी में किसी नयी पीढ़ी का उदय हुआ है, उसे पहले की पीढ़ियों ने प्रायः नकारने की ही कोशिशें की हैं। यह कोई नयी प्रवृत्ति नहीं है, दशकों से चली आ रही है। जब सन् साठ के बाद की पीढ़ी ने लिखना शुरू किया था, तो अग्रज पीढ़ियों का भी यही नजरिया था।...ठीक इसी तरह आज कुछ बुजुर्ग आलोचक नितांत नयी पीढ़ी के प्रति सशंकित दिखायी देते हैं।...आलोचकों में विजयमोहन सिंह का दृष्टिकोण इस पीढ़ी के प्रति अवश्य सकारात्मक है। इस अंक से वे युवा पीढ़ी की रचनाशीलता को रेखांकित भी कर रहे हैं।’’

विजयमोहन सिंह ने क्या किया है, इसकी चर्चा बाद में, पहले रवींद्र कालिया के संपादकीय को थोड़ा और देख लें। उन्होंने वर्तमान युवा पीढ़ी के कहानीकारों द्वारा कोई आंदोलन न चलाये जाने की सराहना करते हुए लिखा है--‘‘हिंदी में ‘नयी कहानी’ पहला कथा-आंदोलन था। उसके बाद आंदोलनों की झड़ी लग गयी। सब अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग बजाने लगे। कमलेश्वर ने ‘नयी कहानी’ आंदोलन के अंतिम दौर में अपना नया आंदोलन ‘समांतर कहानी’ के नाम से आरंभ कर दिया। सैद्धांतिकी तैयार की गयी और कहानियों को उस सैद्धांतिकी में फिट किया जाने लगा या सैद्धांतिकी के अनुरूप कहानियाँ गढ़ी जाने लगीं। इस सब के विपरीत आज की युवा पीढ़ी कोई गिरोह बनाकर अवतरित नहीं हुई। एक दौर में बहुत-से कथाकार उभरकर सामने आये। सबका अपना नजरिया था और अपना तेवर।’’

इस वक्तव्य में साहित्यिक आंदोलनों के प्रति अपनाया गया हिकारत और भर्त्सना का भाव तो स्पष्ट ही है, इसमें ‘ओमिशन’ तथा ‘ऐलिगेशन’ के जरिये किया गया एक मिथ्या प्रचार भी अंतर्निहित है। ‘ओमिशन’ इस प्रकार कि इस वक्तव्य में हिंदी कहानी के दो ही आंदोलनों की बात की गयी है--‘नयी कहानी’ और ‘समांतर कहानी’ की--जबकि अन्य कहानी आंदोलनों का, खास तौर से ‘समांतर कहानी’ के बाद चले प्रगतिशील-जनवादी कहानी के आंदोलन का पूरा विलोपन कर दिया गया है, जिससे लगे कि उसमें शामिल कहानीकारों तथा उनकी कहानियों का कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था। और ‘ऐलिगेशन’ यह कि साहित्यिक आंदोलन चलाने के लिए पहले एक ‘सैद्धांतिकी’ तैयार की जाती है और फिर या तो कहानियों को उसमें फिट किया जाता है या उसके अनुरूप कहानियाँ गढ़ी जाती हैं। रवींद्र कालिया शायद यह समझते हैं कि वे आज के लेखकों और पाठकों को जैसे चाहेंगे, भरमा लेंगे और अपनी गलत-सलत बातें भी उनसे मनवा लेंगे। मगर आज के लेखक और पाठक साहित्य के इतिहास को जानते हैं और आंदोलन की प्रक्रिया को समझते हैं। वे जानते हैं कि प्रगतिशील-जनवादी कहानी एक ऐतिहासिक वास्तविकता है और साहित्यिक आंदोलन या तो ऐतिहासिक परिस्थिति के दबाव में स्वतःस्फूर्त रूप में उभरते हैं, या अन्यत्र चल रहे आंदोलनों से प्रेरित होकर पैदा होते हैं। पहले रचना होती है, फिर आलोचना। पहले आंदोलन चलते हैं, फिर उनके सिद्धांत बनते हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि पहले सिद्धांत बना लिये जायें और फिर उनके अनुसार रचनाएँ गढ़ी जायें।

लगता है, रवींद्र कालिया को भय है कि नये कहानीकारों ने कोई नया आंदोलन चलाया, तो कहानीकारों की ‘युवा पीढ़ी’ तथा उसके द्वारा लिखी जा रही ‘युवा कहानी’ को सामने लाने और साहित्य में प्रतिष्ठित करने का जो श्रेय उन्होंने हासिल किया है, शायद उनसे छिन जायेगा। अतः वे हिंदी कहानी को दशकों और पीढ़ियों में बाँटकर दिखा रहे हैं और जहाँ कोई संघर्ष नहीं है, वहाँ भी ‘‘पीढ़ियों के संघर्ष’’ की बात कर रहे हैं, जबकि आज नयी तथा अग्रज पीढ़ी के कथाकारों में खासा सद्भाव है और वे एक-दूसरे से बातचीत करते हुए और एक-दूसरे को समझते-समझाते नजर आते हैं। उदाहरण के लिए, ‘परिकथा’ के युवा कहानी अंक-1 में अग्रज पीढ़ी के कथाकारों से नयी पीढ़ी के कथाकारों ने जो बातचीत की है, उसमें न तो कहीं ‘‘पीढ़ियों का संघर्ष’’ है और न कहीं ‘‘नयी पीढ़ी को नकारने’’ की कोशिश!

लेकिन रवींद्र कालिया ने एक नये कहानी आंदोलन की संभावना से भयभीत होकर दशकवाद और पीढ़ीवाद का चक्कर चलाना शुरू कर दिया है। इसका शुभारंभ उन्होंने ‘नया ज्ञानोदय’ के उक्त अंक में विजयमोहन सिंह के लेख ‘नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी और आज की कहानी’ से किया है। कहानी आंदोलनों को खारिज करना है और दशकवाद-पीढ़ीवाद के कंकाल को कब्र से निकालकर पुनः खड़ा करना है, यह पहले से तय है। अतः विजयमोहन सिंह के लेख का पहला वाक्य है--‘‘ ‘नयी कहानी’ एक छद्म नाम था।’’ संपादक जी अपने संपादकीय में कह चुके हैं कि ‘‘हिंदी में ‘नयी कहानी’ पहला कथा-आंदोलन था।’’ और आलोचक जी बता रहे हैं कि ‘नयी कहानी’ कोई नयी कहानी नहीं थी, वास्तव में नयी कहानी तो ‘साठोत्तरी कहानी’ थी। उनके लेख की सबसे प्रमुख स्थापना है--‘‘साठोत्तरी कहानी...ने हिंदी कहानी को एक ऐसा आलोकवृत्त दिया, जिसका प्रभाव आज की कहानी पर स्पष्ट देखा जा सकता है।’’

आज के नये कहानीकारों में से ज्यादातर ने शायद ‘साठोत्तरी कहानी’ का नाम भी नहीं सुना होगा। अतः इसका थोड़ा इतिहास सामने लाना जरूरी है। हिंदी कहानी में ‘नयी कहानी’ का आंदोलन जब पुराना पड़ने लगा, तो उसकी जगह लेने के लिए अनेक आंदोलन उठ खड़े हुए। उनमें से तत्काल उभरने वाले दो मुख्य आंदोलन थे--‘अकहानी’ और ‘सचेतन कहानी’। यह समय था 1960 के आसपास का। अतः जो नये कहानीकार ‘नयी कहानी’ के विरोधी थे, किंतु साहित्यिक आंदोलनों के भी विरोधी थे, और जिन्होंने 1960 के बाद लिखना शुरू किया था, उन्होंने अपना कोई आंदोलन चलाने या किसी दूसरे आंदोलन में शामिल होने के बजाय अलग रहना पसंद किया। उन्होंने स्वयं को साठोत्तरी पीढ़ी का घोषित करते हुए अपनी कहानी को ‘साठोत्तरी कहानी’ का नाम दिया। इसे ‘सन् साठ के बाद की कहानी’ और ‘सातवें दशक की कहानी’ भी कहा गया। यहीं से हिंदी कहानी को दशकों और पीढ़ियों में बाँटकर देखने का सिलसिला शुरू हुआ।

लेकिन स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी आंदोलनधर्मी रही है। वह आंदोलनों से ही विकसित हुई है। ‘नयी कहानी’, ‘अकहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘समांतर कहानी’, ‘प्रगतिशील कहानी’, ‘जनवादी कहानी’, ‘स्त्रीवादी कहानी’, ‘दलितवादी कहानी’ आदि के रूप में उसके विकास का पूरा इतिहास लिखा जा सकता है। लेकिन इसके साथ-साथ एक आंदोलन-विरोधी प्रवृत्ति भी मौजूद रही है, जो आंदोलनों में शामिल लेखकों को ‘गुट’ और ‘गिरोह’ जैसे हिकारत भरे शब्दों से पुकारती है। (रवींद्र कालिया ने अपने उक्त संपादकीय में लिखा है--‘‘आज की युवा पीढ़ी कोई गिरोह बनाकर अवतरित नहीं हुई।’’) इस प्रवृत्ति के लोग कहानी में आने वाले बदलावों को समय, समाज, यथार्थ, लेखकीय दृष्टिकोण और कला-मूल्यों आदि में मौजूद अंतर्विरोधों के आधार पर नहीं, बल्कि पीढ़ियों के अंतर या अंतराल के आधार पर देखते हैं और यह मानकर चलते हैं कि पुरानी पीढ़ी हमेशा नयी पीढ़ी को नकारती है, अतः नयी पीढ़ी को उसके विरुद्ध संघर्ष करके आगे बढ़ना होता है। इसी को ‘‘पीढ़ियों का संघर्ष’’ कहा जाता है।

मजेदार बात यह है कि इस प्रवृत्ति के लोग जहाँ ऐसा कोई संघर्ष नहीं हो रहा होता, वहाँ भी उसे देखने-दिखाने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए, वर्तमान नयी पीढ़ी के कहानीकारों को उनसे पहले की किसी पीढ़ी के लेखकों ने नहीं नकारा। उलटे, सबने उनकी नयी रचनाशीलता का स्वागत-सत्कार ही किया। रवींद्र कालिया द्वारा संपादित ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ ने ही नहीं, हिंदी की लगभग सभी पत्रिकाओं ने उनकी कहानियाँ तथा उनकी पुस्तकों की समीक्षाएँ छापी हैं। लगभग सभी आलोचकों ने उनकी कहानियाँ पढ़ी और सराही हैं। ये सभी संपादक और आलोचक अग्रज पीढ़ियों के हैं। फिर भी उन पर नयी पीढ़ी को नकारने का आरोप लगाया जाता है। इसीलिए ‘परिकथा’ के सितंबर-अक्टूबर, 2010 के अंक में जब राकेश बिहारी दूधनाथ सिंह से पीढ़ियों की टकराहट के बारे में पूछते हैं, तो दूधनाथ सिंह सही कहते हैं--‘‘पीढ़ियों की टकराहट कब और कहाँ हुई, मुझे नहीं मालूम।’’

आज की हिंदी कहानी में कहानीकारों की अनेक पीढ़ियाँ सक्रिय हैं और ऐसे बहुत-से कथाकार तथा कथा-समीक्षक, जो विभिन्न कहानी आंदोलनों में शामिल रहे हैं, आज लेखक, आलोचक और संपादक के रूप में नये कहानीकारों के नयेपन को पसंद और रेखांकित भी करते हैं। (‘परिकथा’ ने तो यह काम सबसे आगे बढ़-चढ़कर किया है।) लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि नयी पीढ़ी हमसे प्रभावित है; जबकि नयी पीढ़ी के प्रति ‘‘सकारात्मक दृष्टिकोण’’ रखने की घोषणा करने वाले ‘साठोत्तरी’ आलोचक विजयमोहन सिंह ‘साठोत्तरी’ संपादक रवींद्र कालिया द्वारा संपादित पत्रिका में लिख रहे हैं कि आज की कहानी पर ‘साठोत्तरी कहानी’ का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है!

लेकिन प्रभावित होना तो दूर की बात है, जैसा मैंने पहले कहा, आज के नये कहानीकारों में से ज्यादातर ने शायद ‘साठोत्तरी कहानी’ का नाम भी नहीं सुना होगा। विजयमोहन सिंह और रवींद्र कालिया जिस ‘साठोत्तरी पीढ़ी’ के हैं, उस पीढ़ी का शायद ही कोई कहानीकार आज स्वयं को ‘साठोत्तरी कहानीकार’ कहता या मानता हो, क्योंकि इस नाम की कहानी की कोई पहचान कभी बनी ही नहीं। अलबत्ता ‘नयी कहानी’ आंदोलन के बाद हिंदी में जो कहानी आंदोलन चले, उनसे संबद्ध-असंबद्ध कहानीकारों की अपनी पहचानें हैं और उनके प्रभाव आज की कहानी पर खोजे जा सकते हैं।

उदाहरण के लिए, ‘नयी कहानी’ आंदोलन के बाद ‘अकहानी’ नाम का जो आंदोलन चला था, उसमें ज्यादातर लेखक उसी पीढ़ी के थे, जिसे 1960 के बाद की पीढ़ी कहा जाता है। लेकिन चूँकि आंदोलन कहानीकारों की उम्र के आधार पर नहीं चलते, इसलिए उसमें कुछ अग्रज पीढ़ियों के कहानीकार भी शामिल थे। बाद में उस आंदोलन के समाप्त हो जाने पर उनमें से कई कहानीकार अन्य कहानी आंदोलनों में शामिल हो गये या पूर्ववर्ती ‘नयी कहानी’ के आंदोलन में ही शामिल माने जाते रहे। मैंने भी 1960 के बाद लिखना शुरू किया था और मैं भी कुछ समय तक ‘अकहानी’ के आंदोलन में शामिल था, जैसे कि आगे चलकर ‘समांतर कहानी’ और फिर ‘प्रगतिशील-जनवादी कहानी’ के आंदोलन में शामिल रहा। ‘अकहानी’ एक अत्यंत अल्पजीवी आंदोलन था, लेकिन यह कैसा रहा होगा, इसका कुछ अंदाजा आज के कहानीकार इस बात से लगा सकते हैं कि 1967 में प्रकाशित ‘अकहानी’ नामक संकलन में शामिल कहानीकार विभिन्न पीढ़ियों के, विभिन्न विचारधाराओं वाले, विभिन्न राजनीतिक दलों तथा संगठनों से संबंध रखने वाले और विभिन्न प्रकार की कहानियाँ लिखने वाले कहानीकार थे। उनके नाम हैं--निर्मल वर्मा, योगेश गुप्त, ममता कालिया, श्याम मोहन श्रीवास्तव, सुरेंद्र अरोड़ा, श्रीकांत वर्मा, कुलभूषण, रवींद्र कालिया, राजकमल चौधरी, सुधा अरोड़ा, रघुवीर सहाय, हिमांशु जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, ज्ञानप्रकाश, रमेश उपाध्याय, जगदीश चतुर्वेदी, सुरेश सिनहा और कामतानाथ।

आज इनमें से किस कहानीकार को ‘साठोत्तरी कहानीकार’ के रूप में जाना या पहचाना जाता है? सबकी अपनी अलग पहचान है, चाहे वह किसी कहानी आंदोलन से संबंधित हो या नहीं। शायद रवींद्र कालिया एकमात्र ऐसे कहानीकार हैं, जो आज भी स्वयं को ‘साठोत्तरी कहानीकार’ मानते हैं। मगर यदि वे यह सोचते हैं कि दशकवाद और पीढ़ीवाद का चक्कर चलाकर किसी नये कहानी आंदोलन का होना असंभव बना देंगे, तो वे भारी मुगालते में हैं। विगत दो दशकों में कोई नया साहित्यिक आंदोलन नहीं चला, तो इसके विशेष ऐतिहासिक कारण रहे हैं। यहाँ मैं उन कारणों में नहीं जाऊँगा, लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूँ कि यह दो दशकों की शांति तूफान के पहले की शांति थी। आज दुनिया के हर हिस्से में और जीवन के हर क्षेत्र में नित्य नये आंदोलन उभर रहे हैं। यह असंभव है कि हिंदी साहित्य में नये आंदोलन न उभरें।

हिंदी में प्रगतिशील-जनवादी कहानी के आंदोलन के बाद कोई आंदोलन नहीं चला। लेकिन विगत दो दशकों में समय बदल गया है, ऐतिहासिक परिस्थिति बदल गयी है, भौगोलिक परिप्रेक्ष्य बदल गया है, इसलिए अब वह या उसी तरह का कोई आंदोलन उसी पुराने तरीके से नहीं चल सकता। एक नये आंदोलन की जरूरत है और वह नये ही ढंग से चलेगा। मैंने अशोक कुमार पांडेय से की गयी अपनी बातचीत में भविष्योन्मुखी कहानी का नाम सुझाया था। उसके पीछे भविष्य की एक बेहतर दुनिया की परिकल्पना थी। उसे अपने शब्दों में बताने के बजाय मैं ‘दि वर्ल्ड वी विश टु सी’ नामक पुस्तक के लेखक समीर अमीन के शब्दों में बताना चाहूँगा। उनके अनुसार ‘‘वह दुनिया समस्त मनुष्यों तथा जनगणों की एकजुटता के आधार पर बनेगी। वह पूरी तरह और समूचे तौर पर नागरिक तथा लैंगिक समानता पर आधारित होगी। उसमें एक ऐसी सार्वभौम सभ्यता होगी, जो जीवन के सभी क्षेत्रों में सर्जनात्मक विकास की पूरी संभावनाएँ प्रस्तुत करेगी। उसमें प्रकृति, पृथ्वी के संसाधन तथा कृषि-भूमि विक्रय की वस्तु नहीं होंगे। उसमें कला, साहित्य, संस्कृति, विज्ञान, शिक्षा और स्वास्थ्य भी क्रय-विक्रय की वस्तु नहीं होंगे। उसमें जीवन की समस्त गतिविधियाँ पूरी तरह जनतांत्रिक होंगी और उसकी नीतियाँ सभी समाजों, राष्ट्रों तथा जनगणों की स्वायत्तता की रक्षा करते हुए उनकी प्रगति को सुनिश्चित करेंगी।’’

मैं जानता हूँ कि ऐसी दुनिया साहित्य से और उसकी एक विधा कहानी से नहीं बनेगी। फिर भी मैं यह मानता हूँ कि कहानीकार ऐसा स्वप्न लेकर चलेंगे, तो उनकी कहानी ऐसी दुनिया के निर्माण में अपना यत्किंचित् योगदान अवश्य करेगी। अतः भविष्योन्मुखी कहानी का उद्देश्य आज की दुनिया को बदलकर एक बेहतर दुनिया बनाना होगा। इस बड़े उद्देश्य के लिए उसे अन्य बड़े और व्यापक आंदोलनों से जुड़कर चलना होगा और वे बड़े आंदोलन भी अब तक चले आंदोलनों से भिन्न नये ढंग के आंदोलन होंगे। मसलन, हो सकता है कि हिंदी कहानी के अब तक अलग-अलग चले प्रगतिशील-जनवादी, स्त्रीवादी, दलितवादी इत्यादि विभिन्न आंदोलन सब मिलकर एक साथ, एक ही आंदोलन के रूप में, या किसी एक बड़े और व्यापक आंदोलन के विभिन्न अंगों के रूप में चलें।

जाहिर है कि ये तमाम आंदोलन जिस बेहतर दुनिया को बनाने के लिए चलेंगे, वह पूँजीवादी दुनिया नहीं हो सकती। इसलिए वह पूँजीवादी व्यवस्था को बदलकर ही बनेगी। और पूँजीवादी व्यवस्था पुनः समीर अमीन के ही शब्दों में ‘‘एक विश्व-व्यवस्था है, अतः इसके शिकार लोग इसकी चुनौतियों का सामना भूमंडलीय स्तर पर संगठित होकर ही कर सकते हैं।’’

अतः अब जो आंदोलन चलेंगे, उनकी प्रकृति और संस्कृति अब तक के आंदोलनों से भिन्न होगी। मसलन, भविष्योन्मुखी कहानी यथार्थवादी कहानी की परंपरा से अपना नाता तो जोड़ेगी, उस परंपरा को आगे भी बढ़ायेगी, लेकिन वह यथार्थवाद के अब तक के तमाम रूपों से भिन्न एक नया यथार्थवाद होगा। मैं उसे भूमंडलीय यथार्थवाद कहता हूँ। आज की कहानी जाने-अनजाने इसी यथार्थवाद की दिशा में जा रही है, जिसके कुछ संकेत ‘परिकथा’ के युवा कहानी अंकों में प्रकाशित कहानियों में भी पाये जा सकते हैं।

अंततः मैं ‘परिकथा’ के संपादक शंकर और उनकी पूरी टीम को ‘युवा कहानी’ अंकों की शृंखला के लिए बधाई देते हुए एक दोस्ताना सलाह देना चाहता हूँ कि ‘युवा कहानी’ की जगह आज की कहानी के लिए कोई बेहतर नाम अपनायें और इस नाम को ‘साठोत्तरी’ लोगों के लिए छोड़ दें।

--रमेश उपाध्याय